Home पॉलिटिक्स Guest Column : क्षणिक लोभ और पांच साल का मरोड़

Guest Column : क्षणिक लोभ और पांच साल का मरोड़

स्वतंत्र भारत के चुनाव का यही इतिहास है। वर्ष 1950 से अब तक चुनाव में जो बदलाव आया है, उसका खाका आपके सामने है और देश का हालत भी आपको पता है। इसलिए बहकावे में आकर कहीं आपका चयनित प्रतिनिधि, जो सर्वोच्च पंचायत में पहुंचकर आपके क्षेत्र का प्रतिनिधित्व करता है, वह 'कलंक' न साबित हो जाए और विंस्टन चर्चिल की यह बात भी सच न हो जाए कि भारत के राजनेताओं की अयोग्यताओं के कारण यह खंड—खंड में बंटकर नष्ट हो गया।

निशिकांत ठाकुर

तत्कालीन ब्रिटिश प्रधानमंत्री विंस्टन चर्चिल ने और अंग्रेजों ने भारत को ऐसा समाज कहा था जो लोकतंत्र को न पचा पाएगा, न इसे संभालकर आगे बढ़ा पाएगा और कुछ ही समय में खंड—खंड में बंटकर स्वतः नष्ट हो जाएगा। इसके पीछे की वजह यहां के राजनीतिज्ञों की अयोग्यता और अनुभवहीनता बताई गई और कहा गया कि सत्ता संभाल नहीं सकेंगे। लोकसभा की 497 तथा राज्य विधानसभाओं की 3,283 सीटों के लिए भारत के 17,32,12,343 मतदाताओं का निबंधन हुआ। इनमें से 10.59 करोड़ लोगों ने, जिनमें करीब 85 फीसद निरक्षर थे, अपने जनप्रतिनिधियों का चुनाव करके पूरे विश्व को आश्चर्य में डाल दिया। 25 अक्टूबर, 1951 से 21 फरवरी, 1952 तक यानी करीब चार महीने चली उस चुनाव प्रक्रिया ने भारत को नए मुकाम पर लाकर खड़ा किया। यह अंग्रेजों द्वारा लूटा-पीटा, अनपढ़ बनाया गया कंगाल देश जरूर था, लेकिन इसके बावजूद इसने स्वयं को विश्व के घोषित लोकतांत्रिक देशों की कतार में खड़ा कर दिया। वर्ष 1950 में इतने बड़े चुनाव को संपन्न कराने का जिम्मा सुकुमार सेन नामक एक प्रशासनिक अधिकारी के हाथों में सौंपा गया था। विश्व के लिए यह चमत्कार ही था कि इतने बड़े देश में इतने कम संसाधनों के बावजूद उन्होंने देश का पहला चुनाव संपन्न कराया। पुरस्कार स्वरूप सुकुमार सेन तत्कालीन मुख्य चुनाव आयुक्त को पद्मविभूषण के सम्मान से सम्मानित किया गया। आज जिन पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव हो रहे हैं उसमें संसाधन की कोई कमी नहीं है, न ही धन की कोई कमी है। शायद चर्चिल और वे तथाकथित अंग्रेज यदि जीवित होते तो विकसित भारत का यह विकसित रूप देखकर शर्म से डूब मरने की बात सोचते।

अब 2022 में पांच राज्यों में विधानसभा के चुनाव चल रहे हैं, वह 10 और 14 फरवरी को दो चरण के मतदान हो चुके हैं, जबकि 7 मार्च को अंतिम चरण का मतदान होगा। बीच में 20 फरवरी को तीसरा, 23 फरवरी को चौथा, 27 फरवरी को पांचवां और 3 मार्च को छठे चरण का मतदान होगा। सभी राज्यों के विधानसभा चुनावों के नतीजे 10 मार्च को आएंगे। उत्तर प्रदेश में कुल 403, जबकि पंजाब में 117, उत्तराखंड में 70, मणिपुर में 60 और गोवा में 40 विधानसभा सीटें हैं। पांच राज्यों के लिए सबसे पहले 10 फरवरी को मतदान हुआ। 10 मार्च को सभी राज्यों में मतगणना होगी। पंजाब में सिर्फ एक ही चरण में 20 फरवरी को मतदान होगा, जबकि गोवा और उत्तराखंड में एक साथ 14 फरवरी को मतदान हुआ। मणिपुर में दो चरणों में 28 फरवरी और 5 मार्च को मतदान कराया जाएगा। उत्तराखंड और गोवा के साथ पश्चिमी उत्तर प्रदेश की कुल 135 सीटों के लिए 21 फरवरी को चुनाव हुए। गोवा और उत्तराखंड में एक ही दिन में चुनाव हो गए, वहीं उत्तर प्रदेश में पांच चरण शेष हैं।

अब आप आज हो रहे चुनाव की तुलना उस समय से करें, जिसका उल्लेख किया गया है, तो आप विस्मित हो जाएंगे। चुनाव जीतने के लिए आज जो कुछ कहा और बोला जाता है, क्या किसी देश में इस प्रकार की भाषा का उपयोग किया जाता है? हर देश में, और खासकर पश्चिमी देशों में आमने—सामने बैठाकर यह बात जनता पूछती है कि यदि आप चुनाव जीतते हैं तो समाज का देश का विकास आप क्या करेंगे। पत्रकार भी जनहित के लिए उनसे प्रश्न पूछते हैं , उनका प्रश्न यह भी होता है युवाओं को रोजगार देने के लिए कितने सार्वजनिक उपक्रम लगाए , कितने युवाओं को रोजगार दिया । जो उस बहस में जनता के प्रश्नों का सही उत्तर देते हैं, लोग उन्हीं के पक्ष में मतदान करते हैं। लेकिन, क्या भारत जैसे विशाल जनतत्र में ऐसा कभी हुआ है? यदि ऐसा होने लग जाए तो अब तक देश का काया पलट गया होता और हम ब्रिटेन और अमेरिका को टक्कर दे रहे होते। पश्चिमी देशों में उम्मीदवारों से यह भी पूछा जाता है कि जब आप सत्ता में थे तो आपने क्या किया? ऐसा कभी किसी देश में नहीं होता जहां जातियों के दम पर चुनाव लडा जाता हो और प्रश्न पूछने पर यह कहा जाता हो कि इस जाति या इस देश के नागरिक को हटाने के लिए नए—नए कानून बनाए गए- ऐसा इसलिए, क्योंकि उनके यहां इस प्रकार जातिगत व्यवस्था नहीं है। कोई कभी यह नहीं सुना होगा किसी देश के राष्ट्रध्यक्ष या नेता यह कहते हुए सुने गए हों कि यदि हमारी सरकार बनी तो हमारी सरकार इस वर्ण के नागरिकों को देश से बाहर खदेड़ देगी। यह सब जानते हैं कि यदि हम किसी को अपने देश से खदेड़ने की बात करते हैं तो यह क्यों नहीं सोचते कि हमारे भी लोग विदेशों में जाकर जीविकोपार्जन करके देश के लिए विदेशी पूंजी अपने देश को भेजते हैं और यदि उसके द्वार बंद हो गए तो भारतीय खजाने के विदेशी मुद्रा भंडार को कैसे भरा जाएगा। देश में अनावश्यक भेदभाव फैलाकर एक—दूसरे समुदाय को डराकर रखना कहां का न्याय है! मुसलमानों को आश्वस्त करते हुए सरदार बल्लभ भाई पटेल ने कहा था, ‘मुसलमानों को यह समझना चाहिए कि यह लड़ाई हिंदू राज्य स्थापित करने के लिए नहीं है, बल्कि गुलामी की बेड़ियों को तोड़ने के लिए हैं।’ उन्होंने यह गलतफहमी पैदा करने के लिए अंग्रेजों की आलोचना करते हुए कहा था कि वह एक समुदाय को भी विभाजित कर सकते हैं, हिंदुओं में भी वे सवर्णों और अनुसूचित जाति के बीच चीरा लगा सकते हैं। आजादी की लड़ाई हमारे पूर्वजों ने इसलिए नहीं लड़ी थी कि अंग्रेजों से आजाद होने के बाद भारत हिंदू राष्ट्र बना दिया जाएगा।

लेकिन हां, हमारे देश में जातियों के आधार पर चुनाव में टिकट देने, जातिगत आधार पर चुनाव जीतने के लिए प्रचार करने का नियम हमारे संविधान निर्माताओं ने जो बनाया, वही आज देश के लिए अहितकारी है। उस कालखण्ड में दरअसल, संविधान निर्माताओं ने जातिगत आधार पर प्रतिनिधियों को चुनने का इसलिए अधिकार दिया था ताकि इस देश के कमजोर और पिछड़ी जातियों को सरकार तक अपनी आवाज पहुंचाने का रास्ता खुले सके, वह समाज की अगली कुर्सी पर बैठ सके। पर, आजादी के लगभग 75 वर्ष बाद भी हम समाज को जोड़ नहीं पाए और उन पिछड़ी जातियों के प्रति न्याय नहीं कर पाए। ऐसा क्यों हुआ और इस सामाजिक दूरी को क्यों नहीं पाट सके, यह गंभीर और गहन अनुसंधान का विषय है, लेकिन इसकी समीक्षा तो होनी ही चाहिए। संविधान निर्माताओं ने बड़ी दूर की सोचकर ग्रंथ रूपी संविधान हमें प्रदान किया था। यदि उसके अनुरूप चले होते तो निश्चित रूप हम बहुत आगे होते। लेकिन, आज आजादी के 75 वर्ष बाद भी जातीय लड़ाई की उलझन में हमारे नेताओं ने हमें अपने स्वार्थ के लिए फंसा दिया है और इसलिए विश्व के साथ कदम से कदम मिलाकर चलने में पीछे हो गए। उनकी सोच यह भी थी कि धीरे—धीरे समाज में शिक्षा का प्रभाव बढ़ेगा और एक दिन ऐसा आएगा जब वे अपने पैर पर खड़े हो जाएंगे, लेकिन उन्होंने यह कहां सोचा था कि समाज के जितने शरारती तत्व हैं, उन्हें ही प्रतिनिधित्व मिलने लगेगा और बाहुबली होने के कारण देश की सर्वोच्च सदन की प्रतिष्ठा को धूमिल करते रहेंगे। जिस प्रकार संसद और विधानसभा में हंगामा होता है उसे देखकर तो कभी—कभी ऐसा लगता है, इतने अशिक्षित, ऐसे अपराधी प्रवृति के व्यक्तियों को चुनकर देश की सर्वोच्च संस्थान में क्यों भेजा गया। सच तो यह है कि ऐसे लोगों को जनता चुनती नहीं, बल्कि वे अपनी बाहुबल के दम पर मतदाताओं को मजबूर कर देते हैं कि उनके आक्रामक चरित्र से समाज में फैले भय के कारण मतदाताओं को उन्हें ही मतदान करना पड़ता है।

जो भी हो –अब तो समाज को जागरूक होना ही पड़ेगा, क्योंकि यदि विश्व के साथ कदम मिलने में पिछड़ गए तो देश बिखर जाएगा और अंग्रजों की कही बात कि हिंदुस्तान खंड—खंड में बाटकर समाप्त हो जाएगा, सच साबित हो जाएगी। इसलिए जिस किसी को अपना प्रतिनिधि चुनने जा रहे हैं, उनके प्रति पूरी जानकारी रखिए। हां, यह सच है कि चुनाव लड़ाने के लिए प्रतिनिधियों के चयन का कोई अधिकार आपको नहीं है, उनका चयन तो पार्टी करती है, आपको तो केवल उस व्यक्ति के प्रति अपनी सहमति ही देने का अधिकार है, इसलिए जिसे आप चुन रहे हैं। यह देखना आपका दायित्व है कि वह कोई दागी तो नहीं, कोई माफिया तो नहीं? खूब परखिए और अपने दिल की सुनकर उसे ही मतदान करिए जो आपके समाज के लिए कुछ अच्छा करने का जज्बा रखता हो। यह चर्चा जोरों पर आज है कि कई राज्यों में भाजपा फिर से सत्ता पर काबिज नहीं हो रही है, तो फिर यह प्रश्न उठता है कि क्या इन राज्यों में और विशेष रूप से उत्तर प्रदेश में सरकार को चलने दिया जाएगा ? चुनाव तो आते ही रहेंगे, लेकिन यदि आपने प्रतिनिधि चयन में कोई चूक कर दी तो फिर पांच साल पछताने के अतिरिक्त कोई मार्ग नहीं बचेगा। इस बात को ध्यान में रखें कि शिकारी आएगा जाल बिछाएगा… लेकिन,आपको उसमें लोभ से बहकावे में नहीं आना है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक हैं)

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