नई दिल्ली। जब पहली बार कश्मीर फाइल्स देख कर लौटा था, मीडिया रिव्यू और सोशल मीडिया पर चल रहे फिल्म से जुड़े पोस्ट और वीडियो का मुझपर प्रभाव था। फिल्म से अपेक्षा बढ़ गई थी और वहां से निराश होकर लौटा था क्योंकि कश्मीरी हिन्दू परिवारों ने जो दर्द सहा, उसका एक छोटा हिस्सा भी इस फिल्म में नहीं समा पाया था। फिल्म में दर्द के छोटे छोटे टुकड़ों को यहां वहां से इकट्ठा करके मानों फिल्म निर्माता कोई प्रदर्शनी तैयार कर रहा हो। फिल्म को लेकर इसी समझ के साथ घर आया था।
दूसरी बार आज फिल्म देखी तो मानों फिल्म की पूरी कहानी सिर के बल खड़ी थी। पहली बार शुरू से अंत तक देख गया तो फिल्म से ढेर सारी शिकायतें थीं। इस बार अंत से शुरू तक फिल्म को रिवाइंड कर गया। इस पूरी कहानी को इसी तरह समझा जा सकता है, मतलब यह कहानी मुसलमानों के खिलाफ नहीं है। ना ही यह कहानी कश्मीरी जेनोसाइड की है। वास्तव में विवेक अग्निहोत्री बदलते कश्मीर की कहानी लिख रहे हैं। जहां का युवा वामपंथियों और आतंक के गठजोड़ को समझ चुका है। वही आतंक जिसका कोई मजहब नहीं होता। 370 हटने के बाद कश्मीर की फिजां और जेएनयू-जाधवपुर जैसे विश्वविद्यालयों की हवा बदल रही है। इस बात को अग्निहोत्री ने समझाने की कोशिश की है।
यह फिल्म कम्युनिस्टों को आम आदमी के सामने एक्सपोज करती है। उनके प्रोपगेन्डा को विवेक ने बहुत बारिकी से समझा है। जब उन पर वामपंथी जमात हमला कर रहा था, उस दौरान लगता है कि उन्होंने हमले को स्टडी मटेरिअल के तौर पर लिया और इनके काम काज की शैली को खूब समझा। इस फिल्म में बड़ी शिद्दत से उन्होंने नैरेटिव के उलझे हुए धागे को सुलझाया है।