सीता से अलग नहीं देख सकते हैं श्रीराम को

जानकी नवमी 16 मई, 2024 पर विशेष

कुमकुम झा

जब कोई सूर्य के बारे में सोचता है, तो वह उसकी चमक, उसकी चमक के बारे में सोचता है। जिस तरह चमक और सूर्य को कभी अलग नहीं किया जा सकता, उसी तरह सीता और भगवान राम को भी कभी अलग नहीं देखा जा सकता, और अलग-अलग नहीं देखा जाना चाहिए। पूरी दुनिया में सीता के नाम से प्रसिद्ध जगत जननी को मिथिला के लोग जानकी नाम से अधिक बुलाते हैं। स्मरण करते हैं। पिता जनक, तो पुत्री जानकी। जानकी नवमी का दिन राम नवमी की तरह ही शुभ माना जाता है। धार्मिक मान्यता है कि इस दिन जो राम-सीता का विधि विधान से पूजन करता है, उसे 16 महान दानों का फल, पृथ्वी दान का फल तथा समस्त तीर्थों के दर्शन का फल मिल जाता है। वैवाहिक जीवन में सुख-समृद्धि पाने के लिए सीता नवमी का श्रेष्ठ माना गया है। जानकी नवमी के दिन माता सीता को श्रृंगार की सभी सामग्री अर्पित की जाती हैं। साथ ही इस दिन सुहागिनें व्रत रखकर अखंड सौभाग्य की कामना करती हैं।

वास्तव में साहित्य समाज का दर्पण ही नहीं होता, बल्कि प्रेमचंद के शब्दों में यह समाज को राह दिखाने वाली मशाल भी होता है। लेकिन यह बात न केवल प्रगतिशील मूल्यों के लिए सच है, बल्कि प्रतिगामी मूल्यों के लिए भी उतनी ही सच है। सीता की कथा हमारे देश में सर्वाधिक सुनी-सुनाई और मंचित की जाने वाली कथाओं में से एक है। भारतीय जनमानस को रूपाकार देने और स्त्री की एक ‘आदर्श’ छवि गढ़ने में इस कथा की महत्वपूर्ण भूमिका रही है।
सीता एक ओर भारतीय आदर्श पत्नी है, जिनमें पति-परायणता, त्याग, सेवा, शील और सौजन्य है, तो दूसरी ओर वे युग-जीवन की मर्यादा के अनुरूप श्रमसाध्य जीवन-यापन में गौरव का अनुभव करने वाली नारी हैं, यथा- ‘औरों के हाथों यहाँ नहीं चलती हूँ। अपने पैरों पर खड़ी आप चलती हूँ॥’  लोकापवाद के कारण सीता निर्वासित होती है, परन्तु वह अपना उदार हृदय व सहिष्णु चरित्र का परित्याग नहीं करती और न ही पति को दोष देती है, बल्कि इसे लोकोत्तर त्याग कहकर शिरोधार्य करती है। पत्नी व पति भारतीय संस्कृति में एक-दूसरे के पूरक हैं । आदर्श पत्नी का चरित्र हमें जगदम्बा जानकी के चरित्र में तब तक दूष्टिगोचर होता है, जब श्रीराम द्वारा वन में साथ न चलने की प्रेरणा करने पर अपना अंतिम निर्णय इन शब्दों में कह देती है- ‘प्राणनाथ तुम्ह बिनु जग माहीं। मो कहुँ सुखद कतहुँ कछु नाहीं। जिय बिन देह नदी बिनु बारी। तैसिअ नाथ पुरुष बिनु नारी॥’
विषादग्रस्त होकर भी पत्नी अथवा पति को अपने जीवन-साथी का ध्यान रखना भारतीय सांस्कृतिक आदर्श है। सीता को अशोकवाटिका में रखकर रावण ने साम, दाम, दण्ड, भेद आदि उपायों से पथ-विचलित करने का प्रयास किया, परन्तु सीता मे अपने पारिवारिक आदर्श का परिचय देते हुए केवल श्रीराम का ही ध्यान किया, यथा- ‘तृन धरि ओट कहति वैदेही, सुमिरि अवधपति परम सनेही । सुनु दस मुख खद्योत प्रकासा, कबहुँ कि नलिनी करइ विकासा॥’
वाल्मिकी रामायण के अनुसार एक बार मिथिला में भयंकर सूखा पड़ा था जिस वजह से राजा जनक बेहद परेशान हो गए थे।  इस समस्या से छुटकारा पाने के लिए उन्हें एक ऋषि ने यज्ञ करने और  खुद धरती पर हल चलाने का सुझाव दिया। राजा जनक ने अपनी प्रजा के लिए यज्ञ करवाया और फिर धरती पर हल चलाने लगे। तभी उनका हल धरती के अंदर किसी वस्तु से टकराया। मिट्टी हटाने पर उन्हें वहां सोने की डलिया में मिट्टी में लिपटी एक सुंदर कन्या मिली। जैसे ही राजा जनक सीता जी को अपने हाथ से उठाया, वैसे ही तेज बारिश शुरू हो गई। राजा जनक ने उस कन्या का नाम सीता रखा और उसे अपनी पुत्री के रूप में स्वीकार किया।

भगवान राम को मर्यादा पुरषोत्तम भी कहा जाता है। वहीं, बात जब भी आदर्श पति-पत्नी के उदाहरण की आती है तो लोग आज भी श्रीराम और माता सीता का नाम ही लेते हैं। भगवान श्री राम और माता सीता के रिश्ते से जुड़ी ऐसी सीख जो हर पति-पत्नी को खुशहाल जीवन जीने के लिए अपने जीवन में उतारनी चाहिए। मां सीता एक राजकुमारी थीं। इसके बावजूद उन्होंने अपने पति श्रीराम के वनवास जाने का फैसले किया। वह 14 साल तक पति श्री राम के साथ जंगलों में रहने को तैयार हो गईं। विकट परिस्थिती में भी उन्होंने एक-दूसरे का साथ दिया। रावण द्वारा हरण के बाद भी माता सीता ने अपनी पवित्रता बनाए रखी। उन्होंने अपने पतिव्रता धर्म का अच्छे से पालन किया। एक दूसरे से दूर रहने के बावजूद राम-सीता के बीच एक दूसरे के लिए प्रेम और वैवाहिक धर्म जस का तस बना रहा।


(लेखिका साहित्यकार व शिक्षिका हैं। )