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World Environment Day : नए दौर में डिजिटल लड़ाई भी लड़नी होगी पर्यावरण के लिए

आज विश्व पर्यावरण दिवस है। सोशल मीडिया पर तमाम तरह के संदेश वायरल हो रहे हैं। जलवायु और पर्यावरण संरक्षण की बात हो रही है। डिजिटल होती दुनिया में तमाम क्रियाकलाप जमीन से अधिक कहीं ओर दिखाई देते हैं। उसमें कई दिक्कतें भी हैं। यदि इंटरनेट कनेक्टिविटी न हो तो कई मुश्किलें भी आती हैं।

बीते डेढ साल से जब पूरी दुनिया कोरोना से जूझ रही है, तो इसका हर ओर निगेटिव ही असर हुआ हो, ऐसा नहीं है। हमारे पर्यावरण पर इसका सकारात्मक असर हुआ है। कई सारे परिवर्तन हुए हैं। आसमान में बादल साफ दिखाई देने लगे। चिडियों का कलरव अधिक सुनाई देने लगे। नदियों के साफ होने की बात आई। हालांकि, कोरोना के दूसरी लहर में जब देश की पवित्र नदी गंगा में शवों के तैरने की खबरें आईं, तो चिंता जरूर हुई।

हमारे जीवनशैली में भी कई परिवर्तन हुए और सभी को स्वीकार करना पडा। वर्क फ्राॅम होम और आॅनलाइन क्लास को न चाहते हुए भी सभी ने स्वीकारा। उसी पर चल रहे हैं आज भी। जो बातें आपस में मिलकर और आमने सामने बैठकर होती थीं, वह डिजिटल की दुनिया में दखल देने लगी। तो भला पर्यावरण की बात इससे अछूता कहां रहता। महानगरों और शहरों में काम करने वालों के लिए तो डिजिटल दुनिया आसान है लेकिन जो गांवों औार सुदूरक्षेत्रों में रहते हुए उनके लिए कई तरह की समस्याएं हैं। बिजली का गुल हो जाना। इंटरनेट की स्पीड नहीं। कई बार कई घंटों तक गायब। कुछेक बार तो कई दिनों तक इंटरनेट ही नहीं रहा। ऐसे में काम का प्रभावित होना लाजिमी है।

हाल ही में खबर आई कि कोरोना महामारी के दौरान जब जलवायु कार्यक्रम ऑनलाइन होने लगे तो कई कार्यकर्ता खराब इंटरनेट की वजह से शामिल नहीं हो पा रहे हैं। खराब इंटरनेट जलवायु कार्यकर्ताओं के लिए समस्या पैदा कर रहा है। इसका असर इस क्षेत्र में काम करने वालों पर अधिक है। बता दें कि कुछ दिन पहले ही जाम्बिया की जलवायु प्रचारक प्रीशियस कलोम्बवाना अमेरिका के पूर्व उपराष्ट्रपति अल गोर के साथ ऑनलाइन ट्रेनिंग कार्यक्रम में शामिल होने को लेकर उत्साहित थीं। दिक्कत ये रही कि जब उनकी बोलने की बारी आई तो खराब इंटरनेट के कारण उनकी आवाज और लोगों तक नहीं पहुंच पाई। कोरोना महामारी के कारण आयोजन वर्चुअल तरीके से हो रहे हैं। इनमें यूएन की जलवायु वार्ता भी शामिल है, जो सोमवार, 31 मई से शुरू हंुई थी।

आमतौर पर बात की जाए तो जलवायु कार्यकर्ता और विशेषज्ञों के लिए इस तरह के आयोजनों में डिजिटल रूप से शामि होना आसान हो गया है, लेकिन दुनिया भर में कई ऐसे कार्यकर्ता भी हैं जो कहते हैं विश्वसनीय कनेक्टिविटी के बिना उनकी आवाज कहीं गायब हो जाती है। अब इस ओर भी वैश्विक संगठनों का ध्यान गया है। इसकी चर्चा यूएन में भी हुई। कहा गया कि पर्यावरण के क्षेत्र में काम करने वालों को अब डिजिटली भी इम्पावर करना होगा।

05 जून विश्व पर्यावरण दिवस पर विशेष

इस संदर्भ में 27 साल की कलोम्बवाना ने अपने अनुभव साझा किए। इनका अमेरिका के पूर्व उपराष्ट्रपति अल गोर के साथ कार्यक्रम निराशाजनक अनुभव था। उन्होंने बताया कि जब आप कनेक्ट करने की कोशिश करते हैं और बोलना चाहते हैं, और ऐसा नहीं हो पाता है तो यह बहुत तनावपूर्ण होता है। बता दें कि कलोम्बवाना, सामुदायिक विकास के लिए नागरिक नेटवर्क जाम्बिया के लिए काम करती हैं, नेटवर्क जलवायु कार्रवाई के लिए एक गैर-लाभकारी अभियान चलाता है।
हालांकि, कोरोना ने उन्हें कई प्रकार की सहूलियत भी प्रदान की। मसलन, कोविड-19 से पहले जलवायु परिवर्तन पर होने वाले आयोजनों में शामिल होने के लिए भी कलोम्बवाना को काफी दिक्कतों का सामना करना पड़ता था। कठिन वीजा व्यवस्था, लंबी यात्राएं और महंगे हवाई किराए। कई बार ऐसा संभव नहीं हो पाता थ और वो ऐसी बैठक में शामिल नहीं हो पाईं। मगर यह आयोजन डिजिटल रूप से होने लगा तो इनके लिए और इनके जैसे दूसरे लोगों के लिए कई सुविधा लेकर आया। डिजिटल आयोजन में सिर्फ लॉग इन करने की जरूरत होती है. लेकिन इस बदलाव ने डिजिटल विभाजन को भी उजागर किया है। खासकर गरीब क्षेत्रों और विकासशील देशों में रहने वाले जलवायु कार्यकर्ता अक्सर सबसे खराब कनेक्टिविटी से जूझते हैं।

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