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1st May Day : आज ही के दिन मजूदरों ने अपने हक के लिए आवाज उठाई

किसी भी सार्वजनिक आयोजन से अधिक महत्वपूर्ण है उस वर्ग के अस्तित्व रक्षा पर विचार करना । आज हमें अपने आसपास श्रमिक बंधु के बारे में विचार अवश्य करना चाहिए ।

नई दिल्ली। एक मई का दिन इतिहास में मजदूर दिवस के तौर पर दर्ज है। दुनिया में मजदूर दिवस मनाने का चलन करीब 132 साल पुराना है। मजदूरों ने काम के घंटे तय करने की मांग को लेकर 1877 में आंदोलन शुरू किया, इस दौरान यह दुनिया के विभिन्न देशों में फैलने लगा। एक मई 1886 को पूरे अमेरिका के लाखों मज़दूरों ने एक साथ हड़ताल शुरू की। इसमें 11,000 फ़ैक्टरियों के कम से कम तीन लाख अस्सी हज़ार मज़दूर शामिल हुए और वहीं से एक मई को मजदूर दिवस के रूप में मनाने की शुरूआत हुई।

निस्संदेह आज कोई आयोजन नहीं हो सकता लेकिन आज की परिस्थितियाँ हमें श्रमिकों की परिस्थिति पर विचार के लिये विवश करती है । किसी भी सार्वजनिक आयोजन से अधिक महत्वपूर्ण है उस वर्ग के अस्तित्व रक्षा पर विचार करना । आज हमें अपने आसपास श्रमिक बंधु के बारे में विचार अवश्य करना चाहिए ।

आज की परिस्थितियाँ विशिष्ट हैं । इन विशिष्ट परिस्थितियों में श्रमिक वर्ग की दो तस्वीरें उभरी हैं । एक तस्वीर है अपने रोजगार से वंचित होकर पलायन करते और अपनी आजीविका के लिये भटकते हुये श्रमिकों की भीड़ और दूसरी है अपने प्राण हथेली पर लेकर कोरोना की जंग में दिन रात जूझता हुआ श्रमिक वर्ग । दुनियाँ की प्रगति आज विज्ञान की हो या उद्योग की, अल्पिन का निर्माण हो या हवाई जहाज का इन सबके श्रमिकों की साधना है । वे केवल अपने जीवन की न्यूनतम आवश्यकताओं की पूर्ति के पारिश्रमिक से ही संतुष्ट होकर दिन रात जुटे रहते हैं । लेकिन आज उसका अवसर भी समाप्त हो गया । कारखाने बंद हैं, भवन निर्माण के कार्य रुके हैं ।

रेल बस औ, हवाई जहाज की यात्राएँ भी नाम मात्र की हैं । इससे उसकी आजीविका ही नहीं भोजन का संकट भी आ गया है । वह विवश है एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाने के लिये । उसे अपने गाँव में कुछ और न मिले रोटी तो मिलेगी । इसलिए वह जा रहा है भाग रहा है । इस भागम-भाग में कितने श्रमिकों ने रास्ते में ही दम तोड़ दिया और कितने सफर में संक्रमण का शिकार हो गये । इसका हिसाब किसी के पास नहीं । तो दूसरी ओर श्रमिकों का एक वर्ग और जो समाज की जिन्दगी बचाने के लिये अपनी जिंदगी दांव पर लगा रहा है । निसंदेह कोरोना में नियंत्रण हुआ है । रिकवरी रेट बढ़ा है, मरीजों की आवक घटी है और नये मरीजों का अनुपात भी नियंत्रित हुआ है तो इसकी बुनियाद में भी श्रमिकों की साधना को नकारा नहीं जा सकता।

इस प्राणलेवा कोरोना पर यदि कुछ नियंत्रण हुआ है, उसके विस्तार पर कुछ लगाम लगी है, या उसे सीमित किया जा सका है तो इसके श्रेय में श्रमिक वर्ग की साधना को भी शामिल किया जाना चाहिए । श्रमिक समूह की साधना के बिना किसी विशेषज्ञ का कोई अनुसंधान पूरा नहीं हो सकता था, किसी चिकत्सक का कोई उपचार पूरा नहीं हो सकता था । यदि चिकित्सक उपचार कर पायें हैं, विशेषज्ञ औषधि खोज पाये हैं या शासन प्रबंधन ने उन्हे नगर नगर और अस्पताल तक पहुंचा पाये हैं तो यह श्रमिकों के श्रम से ही संभव हो पाया है । पिछले लगभग सवा साल से पूरी दुनियाँ में के करोड़ों लोग बीमार हुये और लाखों लोगों की मौत हुई । ये आकड़े और भयावह भी हो सकते थे । यह सभी संबंधितों का तप ही है कि मरने वालों का आकड़ा करोड़ों में नहीं पहुंचा । इसका श्रेय चिकित्सकों, अनुसंधानकर्ताओं और प्रबंधन में लगे सुरक्षा कर्मियों को तो जाता ही है कि उन्होंने न अपनी जान की परवाह की और न परिवार की । न समय का ही आकलन ही किया। वे रात दिन जुटे रहे। अपनी सामर्थ्य से अधिक समर्पित रहे । कितने चिकित्सकों ने तो प्राण तक दे दिये । वे सब सम्माननीय हैं, वंदनीय हैं।

प्रतिदिन हमारे घर के सामने की सड़क साफ करने या प्रतिदिन घर से कचरा उठाने के लिये आने वाला श्रमिक ही तो है जिसकी साधना इस विषम परिस्थिति में समाज का जीवन चला । पर इस समर्पण और इस श्रम साधना से ही समाज देश और दुनियाँ के समाचार जान पाया, इसकी साधना से ही रोटी सब्जियां बना कर खा पाया । पर न तो इस श्रम और साधना का कहीं मूल्यांकन हुआ और न चर्चा ही हुई । यह श्रमिक समूह बिना किसी चर्चा के या सराहना के अपने काम में लगा रहा और आज भी लगा है । कोरोना पर आज यदि नियंत्रण हो सका है, उसके प्रकोप को यदि नियंत्रित किया जा सका है तो इसके पीछे श्रमिक वर्ग की तपस्या ही तो है । उसके बिना भला कौन चिकित्सक रोगी का उपचार कर पाता ।

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