नई दिल्ली। जम्मू-कश्मीर और हरियाणा में आज विधानसभा चुनाव के नतीजे आने वाले हैं। हरियाणा में 5 अक्टूबर को मतदान खत्म होने के बाद आए एग्जिट पोल्स ने नतीजों का रुख साफ कर दिया है। हालांकि एग्जिट पोल्स के अनुमान कई बार गलत साबित हुए हैं, पर उनकी दिशा शायद ही कभी गलत रही है। वे अक्सर यह बता देते हैं कि कौन आगे है और कौन पीछे। अब जम्मू-कश्मीर और हरियाणा के एग्जिट पोल्स ने भी यही इशारा दिया है। लेकिन यह फिलहाल चर्चा का विषय नहीं है क्योंकि असली नतीजे आज सुबह 10 बजे तक सामने आ जाएंगे।
इन चुनावों से इतर, इन राज्यों के चुनावों से कई अहम संदेश निकलते हैं, जिन्हें बड़े संदर्भों में समझने की जरूरत है। इन चुनावों में उठाए गए मुद्दे, पार्टियों के विरोधाभास और उनकी राजनीति इन राज्यों की आगे की दिशा तय कर सकते हैं और देश की राजनीति पर भी असर डाल सकते हैं।
हरियाणा चुनाव और महिला-दलित राजनीति
हरियाणा चुनाव में इस बार महिला और दलित राजनीति का मुद्दा उभरकर सामने आया है। यह राज्य महिलाओं और दलितों के प्रति गहरे पूर्वाग्रह वाला माना जाता है। लेकिन इस बार चुनाव में इन समूहों की चर्चा ने उनके महत्व को नए सिरे से प्रतिपादित किया है। हरियाणा की सभी 90 सीटों पर 1,031 उम्मीदवार चुनाव में उतरे, जिनमें सिर्फ 101 महिलाएं थीं। यानी महिलाओं की हिस्सेदारी महज 10% है। हालांकि भाजपा और कांग्रेस दोनों ने महिला आरक्षण कानून का समर्थन किया है, फिर भी महिलाओं को टिकट देने में उनकी भूमिका कमजोर रही है।
इसके बावजूद ओलंपियन पहलवान विनेश फोगाट का चुनाव में लगातार जिक्र हुआ। उनके परिवार से ही हरियाणा में महिला कुश्ती की शुरुआत हुई थी। विनेश फोगाट ने राजनीति में भी महिलाओं के लिए एक नई राह खोली है और उम्मीद है कि इससे अधिक महिलाएं राजनीति में आएंगी।
दलित राजनीति का उभार
हरियाणा चुनाव का एक और संदेश दलित समुदाय के सत्ता में हिस्सेदारी की बढ़ती आकांक्षा का है। अब तक दलित समाज को सिर्फ वोट बैंक माना जाता था, लेकिन इस बार मुख्यमंत्री पद के लिए दलित उम्मीदवार कुमारी सैलजा का नाम उभरकर सामने आया। भाजपा ने इसे चुनावी मुद्दा बनाकर कांग्रेस पर निशाना साधा, लेकिन इसका फायदा कांग्रेस को ही मिला। इससे दलित समाज को सत्ता में भागीदारी देने का महत्व भी बढ़ा।
जम्मू-कश्मीर का चुनाव और कट्टरपंथी ताकतों की भागीदारी
जम्मू-कश्मीर में लोकसभा चुनाव से ही यह प्रवृत्ति दिख रही है कि कट्टरपंथी ताकतें लोकतांत्रिक प्रक्रिया में शामिल हो रही हैं। पहले ये ताकतें चुनाव बहिष्कार की बात करती थीं, जिससे मतदान कम होता था। लेकिन इस बार उन्होंने भी चुनावी प्रक्रिया में भाग लिया है। इंजीनियर राशिद की आवामी इत्तेहाद पार्टी ने इस बार कई जगह चुनाव लड़ा, और प्रतिबंधित जमात-ए-इस्लामी ने निर्दलीय उम्मीदवारों का समर्थन किया। यदि ये कट्टरपंथी ताकतें हिंसा की बजाय लोकतंत्र का रास्ता अपनाने लगती हैं, तो इसका जम्मू-कश्मीर पर गहरा असर हो सकता है।
जम्मू-कश्मीर का चुनाव आमतौर पर सीधा मुकाबला नहीं होता, लेकिन इस बार कांग्रेस और नेशनल कॉन्फ्रेंस के गठबंधन के बावजूद मुकाबला बहुकोणीय है। दूसरी तरफ, हरियाणा का चुनाव इस बार आमने-सामने का है, जहां भाजपा और कांग्रेस के बीच सीधी टक्कर है।
इन चुनावों के नतीजों से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा नियुक्त नेताओं की राजनीतिक स्थिति भी परखी जाएगी। अगर इनमें कोई असफल होता है, तो यह भाजपा की राजनीति में एक नए युग की शुरुआत कर सकता है।