Home पॉलिटिक्स 21वीं सदी में सर्वाधिक प्रासंगिक हैं धर्मध्वजवाहक स्वामी विवेकानंद

21वीं सदी में सर्वाधिक प्रासंगिक हैं धर्मध्वजवाहक स्वामी विवेकानंद

कहते हैं होनहार वीरवान के होत चिकने पात यह कहावत विवेकानंद पर सच साबित होती है । वह स्वयं भूखे रहकर अतिथि को भोजन कराया करते थे। स्वयं रात भर वर्षा में भीगते ठिठुरते रहते थे, लेकिन अतिथि को तकलीफ न हो इसलिए उन्हें अपना विस्तर दे दिया करते थे । बाहर कुछ साधु आए है मां – नरेंद्र ने अत्यंत सरल और अबोध भाव से कहा। उसे रुकना पड़ा था , इसलिए उसके चेहरे पर यातना उभर आई थी । उसके सारे व्यक्तित्व में एक याचना थी । ‘ मां मुझे मत रोको’ । तुझे कहा था न कि तुम्हे साधुओं के पास नहीं जाना है।

वे बच्चे को बहलाकर अपने साथ कहीं ले जा सकते हैं मां ने कहाष् । नरेंद्र को जैसे अपराध बोध हो गया हो वह बोला मैं आज उन्हें अपनी धोती नहीं दूंगा मां । धोती तो तू नहीं देगा , पर तेरा क्या भरोसा तू अपना मन ही दे बैठे । मां ने कहा। ऐसे थे बालक नरेंद्र दत्ता । रामकृष्ण परमहंस की प्रसंशा सुनकर वह उनसे तर्क करने के विचार से बेलूर गए थे, परन्तु रामकृष्ण परमहंस ने उन्हे देखते ही पहचान लिया की यह तो उनका वहीं शिष्य है जिनका उन्हें न जाने कब से तलाश थी और शायद उन्हीं का वे इंतजार कर रहे थे ।

रामकृष्ण परमहंस की कृपा से इनको आत्मसाक्षात्कार हुआ और परिणास्वरूप नरेन (बचपन में माता पिता और परिवार के सदस्य इसी नाम से पुकारते थे ) रामकृष्ण परमहंस के प्रमुख शिष्यों में से एक हो गए । संन्यास लेने के बाद इसी बालक का नाम विवेकानंद पड़ा। गुरुदेव रामकृष्ण परमहंस के शरीर त्याग के पहले और पश्चात अपने घर और कुटुंब की नाजुक हालत की परवाह किए बिना उनकी सेवा में सदैव लगे रहे । गुरुदेव के गले के कैंसर होने के कारण थूक, रक्त , कफ आदि निकलता था , लेकिन उनकी देखभाल और सफाई का वह सदैव ध्यान रखते थे । कहा जाता है कि गुरुदेव के प्रति स्वामी विवेकानंद कितने आस्थावान और समर्पित थे की एक बार किसी ने गुरुदेव की सेवा के प्रति घृणा दिखाई और नाक भौहें सिकोड़ी । इसे देखकर विवेकानंद ने गुस्सा दिखाते हुए उस गुरु भाई को पाठ पढ़ने के उद्देश्य से और गुरुदेव के प्रति अपना स्नेह, भक्ति दिखाते हुए बिस्तर के पास रक्त, कफ आदि से भरी थूकदानी पूरी उठकर पी गए । गुरु के प्रति ऐसी अनन्य भक्ति और निष्ठा के प्रताप से ही वे अपने गुरुदेव के शरीर और उनके आदर्शों की श्रेष्ठतम सेवा कर सके।

समग्र विश्व में भारत के अमूल्य आध्यात्मिक भंडार की महक वह इसलिए फैला सकें, क्योंकि उनके इस महान भक्ति के नींव में थी ऐसी गुरु भक्ति , गुरुदेव की सेवा और समर्पण।

पच्चीस वर्ष की आयु में ही नरेंद्र दत्ता ने गेरुआ वस्त्र धारण कर लिया और फिर पैदल ही उन्होंने भारत की यात्रा की । भारतवर्ष को नजदीक से देखा । फिर 1893 में शिकागो में जो धर्म परिषद हो रही थी उसमे भारत का प्रतिनिधित्व करने स्वामी विवेकानंद ही गए थे । अमेरिकन और यूरोपियन लोग उस काल में भारतीय वस्त्रों को बहुत ही हेय, घृणित नजर से देखते थे इसलिए वे लोग चाहते थे कि धर्म परिषद में स्वामी विवेकानंद को बोलने का अवसर ही न मिले, लेकिन एक अमेरिकन प्रोफेसर के प्रयास से उन्हें थोड़ा दो मिनट का समय मिला , परन्तु उनके विचार को सुनते हुए वहां उपस्थित धर्म परिषद के सारे विद्वान सारे धर्माधिकारी आश्चर्यचकित रह गए । उनके उद्बोधन की शुरुआत ही प्रिय अमेरिकन बहनों और भाइयों से हुई । जिसे सुनकर वहां उपस्थित धर्माधिकारियों की तालियां लगातार बजती रही यह सोचकर कि क्या हिंदुत्व इतना महान है जो विश्व को भाई बहन समझ और कह रहा है । अद्भुत नजारा था वह । भारतीय धर्मध्वज फाहरा रहा था और मंत्रमुग्ध होकर विश्व के सभी विद्वतजन उसका रसास्वादन कर रहे थे । तालियां गूंजती रही धर्मध्वजवाहक ध्वज लेकर आगे बढ़ते रहे । वहीं थे हमारे स्वामी विवेकानंद ।

12 जनवरी को उनका जन्मदिन है उनके नाम और यश के आगे बार बार अपने को नतमस्तक होने का मन होता है । आज भी सब उनकी जयजयकार करते हैं। 4 जुलाई 1902 में मात्र 39 वर्ष की उम्र में उन्होंने बेलूर मठ में अपने शरीर का त्याग किया । उनका कथन था ष्उठो और जागो और तब तक नहीं रुको जब तक लक्ष्य न प्राप्त हो जाएष् । भारत में स्वामी विवेकानंद को देश भक्त सन्यासी के रूप में माना जाता है और उनके जन्मदिन को राष्ट्रीय युवा दिवस के रूप में मनाया जाता है।

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