Home ओपिनियन Guest Column : इस्लामिक कैलेंडर में पहला महीना है मुहर्रम

Guest Column : इस्लामिक कैलेंडर में पहला महीना है मुहर्रम

पंकज चतुर्वेदी

हिजरी अर्थात इस्लामिक कैलेंडर। इसमें भी बारह महीने हैं। पहला महीना है मुहर्रम।
इस्लामी कैलेंडर के महीने इस प्रकार हैं–:
1. मुहर्रम
2.सफर
3.रबीउल-अव्वल
4.रबीउल-आखिर(सानी)
5.जमादी-उल-अव्वल
6.जमादी-उल-आख़िर
7. रजब
8.शाअबान
9.रमज़ान
10.शव्वाल
11.जिल क़ाअदह
12.जिल हिज्जा
हिजरी सन्‌ का आगाज इसी महीने से होता है। इस माह को इस्लाम के चार पवित्र महीनों में शुमार किया जाता है।
अल्लाह के रसूल हजरत मुहम्मद (सल्ल.) ने इस मास को अल्लाह का महीना कहा है।
मुहर्रम शब्द ‘हराम’ या ‘हुरमत’ से बना है जिसका अर्थ होता है ‘रोका हुआ’ या ‘निषिद्ध’ किया गया. मुहर्रम के महीने में युद्ध से रुकने और बुराइयों से बचने की सलाह दी गई।माना जाता है कि इसी महीने में पैगंबर हज़रत मुहम्मद साहब को अपना जन्मस्थान मक्का छोड़ कर मदीना जाना पड़ा जिसे हिजरत कहते हैं. उनके नवासे हज़रत इमाम हुसैन और उनके परिवार वालों की शहादत इसी महीने में हुई ।
इस्लाम के शिया मत के लोग हज़रत मुहम्मद के नवासे की शहादत को याद करते हुए महीने के प्रारम्भ से 10 तारीख तक शोक या मातम मनाते हैं। सुन्नी बंधु 8 से 10 तिथि के तीन दिन उपवास या रोजे रखते हैं।
शहादत की अंग्रेजी कैलेंडर के अनुसार तारीख 10 अक्टूबर 680 थीं।औऱ हिजरी के अनुसार 10 मुहर्रम 61 हिजरी।
इस्लाम में इसी लिए नव वर्ष पर बधाई देने का रिवाज नहीं है क्योंकि इसके प्रारम्भ में शोक पर्व है।
एक बात और, भारत में मुहर्रम के ताजिये दुनिया में अनूठे हैं और इसे हिन्दू मुस्लिम समान रूप से मनाते हैं। असल नें तैमूर लंग भारत में था और उसकी तबियत खराब थी। वह चाह कर भी कर्बला इराक़ नहीं जा पाया। तब उसके कुछ दरबारियों ने पहली बार ताज़िया बनाया।कलाकारों ने बांस की किमचियों की मदद से ‘कब्र’ या इमाम हुसैन की यादगार का ढांचा तैयार किया। इसे तरह-तरह के फूलों से सजाया गया। इसी को ताजिया नाम दिया गया। इस ताजिए को पहली बार 801 हिजरी में तैमूर लंग के महल परिसर में रखा गया।
हमें बड़ी उम्र तक यह नहीं पता था कि ताजिये किस सम्प्रदाय की मान्यता है। मुझे अपनी तीन साल की उम्र से याद है, भुराडे काका इंदौर में साइकल पर ले जाते थे। ताजिये के नीचे से निकलना, ढोक देना, मीठा पानी पीना।
फिर बचपन के पांच साल जावरा में बीते। देश दुनिया के कच्छी, ईरानी, खोजे मुहर्रम पर जावरा आते। शहर की हर सड़क के किनारे फुटपाथ पर लाखों बिस्तर पड़े होते। हर घर में रिश्तेदार और परिचित। सारी रात ताजिये निकलते। एक एक को 500 तक लोग उठाते ।
हुसैन टेकरी तक जाते।कुतुब गेट के भीतर 10 दिनों का मेला भी लगता। हम हॉग रहट झूलने जाते, ऊपर से धूल या थूकने पर झगड़े होते।
छतरपुर बुन्देलखण्ड में ताजिये पर शहर के हिन्दू सुनार कई सौ तोला सोना चढ़ाते हैं। यहाँ अली के शेर निकलते हैं और रात में अलाव। अंगारों पर चलने का खेल। सब जात धर्म के लोग शामिल होते।
यह बात सही है कि जिस सऊदी अरब से पुरस्कार ले कर कुछ लोग फूले नहीं समा रहे, उसी ने पेट्रो डॉलर से देवबंदियों के जरिये मस्जिदों मदरसों पर कब्जे किये, उन्हें सुंदर बनाया और लोगों को कट्टर इस्लाम की और धकेल दिया। ये मुहर्रम में ताजियों, मज़ार पर उर्स से के कर हिन्दू पूजा के प्रसाद लेने तक को इस्लाम विरोधी बता कर तालिबानिकरण कर रहे हैं। यही लोग फ़रमानी के गीत में धर्म तलाशते हैं।
मुहर्रम के ताजिये दुनिया की पहली आतंकी घटना की याद के साथ साथ हिन्दू मुस्लिम एकता के पर्व थे। दोनों के अखाड़े साथ चलते, दोनो के कंधों पर ताजिये होते। संघी तो पहले ही इसके खिलाफ थे और दंगे उकसाने के लिए उस पर्व का इंतज़ार करते। अब मूंछ कटवा, ऊंचे पजामे व लम्बे कुर्ते वाले भी भारत के सूफी इस्लाम को उस अरब के इस्लाम बना रहे हैं जो अमेरिका के रहमोकरम पर है।
अरे साथ मिल कर सुख दुख बांटने से कोई भगवान नाराज़ नहीं होता।

Exit mobile version