Home ओपिनियन मीडिया : एक पांव जमीन पर , दूजा हवा में

मीडिया : एक पांव जमीन पर , दूजा हवा में

हमें नकारात्मक शक्तियों के खिलाफ कलम उठानी है और नये नायक देने हैं जो समाज के लिए काम कर रहे हैं और करते रहें ।

कमलेश भारतीय

मैं शहीद भगत सिंह के पैतृक गांव खटकड़कलां के गवर्नमेंट आदर्श सीनियर सेकेंडरी स्कूल में प्रिंसिपल होने के साथ साथ पार्टटाइम रिपोर्टर था दैनिक ट्रिब्यून का । विधिवत जनसंचार की कोई क्लास नहीं लगाई लेकिन समाचार संपादक व शायर सत्यानंद शाकिर के शागिर्द की तरह पूरे ग्यारह साल हुक्का जरूर भरा और आज भी सीखने की कोशिश जारी है । जुनून इतना बढ़ा कि प्रिंसिपल का पद छोड़ कर चंडीगढ़ उपसंपादक बन कर आ गया और फिर डेस्क से बोर होकर स्टाफ रिपोर्टर बन हिसार पहुंचा । खैर । स्कूल के साथ ही सटे घर के मालिक व विदेशों की धूल फांक कर आये एक साधारण किसान जीत सिंह ने जब पत्रकारिता की व्याख्या की तो थोड़ी हैरानी हुई । उसने कहा कि न्यूज का मतलब ? नाॅर्थ , ईस्ट वेस्ट , साउथ । यानी चारों दिशाओं में सही नज़र रखकर खबर देना । खबरदार करना । अरे ,,,इतनी उम्मीद है पत्रकार से ? सब सही , सब सच दिखाना या देना ? इसीलिए लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ माना और कहा जाता है । शब्द में जो ब्रह्म की शक्ति है वह शायद मीडिया के लिए ज्यादा है । रोज़ हम पत्रकार शब्दबेधी बाण चलाते हैं और पिछले चार दशक से मैं भी कलम के उन वीरों में शामिल हूं । क्या से क्या हो गया मीडिया ? कहां से कहां तक का सफर तय किया मीडिया ने ? जो चहुंओर के समाचार देता था वह चार अतिरिक्त पन्नों यानी लोकल न्यूज में ही सिमट कर रह गया ? कांगड़ा की खबर हिसार में नहीं मिलती तो हिसार की कांगड़ा में नहीं मिलती । यानी सिमट गयी पत्रकारिता । फिर काहे की सामाजिक शर्म ? प्रभाष जोशी ने यह बात लिखी थी अपनी विदाई पर कि हम पत्रकार और कुछ शायद न बिगाड़ सकें लेकिन नेताओं में सामाजिक शर्म तो ला ही देते हैं ।
मैंने पत्रकारिता पर सोशल मीडिया में दो वाक्य पढ़े-पहले छप कर अखबार बिकते थे । अब बिक कर अखबार छपते हैं । ओह । इतना बिकाऊ हो गया क्या मीडिया ? वह आज़ाद कलम पूंजीपतियों के इशारों पर नाचने लगी ? आज हर आदमी यह कहता है कि मीडिया बिकाऊ है । यह नौबत कैसे और क्यों आई ? हम यहां तक कैसे पहुंचे ? क्या हमारे गिरने की कोई सीमा है ? हमारी जिम्मेवारी कौन तय करेगा ? हम धूल फांक कर , गली, शहर , कूचे फलांग कर सच्ची रिपोर्ट लिखते हैं । फिर वह रद्दी की टोकरी में कैसे फेंक दी जाती है ? पेज थ्री फिल्म एक सच्चाई के करीब फिल्म थी । माफिया के बारे में लिखने वालों की जान ले ली जाती है । सच कहने पर आग मच जाती है । इसीलिए तो सुरजीत पातर ने कहा – ऐना सच न बोल के कल्ला रह जावें
दो चार बंदे छड्ड लै मोड्ढा देन लई !
यानी अकेला रह जावें । क्या पत्रकार अकेला चलने या रह जाने से डरता है ? शहीद भगत सिंह के पुरखों के गांव पर जब धर्मयुग में मेरा लम्बा आलेख आया तब मेरी नौकरी पर बन आई थी लेकिन मेरी मदद के लिए जंगबहादुर गोयल आगे आए जो नवांशहर में उपमंडल अधिकारी थे । आज भी खटकड़ कलां का शहीदी स्मारक और घर जैसे संभाला है उसमें मेरी छोटी सी कलम का योगदान है । इस आलेख के बाद ही स्मारक और घर की ओर सरकार का ध्यान गया ।
इसी तरह एक टीवी स्टोरी में सच बोलने वाले पत्रकार की छुट्टी और झूठ लिखने वाले को भव्य सम्मेलन में पुरस्कार । इसी बात की ओर संकेत कि हम झूठ का मायावी संसार रच रहे हैं और सच से कोसों दूर जा रहे हैं । ये चुनाव सर्वेक्षण भी किसी के इशारे पर जनता को गुमराह करने वाले साबित हो रहे हैं । आखिर हम अपनी असली सूरत कब पहचानेंगे ?
आइना मुझसे मेरी पहली सी सूरत मांगे । मेरे अपने मेरे होने की निशानी मांगें ।
बहुत कुछ कहने को है । कलम की ताकत बेकार न जाने दें । पहचानिए अपनी शब्दबेधी शक्ति । मारक शक्ति । बदल देने की शक्ति । इधर हरियाणा के चुनाव में जब एक टिक टाॅक गर्ल के रूप में चर्चित प्रत्याशी के पक्ष में वरिष्ठ नेता निकले मैदान में तब मैंने सवाल किया कि आखिर ऐसी प्रत्याशी के लिए वोट मांगने निकलोगे तो फिर आपके बारे में जनता क्या सोचेगी ? कुछ तो लिहाज कीजिए । और सचमुच मेरे संपादकीय के बाद वे वट्स अप पर साॅरी लिख गये तो मुझे संतोष हुआ कि अभी सच कहने की आग मुझमें बची है और बस यही आग जरूरी है । दुष्यंत कुमार के शब्दों में :
मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही
हो कहीं भी आग लेकिन आग जलनी चाहिए ।

(पूर्व उपाध्यक्ष, हरियाणा ग्रंथ अकादमी )

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