नई दिल्ली। मधुबाला ने जब ’मुगल-ए-आजम’ साइन की तब वह तलवार की ’संगदिल’, निर्देशक फली मिस्त्री की ’अरमान’ और रवैल की ’साकी’ फिल्मों में भी काम कर रही थी। साथ-साथ पी. एन. अरोरा की पार्टनरशिप में चल रही ’रेल का डिब्बा’ में भी वह काम कर रही थी। ये सारी फिल्में साधारण थीं। उनमें अभिनय करते समय भूमिका में एक-सा बनने तथा फिल्म के मूड में पहुंचने की कोई बात ही नहीं उठती थी। वह बड़ी सहजता के साथ सेट पर आती और अपना रोल निभाकर चलती बनती। ’मुगल-ए-आजम’ के बारे में भी यही हालत रही। उसकी बार-बार हंसने की आदत आसिफ को खटकने लगी। इस प्रकार चार-पांच दिन बीत जाने पर आसिफ ने उन्हें अलग बुलाकर हिदायत दी कि तुम ’मुगल-ए-आजम’ में अनारकली का अहम रोल निभाने के लिए यहां आती हो। यहां हंसना, मटकना या चुलबुलाना बिलकुल नहीं चलेगा। इस किरदार के लिए संजीदगी और खामोशी से बर्ताव करना ज़रूरी है। अगले दिन जब मधुबाला सेट पर आई तब एक अलग ही मधुबाला थी। शांति और गंभीरता से कदम बढ़ाती हुई वह आसिफ के सामने आ खड़ी हुई। उनका वह रूप देखते ही आसिफ अपने हाथ की सिगरेट की राख झाड़ते हुए और सिगरेट का कश लगाते हुए कह उठे, वाह! मधु जी!! अब तुम मेरी अनारकली लगती हो।
ऐसे बनीं मधुबाला फिल्म ’मुगल-ए-आजम’ की अनारकली
के.आसिफ ने जब पहली बार ’मुगल-ए-आजम’ बनाना तय किया तब उनकी पहली फिल्म ’फूल’ के निर्माता शिराज अली हकीम ही उसमें पूंजी लगा रहे थे।