सुप्रीम कोर्ट ने कह दिया, अब आगे क्या होगा ?

किसान आंदोलन खत्म होने के कोई आसार अभी नहीं दिख रहे हैं। सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी के बाद जिस प्रकार से किसान नेताओं ने अपने तेवर तल्ख किए और कमिटी के सदस्यों को लेकर ही सवाल उठा रहे हैं, वैसे में, कोई समाधान नहीं दिख रहा है। आज तक की जो जानकारी है, उसके अनुसार 27 किसानों की मृत्यु हो चुकी है जिनमे तीन संतों ने किसानों की समस्याओं से आजीज आकर आत्महत्या कर चुके हैं । उन्होंने अपने आत्मह्त्या से पहले जो पत्र लिखा वह किसी का दिल दहलाने के लिए काफी है । क्या इसकी सच्ची रिपोर्टिंग हुई , उसके पीछे छिपे किसानों के दर्द को महसूस किया गया ? क्या जिनके कारण इतनी बड़ी समस्या जन समूह की हो गई है उस पक्ष को खंगाला गया , सरकार से प्रश्न पूछे गए ? गांधी जी को भी जन जागरण के लिए और सरकार को सही सूचना देने के लिए साउथ अफ्रीका में भी अखबार निकालना पड़ा था और भारत आकर भी अग्रेजों की गुलामी से देश को मुक्त कराने के लिए अखबार का भी सहारा लिया था। यदि उस काल का मीडिया भी वैसा ही करता जो आज की मीडिया द्वारा किया जा रहा है तो क्या हम अंग्रेजों की गुलामी से मुक्त हो पाते ? तब भी क्या हम ऐसा कहते की जो हो रहा है वह ठीक है । गुलाम होना हमारे भाग्य में है इसलिए हमे यही जीवन अच्छा लगता है – हमें गुलाम ही रहने दे ।

यह ठीक है कि सदैव एक ही लीक पर चला जाय, तो उस रास्ते पर गड्ढे पड़ जाते हं।ै इसलिए उसे बदलना तो पड़ता ही है। इसलिए कहते हैं – परिवर्तन विकास की निशानी है । अब उदाहरण अपने देश का ही लेकर हम चलें तो आजादी से पहले अंग्रेजों ने और उससे पहले मुगलों ने जो नरसंहार किया हमें लूटा उस काल में हम कहां पहुंच गए । मुगल शासक तो जब आए थे, उनका उद्देश्य ही लूट पाट करना ही था , लेकिन वह भारत के उस अकूत संपदा को लूटकर पूरी तरह नहीं ले जा सके । क्योंकि जहां से जिस देश से वे लूट के इरादे से आए थे वहां वापस लौटना उनके लिए संभव नहीं हो सकता था । कितने हाथी, घोड़े, खच्चर , ऊंट पर लादकर हीरे जवाहरात ले जा सकते थे, अतः उन्हें यहां का होकर ही रहना पड़ा। सैकड़ों वर्षों तक तानाशाही शासन करने के बाद भी इसी भारत भूमि में रहना स्वीकार कर लिया और तथाकथित भारतीय होकर रह गए। लेकिन, अंग्रेजो ने तो हमे गुलाम भी बनाया , हमारे ऊपर अत्याचार भी किया और जी भर कर अकूत संपदा लूटकर, निचोड़कर चले गए।

और फिर हमने हजारों नहीं लाखों कुर्बानियों को देकर उन्हें मजबूर कर दिया कि वह भारत को आजाद करे। सुभाष चन्द्र बोस वाली आजाद हिन्द फौज और बापू की अहिंसावादी टीम ने अंग्रेजों को भारत छोड़ने पर मजबूर किया । तो क्या उस काल में भी हमारा मीडिया इसी तरह ठकुरसुहाती बात करतीं थीं कि हमें गुलामी ही अच्छी लगती है । कभी ऐसा नहीं हुआ कि सभी मीडिया घरानों ने पत्रकारों ने विदेशी आक्रांताओं का डटकर विरोध न किया हो और उसी का परिणाम है कि आज हमारा देश स्वतंत्र हैं और हम भारतीय संवैधानिक दायरे में जीने के लिए आजाद हैं । क्या गणेश शंकर विद्यार्थी यदि घुटने टेक देते तो उनकी शहादत होती ? वह एक श्रेष्ठ कोटि के पत्रकार थे । क्या कोई बता सकता है कि आज फिर देश का कोई भी पत्रकार गणेश शंकर विद्यार्थी बनने के लिए तैयार है ?

आज तक सरकार और किसानों के बीच आठ बार मीटिंग हो चुकी है, लेकिन वही ढाक के तीन पात । अब अगली बैठक 15 जनवरी को होगी । वैसे विश्वास बहुत बड़ी बात होती , लेकिन इस बात को यदि सकारात्मक सोच से देखे तो हो सकता है सरकार के प्रतिनिधि कोई रास्ता निकाल ले और समस्या का समाधान हो जाए और एक लंबे अरसे से जिद पर डटे दोनों पक्ष खुशी खुशी अपने परिवार के पास सही सलामत पहुंच जाए । लेकिन हां मुख्य धारा से जुड़े सभी सूचना माध्यम को एक होकर दोनों पक्षों को एक जुट करके देश की अशांत स्थिति को शांत करना पड़ेगा । अन्यथा सरकार द्वारा जन हित के लिए बनाई गई सारी योजना धरी की धरी रह जाएगी ।