बेरोजगारी की मार… कब आएगी बिहार में बहार

समस्याएं बहुत हैं, लेकिन उसका निदान भी राजनीतिज्ञों के हाथ में ही होता है। यदि राजनीति के अनुभवी नीतीश कुमार को तेजस्वी यादव जैसे युवाओं का साथ मिल जाएं और जिस प्रतिबद्धता से अभी दोनों बिहार के विकास की योजना बना रहे हैं, यदि उसे धरातल पर उतार दिया जाए तो वह दिन दूर नहीं जब बिहार भी देश के अन्य विकसित राज्यों की तरह आगे आ सकेगा। बिहार ही वह राज्य है जो बौद्धिक रूप से सक्षम है, जहां प्रचुर मात्रा में पानी है। भूमि की कोई कमी है नहीं और मैनपावर तो बिहार पूरे देश को देता ही है, इसलिए अब उसे भुनाने की जरूरत है।

निशिकांत ठाकुर

बिहार के युवाओं की बेरोजगारी से बदहाली यह सोचने के लिए मजबूर करती है कि आखिर अंग्रेजों की गुलामी से भारत के सभी राज्य तो एक साथ ही आजाद हुए थे, लेकिन ऐसा क्या हो गया कि देश के अन्य राज्य विकसित होते गए, लेकिन बिहार का विकास वह रफ्तार नहीं पकड़ सका और आज भी विकास की दर में अपने चौबीसवें स्थान पर ही खड़ा है। प्रश्न यह उठता है कि आखिर ऐसा क्यों? ऐसे कई सवाल हैं, जो आज तक अनसुलझे हैं और उन्हें सुलझाने के लिए जो आत्मबल चाहिए, वहां के राजनीतिज्ञों में उसकी घोर कमी है। ये अपनी कुर्सी पाने से पहले जनता को गफलत में रखते हैं और सत्तासीन हो जाने के बाद उनका दुख जानने, उनकी उम्मीदों को पूरा करने, अपने वादे पर अमल करने की बातें जानबूझकर भूल जाते रहे हैं। इसीलिए जब वहां के युवा बेरोजगारी से आजिज आकर बिहार से पलायन करते हैं और अन्य राज्यों, विशेषकर बड़े शहरों में जाते हैं, तो वही युवा बिहार की दुर्दशा के लिए विषवमन करते हैं। स्वाभाविक है, दूर तक गलत संदेश जाता है और बिहार की छवि खराब होती है। परिणाम यह होता है कि बाहर से आकर कोई उद्योगपति बिहार में उद्योग नहीं लगाता। सरकारी लापरवाही से स्थानीय सारे उद्योग-धंधे बंद हो गए और युवा दूसरे राज्यों में रोटी के चक्कर में अपमान का घूंट पीते रहे।

यह एक उदाहरण है कि “1945-1947 में बिहार में 33 बड़ी-बड़ी चीनी मिलें थीं, आज 10 मिलें हैं। यहां की जमीन गन्ने की फसल के लिए सबसे उपयुक्त है, लेकिन हम गन्ना नहीं उगा सकते, क्योंकि मिलें बंद हैं। रैयाम दरभंगा, लोहट मधुबनी, मोतीपुर मुजफ्फरपुर, गरौल वैशाली, बनमनखी पूर्णिया की पांच चीनी मिलें बंद है बनमनखी चीनी मिल की संपत्ति को कबाड़ में बेचा जा रहा है। 118 एकड़ में फैले इस चीनी मिल की दुर्दशा पर कोई कुछ बोलने के लिए तैयार नहीं है। सकरी तथा समस्तीपुर वाले मिल को सरकार ने बंद कर दूसरा उद्योग लगाने के लिए दे दिया है, लेकिन क्या वे उद्योग लगाए जा सकेंगे? लोहट मिल बंदी के खिलाफ पुर्जों को कबाड़ में बेचने के विरोध में मधुबनी जिलाधीश कार्यालय के बाहर धरना प्रदर्शन जारी है । यही हाल जूट मिलों का है। भारत में जूट का 40 प्रतिशत तक उत्पादन करने वाले बिहार के तीनों मिल बंदी के कगार पर हैं, क्योंकि जूट की खेती अब यहां के किसान नहीं करते हैं। रही बात कागज उद्योग की, तो सैकड़ों एकड़ जमीन में फैले अशोक पेपर मिल हायाघाट आज बंद है और विषैले सांपों का जंगल बन गया है। बिहार के सहरसा-मधेपुरा हाईवे पर सहरसा से पांच किलामीटर पूरब बैजनाथपुर कागज मिल को पचास एकड़ में बनाने का कार्य शुरू किया गया था, लेकिन बनने के बाद आज उसकी संपत्ति कौड़ियों के भाव बेची जा रही है। इस उद्योग के निर्माण का कार्य सत्तर के दशक में शुरू किया गया था, उसमें रोजगार की उम्मीद लगाए आज तक सिर पीटते जीवन गुजार रहे हैं। अभी पिछले दिनों जिलाधिकारी ने इसका दौरा किया और कहा है कि इस जमीन का उपयोग कृषि उपयोग में लाए जाने वाली सामग्री बनाने के लिए किया जाएगा।

12 अक्टूबर को बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने एक चुनावी रैली में कहा था, ‘ज़्यादा बड़ा उद्योग वहां लगता है, जो समुद्र के किनारे के राज्य होते हैं। फिर भी हमने बहुत कोशिश की, लेकिन सफल नहीं हो सके।’ मुख्यमंत्री की बातें पढ़े-लिखे युवाओं को हतोत्साहित ही कर रहे हैं, लेकिन पिछले विधानसभा चुनाव के दौरान वादा तो यही था कि यदि उनकी सरकार बनी तो लाखों लोगों को रोजगार देने के लिए सरकार कृत संकल्पित होगी। लेकिन हां, यदि भाजपा के नजरिये से देखें तो यह चुनावी जुमला कहलाता है, लेकिन बिहार के उपमुख्यमंत्री तेजस्वी यादव युवा हैं। उनकी बातों पर तो विश्वास अभी तक युवाओं का है और उपमुख्यमंत्री के रूप में जिस आक्रामक तरीके से तेजस्वी यादव काम कर रहे हैं, उसका रिजल्ट देखने के लिए युवाओं को कुछ इंतजार करना ही होगा। सरकार अभी बनी है, इसलिए इस नई सरकार को कुछ समय देना पड़ेगा। सबसे बड़ा सवाल यह कि जिन मिलों से लाखों लोग अपने परिवार की जीविका चला रहे थे, उनका क्या होगा जो अब बंद हो चुकी हैं। चीनी और कागज की जो मिलें बंद हो गई हैं, क्या उन्हें फिर से चालू करने का प्रयास वर्तमान सरकार करेगी? यदि उन्हें फिर से नियमित नहीं किया जाएगा तो फिर किस योजना के तहत बिहार की वर्तमान सरकार रोजगार मुहैया करा सकेगी? यदि सरकार की सोच सच में अपने राज्य के युवाओं को रोजगार देने की है तो सबसे पहले उसे उन सभी चीनी मिलों, कागज मिलों को चालू कराना होगा, क्योंकि जहां घर-घर में सभी बेरोजगार हो, वहां कोई किस प्रकार अपने परिवार का भरण-पोषण कर सकेगा।

बिहार में पंद्रह वर्ष लालू प्रसाद यादव ने यदि विकास पर अपना ध्यान केंद्रित किया होता और उसके बाद के पंद्रह वर्षों में वर्तमान मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने बिहार के विकास की ओर लगाया होता तो जो स्थिति आज वहां हो गई है, तो ऐसी स्थिति देखने को नहीं मिलती। वैसे, यह तो राजनीति में सत्ता पाने के लिए हर दल दूसरे दल को नीचा दिखाने का, भारत ही नहीं विश्व में प्रयास होता ही रहता है, लेकिन बिहार के राजनीतिज्ञ इस मामले में बिल्कुल अलग हैं। ऐसा इसलिए कहा जा सकता है, क्योंकि सरकार यदि विकास करने के लिए प्रतिबद्ध हो जाएं तो ऐसा हो ही नहीं सकता कि राष्ट्र अथवा राज्य का विकास न हो, लेकिन बिहार के राजनेता केवल अपनी स्वार्थ-सिद्धि के लिए ही कुछ करते हैं और उन्हें जनता से कोई लेना-देना नहीं होता। जनता से उनका लेना-देना केवल चुनाव के समय ही होता है, जब उनका स्वार्थ सिद्ध होना होता है। जो भी हो, बिहार में युवाओं को रोजगार मिले, वहां की सभी बंद मिलें फिर से शुरू हों,उसके हूटर बजे — इसके प्रयास होने चाहिए। ऐसा करने से लाखों युवाओं को रोजगार मिलेगा और उन्हें अपने राज्य से बाहर जाने और अपमान का घूंट पीने के लिए मजबूर नहीं होना पड़ेगा। अब मुख्यमंत्री नीतीश कुमार भी यह आरोप नहीं लगा सकते कि उन्हें राज्य और वहां के युवाओं का विकास करने से भाजपा टांग खींचती है।

बिहार का विकास पिछले वर्षों में इसलिए भी अवरुद्ध हुआ, क्योंकि देश के किसी भी उद्योगपति ने वहां अपना उद्योग लगाने में रुचि नहीं दिखाई। इसके कई कारणों में एक कारण यह भी है कि उनके मन में यह भय है कि बिहार में उनकी और उनके उद्योग की सुरक्षा की कोई गारंटी नहीं है। विपक्षियों ने प्रचारित किया है कि बिहार में जंगल राज है, वहां कानून-व्यवस्था नामक कुछ भी नहीं है, बिहार को जमकर बदनाम किया है। वैसे, नीतीश सरकार ने पिछले कुछ सालों में आमलोगों की जिंदगी की जो मूलभूत जरूरतें होती हैं, उन्हें पूरा करने के प्रयास में सड़क और बिजली को ठीक कर दिया है, लेकिन बढ़ती बेरोजगारी ने सब पर पानी फेर दिया है। यहां तक कि आमलोगों का कहना है कि बाढ़ से लोगों को छुटकारा कब मिलेगा, मवेशियों के चारे का इंतजाम कैसे होगा। उनका कहना यह भी है कि बिजली और सड़क की सुविधा हो जाने से क्या उनका पेट भर जाएगा! उनके बच्चे भूखे पेट अब नहीं सोएंगे! इसका निदान तो हुआ नहीं, फिर कैसे मान लिया जाए कि विकास हुआ है, गुंडागर्दी काम हुई है, अब उद्योगपतियों से वसूली नहीं की जाएगी? महिलाएं बिहार की शराबबंदी से खुश हैं, लेकिन उद्योग लगाने जो आएंगे, वह भी क्या इसे आत्मसात करेंगे कि यहां शराब पीना अपराध है और ऐसा करने पर उन्हें जेल की सजा नहीं होगी?


(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक हैं)