निशि भाट
काशी घाट पर आयोजित काशी तमिल संगमम 2.0 गंगा और गोदावरी का संगम है, यह कहा जाए तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी। जिस प्रकार से बीते साल से दो प्राचीन संस्कृतियों और समाजों का एक-दूसरे से समागम हो रहा है, वह अपने आप में अद्भुत है। जब गंगा के तट पर एक-दूसरे का अभिवादन करते हुए लोग – वणक्कम काशी कहते हैं, तो वह अलग ही एहसास है।
दरअसल, यह भारत की प्राचीन सभ्यताओं, संस्कृतियों और परंपराओं के संगम का भी उत्सव है। विविधताओं का यह संगम राष्ट्रवाद के अमृत को उत्पन्न कर रहा है। जोकि निश्चित रूप से भारत के लिए नई उर्जा का संचार सुनिश्चित करेगा। काशी तमिल संगम की यह परंपरा दक्षिण से उत्तर भारत की प्राचीन संस्कृति को जोड़ने वाले सेतु का काम करेगी।असल में, जब भी तमिलनाडु से यात्रियों का जत्था बनारस रेलवे स्टेशन पर उतरता है, दक्षिण भारतीय मेहमान वणक्कम काशी कहकर अभिवादन करते हैं। प्रत्युत्तर में उनके स्वागत के लिए तैयार और आतिथ्य धर्म का पालन करने वाले लोग हर हर महादेव के उद्घोष से सभी का अभिनंदन करते हैं। ढोल.नगाड़े की थाप के बीच स्वस्तिवाचन और फूलों की वर्षा से हर यात्री स्वयं को विशेष मानता है।दरअसल, कांचीपुरम , जिसे केवल कांची भी कहा जाता है, भारत के तमिल नाडु राज्य के कांचीपुरम ज़िले में स्थित एक नगर है। कांची हिन्दू धर्म का एक अत्यंत महत्वपूर्ण तीर्थ है और यहाँ बहुत प्राचीन मंदिर हैं। यह हिन्दू धार्मिक शिक्षा का भी शताब्दियों से केन्द्र रहा है। कांची पलार नदी के किनारे स्थित है। यह अपनी रेशमी साडि़यों के लिए भी प्रसिद्ध है।
मान्यता है कि इस क्षेत्र में प्राचीन काल में ब्रह्माजी ने देवी के दर्शन के लिये तप किया था। ऐसा माना जाता है कि जो भी यहां जाता है, उसे आंतरिक आनंद के साथ-साथ मोक्ष की प्राप्ति भी होती है। मोक्षदायिनी सप्त पुरियों अयोध्या, मथुरा, द्वारका, माया(हरिद्वार), काशी और अवन्तिका (उज्जैन) में कांचीपुरम की भी गणना है। कांची हरिहरात्मक पुरी है। ग्रंथों में कहा गया है कि कांची के दो भाग शिवकांची और विष्णुकांची हैं। पुराणों मे कहा गया है किः “पुष्पेशु जाति, पुरुषेशु विष्णु, नारीशु रम्भा, नगरेशु कांची।“ यहां भगवान शिव के पांच रूपों में से एक को समर्पित एकाम्बरनाथ मन्दिर, कामाक्षी अम्मन मन्दिर, कुमारकोट्टम, कच्छपेश्वर मन्दिर, कैलाशनाथ मन्दिर हैं।
यूं तो सदियों से तमिलनाडु के लोग बनारस और काशी की यात्रा करते रहे हैं। बनारस आने वाले तमिल लोगों के लिए शिव और गंगा का स्थायी आकर्षण धर्म, कर्नाटक संगीत और तमिल-संस्कृत इतिहास से कहीं अधिक गहरा है। काशी-तमिल संघ के सचिव वी.एस. सुब्रमण्यम मणि कांची शंकराचार्य मठ के प्रभारी भी हैं, उन्होंने कहा कि भगवान विश्वेश्वर, मां गंगा और देवी विशालाक्षी हजारों सालों से तमिलों को काशी खींच कर लाती रही हैं। आदि शंकराचार्य के काशी आने और अद्वैत उपदेश देने के बाद से बहुत सारे तमिल संतों का काशी की तरफ झुकाव हुआ जो आज भी जारी है।
काशी और उसके निवासियों का तेलुगु संस्कृति और लोगों के साथ गहरे संबंध हैं। काशी कई पीढ़ियों से इस संस्कृति का स्वागत करती आ रही है और यह संबंध उतना ही प्राचीन है जिनता कि काशी शहर। काशी आने वाले तीर्थ यात्रियों में आंध्र प्रदेश और तेलंगाना के लोगों की बड़ी संख्या है। तेलुगु राज्यों ने काशी को बड़ी संख्या में महान संत, आचार्य और ऋषि मुनि दिए हैं। जब काशी निवासी और तीर्थयात्री बाबा विश्वनाथ के दर्शन के लिए जाते हैं तो वे तेलंगस्वामी के आश्रम में आश्रम में उनका आर्शीवाद लेने भी जाते हैं। तेलंगस्वामी का जन्म विजयनगरम में हुआ था, लेकिन स्वामी विवेकानंद के गुरू रामकृष्ण परमहंस ने उन्हें काशी का जीवितशिव कहा था। इसके अलावा जिद्दू कृष्णमूर्ति और अन्य महान संतों को आज भी काशी में श्रद्धा के साथ याद किया जाता है। जैसे काशी ने तेलुगु लोगों को आत्मसात किया है वैसे ही तेलुगु लोगों ने भी काशी को अपनी आत्मा के साथ जोड़कर रखा है। पवित्र तीर्थ वेमुला- वाड़ा को दक्षिण का काशी कहकर बुलाया जाता है। आंध्र प्रदेश और तेलंगाना के मंदिरनों में जो काला सूत्र बांधा जाता है उसे आज भी काशी दारम कहते हैं। इसी तरह श्रीनाथ महाकवि का काशीखंडम ग्रंथ हो या फिर एनुगुल वीरस्वामय्या का काशी यात्रा चरित्र, काशी और काशी की महिमा तेलुगे भाषा और तेलुगु साहित्य में भी गहराई से रचि बसी है। अगर कोई बाहरी व्यक्ति ये सब देखे तो उसके लिए विश्वास करना भी कठिन होगा कि कोई शहर इतना दूर होकर भी सांस्कृतिक, धार्मिक और साहित्यिक पहलूओं से इतना करीब कैसे हो सकता है। सही मायने में यही भारत की विरासत है जिसे एक भारत श्रेष्ठ भारत के विश्वास को सदियों से जीवंत रखा है।
काशी मुक्ति और मोक्ष् की नगरी है। पहले तेलुगु निवासी काशी पहुंचने के लिए हजारों किलोमीटर पैदल चलते थे, आधुनिक समय में परिस्थितयां तेजी से बदली हैं। एक ओर बाबा विश्वनाथ धाम का दिव्य वैभव है तो दूसरी ओर काशी गंगा के घाटों की भव्यता भी है। आंध्रप्रदेश के जो लोग पहले काशी आ चुके हैं वह काशी में हो रहे बदलाव को महसूस कर पा रहे हैं। एक समय था जब एअरपोर्ट से दशाधमेध घाट तक पहुंचने में घंटो लग जाया करते थे किंतु आज हाईवे बनने से लोगों का बहुत समय बच रहा है। काशी के मंदिरों, सांस्कृतिक स्थलों और घाटों का कायाकल्प हो चुका है। गंगा जी में सीएनजी नावें भी चलने लगी हैं।
वह दिन दूर नहीं , जबकि बनारस आने जाने वालों के लिए रोपवे की सुविधा भी शुरू हो जाएगी। काशी के लोगों अतिथि देवा भवः पर पूरा विश्वास करते हैं और इसका अनुपालन भी करते हैं, बाबा का आर्शीवाद, काल भैरव और मां अन्नपूर्णा के दर्शन अपने आप में अद्भुत है। गंगा जी के पवित्र जल में डुबकी आपकी आत्मा को तृप्त कर देगी, लस्सी, ठंडाई, चाट, लिट्टी चोखा और बनारसी पान जैसे खानपान यात्रा को यादगार बना देंगे। वाराणसी के लकड़ी के खिलौनी एटिकोपाका के खिलौने जैसे हैं। हमारे पूर्वजों ने भारत की चेतना के विभिन्न स्वरूपों में स्थापित किया है, जो एक साथ मिलकर भारत माता को परिपूर्ण बनाते हैं। काशी में बाबा विश्वनाथ और विशालाक्षी शक्तिपीठध् आंध्र में मल्लिकर्जुन, तेलंगाना में भगवान राज राजेश्वर, आंध्र में मां भ्रामराम्बा जैसे पवित्र स्थान भारत और इसकी सांस्कृतिक पहचान के महत्वपूर्ण केंद्र हैं। भारत की विभिन्नता को एकता में देखकर ही समग्र भारत के देखा जा सकता है।