Guest Column : भीख नहीं, जंग में मिली जीत है ‘आजादी’

अब स्थिति यह हो गई कि 1947 में मिली आजादी को भीख में मिली आजादी कही गई , लेकिन हद तो तब हो गई जब पिछले दिनों हरिद्वार और रायपुर में आयोजित धर्मसभा में जिस प्रकार खुलेआम गांधी जी और पूर्व प्रधानमंत्री डॉ मनमोहन सिंह को गालियां दी गई और नाथूराम गोडसे का प्रशस्तिगयन किया गया -- उसे क्या कहा जाएगा ? क्या ऐसे लोग जानबूझकर आसमान पर थूक रहे हैं या इस प्रकार के कार्यक्रम ही प्रायोजित होते हैं ? यह तो तभी पता चलेगा जब सच्चाई से इसकी निष्पक्ष जांच हो और धर्मसभा के नाम पर यदि ऐसा किया गया है तो फिर उसकी सजा क्या हो यह तो कानून के आधार पर न्यायाधीश ही तय करेंगे ।

निशिकांत ठाकुर

आज हम अपने विकासशील देश भारत की जब भी बात करते हैं, उसकी हर तरह की कमियों के लिए आजादी के बाद से लेकर अब तक की सरकारों को कोसते हैं। उन पर नाना तरह का आरोप लगाते हैं और कोसने के बाद अपनी चिढ़ को शांत करने का भ्रम पाल लेते हैं। लेकिन, आजादी हमें मिली कैसे? कितनी कुर्बानियों के बाद हम खुली आजादी की हवा में सांस ले पा रहे हैं? आजादी के लिए देश और देश के लोगों को क्या कुछ सहना पड़ा? इन बातों पर चिंतन—मनन करने का प्रयास नहीं करते हैं। इस बीच जैसे जैसे समकालीन विद्वानों द्वारा लिखित आजादी के इतिहास को पढ़ता जाता हूं उन सेनानियों के प्रति सम्मान से मस्तक झुक जाता है। सच में ऐसे लोगों को समाज से बहिष्कृत किया जाना चाहिए, जिनकी मानसिकता आज भी यह है कि वर्ष 1947 में जो आजादी हमें मिली, वह ‘भीख’ में मिली आजादी है । काश, ऐसे लोगों ने कभी इतिहास पढ़ा होता अथवा उनके परिवार का कोई सदस्य आजादी के काल का इतिहास उन्हें कहानी के रूप में ही सही, बताया—सुनाया होता। आज हम देश के गृहमंत्री अमित शाह की उन बातों से पूर्णतः सहमत महसूस करते हैं, जिसमें उन्होंने कहा है कि देश में शत—प्रतिशत लोग जब तक शिक्षित नहीं होंगे, देश के राजनीतिज्ञ अपने कंधों पर इतनी बड़ी गैर शिक्षित आबादी को लेकर कब तक आगे बढ़ाते रहेंगे। आज विश्व के कई देशों में इसीलिए स्वास्थ्य और शिक्षा को नागरिकों का जन्मसिद्ध अधिकार माना जाता है, क्योंकि स्वस्थ शरीर में ही उर्वर मस्तिष्क का स्थान होता है। और, जब मस्तिष्क स्वस्थ होगा तो वह शिक्षा भी जल्द और उच्च स्तरीय पा सकने में समर्थ होगा। लेकिन, अपने देश में आज सबसे खर्चीला शिक्षा और स्वास्थ्य ही है। शिक्षा आज भारत में व्यवसाय का रूप ले चुका है, तो घोर गरीबी के कारण स्वस्थ खान—पान के अभाव में हम अपने स्वास्थ्य को उस मापदंड के अनुकूल नहीं रख पा रहे हैं जिसकी तुलना आज विश्व के अन्य देशों के लोगों से कर सकते हों।

डॉ. भीमराव अंबेडकर अपनी चर्चित पुस्तक ‘पाकिस्तान अथवा भारत का विभाजन’ में भाषा और राष्ट्र के महत्व के बारे में रेमन महोदय के विचारों को उद्धृत करते हुए बाबा साहेब लिखते हैं- ‘भाषा पुनर्मिलन को आमंत्रण तो देती है, किंतु यह उसके लिए बाध्य नहीं करती। यूनाइटेड स्टेट्स और इंग्लैंड, स्पेनिश और स्पेन में एक ही भाषा बोली जाती है, लेकिन इसके बावजूद वे एक संयुक्त राष्ट्र नहीं हैं।’ वह आगे लिखते हैं-‘राष्ट्र एक जीवंत प्राण है, एक आध्यात्मिक सिद्धांत है। दो चीजें जो एक ही हैं, इस प्राण, इस आध्यात्मिक सिद्धांत का सृजन करती है। एक अतीत से जुड़ी है और दूसरी वर्तमान से। एक है स्मृतियों की समृद्ध विरासत का समान अधिकार, दूसरी है वास्तविक सहमति, एक साथ रहने की आकांक्षा, जो अभिभाज्य विरासत सौंपी है, उसको निष्ठा सहित कायम रखने की इच्छा। मनुष्य अचानक नहीं आता। व्यक्ति के समान ही राष्ट्र प्रयासों के एक सुदीर्घ अतीत का फल होता है। आज जो कुछ है उसमें हमारे पूर्वजों का ही योगदान है। एक शौर्यपूर्ण अतीत, महापुरुष का गौरव- ये ही उस सामाजिक पूंजी का सृजन करते हैं जिस पर राष्ट्रीयता का विचार सृजित हो सकता है। अतीत का समान गौरव, वर्तमान में समान आकांक्षा, साथ-साथ मिलकर किए गए महान कार्य, वैसे ही कार्यों को पुनः करने की इच्छा- ये सब किसी व्यक्ति को राष्ट्र भाव से प्रेरित करने वाली अनिवार्य स्थितियां हैं। हम जितने अधिक कष्ट सहन कर त्याग करते हैं उसी अनुपात में उनके प्रति हमारी आसक्ति होती है। हम जो मकान बनाते हैं और जिसे हमें अपने वंशजों को सौंपना हैं, उससे हम प्यार करते हैं।

वर्ष 1947 में आजादी हमें भीख में नहीं मिली, बल्कि सौ वर्षों के संघर्ष के बाद हमारे पूर्वजों ने आजादी अंग्रेजों से छीनकर ली थी। हजारों आजादी के दीवाने चाहे वह हिंदू थे या मुसलमान या सिख… सबने मिलकर अंग्रेजों की गुलामी से जकड़े अपने नागरिकों को अपने लिए नहीं, बल्कि अपनी आनेवाली पीढ़ियों के लिए अपनी कुर्बानी देकर देश को आजाद कराया। जबकि, अंग्रेजों ने भारत में भारतीयों की भलाई के बहुत सारे कार्य किए थे। जैसे उन्होंने सड़कों को सुधारा था, नहरें अधिक वैज्ञानिक सिद्धांतों के आधार पर बनाई थीं, रेल का निर्माण कर परिवहन को सुधारा, नाममात्र के शुल्क पर पत्रों को एक स्थान से दूसरे स्थान पर भेजने की व्यवस्था, तार भेजने की व्यवस्था, मुद्रा में सुधार, माप—तौल का नियमन, भूगोल-नक्षत्र- विद्या और औषधियों के बारे में उनकी सोच को सही किया और उनके आंतरिक झगड़ों को रोककर उनकी आर्थिक हालत में भी एक हद तक सुधार किया। अंग्रेज सरकार के इन भलाई वाले कामों के बावजूद क्या कोई भारतीय किसी से यह कह सकता था कि वह अंग्रेजों का आभार मानें और स्वशासन या स्वराज के लिए आंदोलन करना छोड़ दें? अथवा, सामाजिक उत्थान के इन कार्यों के कारण भारतीयों ने अंग्रेजों द्वारा उनसे की जाने वाले शासित जाति के व्यवहार का विरोध करना छोड़ दें। भारतीय इन कल्याणकारी कार्यों से संतुष्ट नहीं हुए। तभी तो अपना शासन स्वयं चलाने के अधिकार की प्राप्ति के लिए आंदोलन करते रहे और होना भी यही चाहिए था। जैसा कि आयरिश देशभक्त क्यूरेन ने कहा था कि ‘कोई भी महिला अपने स्त्रीत्व की कीमत पर किसी का आभार व्यक्त नहीं कर सकती और कोई भी राष्ट्र अपनी गौरव-गरिमा की कीमत किसी का आभारी नहीं बन सकता।’

इसी भारतवर्ष को अंग्रेजों की गुलामी से मुक्त कराने के लिए हमारे महान क्रांतिकारी पूर्वजों ने किया। वे शहीद हुए अपने यशोगान के लिए नहीं, क्योंकि वह जानते थे कि क्रांति की इस अग्नि में उन्हें जलना है, अतः स्वतंत्र राष्ट्र में उनका सांस लेना संभव हो नहीं सकेगा, लेकिन उनके बाद उनकी संतान देश की स्वतंत्र हवा में सांस जरूर ले सकेंगे। यह उनका आजाद भारत के लिए जज्बा था और वे इसलिए शहीद भी हुए। फिर ऐसे क्रांतिकारी देशभक्तों की कुर्बानी से मिली आजादी को कोई कैसे भीख में मिली आजादी कह सकता है? सच तो यह है कि नकारात्मक सोच वालों के मस्तिष्क में इस प्रकार का कूड़ा आज समाज के चाटुकारों ने भर दिया है कि इस प्रवृत्ति के लोगों के मन में भरे कचरे को निकालना कोई आसान काम नहीं है। ऐसे लोग इतिहास को पढ़ेंगे नहीं, सच को जानने—समझने की कोशिश करेंगे नहीं और केवल रटे—रटाए डायलॉग बोलकर समाज में प्रसिद्धि पाने के लिए ही तो आखिर इस तरह के छिछोरेपन की बात करेंगे। दुख तो तब होता है, जब राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के लिए भी ऐसे लोग तर्कहीन ही नहीं, अमर्यादित बातें कहकर समाज को दिग्भ्रमित करते हैं। यह कोई इस तरह के लोग नहीं हैं जिनकी बातों को सुनने से समाज इनकार कर दें, बल्कि ऐसे लोग वे हैं जिनकी बातों से समाज का अधकचरा मस्तिष्क गुमराह हो जाता है। ऐसे लोग इस प्रकार की बातों पर कुतर्क भी करते हैं, दिग्भ्रमित करके मस्तिष्क को बरगला देते हैं। स्वतंत्रता सेनानी की अगुवाई करने वाले महात्मा गांधी जैसे लोग थे जिन्होंने हजारों मील दूर दक्षिण अफ्रीका में अपने बलबूते पर गिरमिटिया मजदूरों को संगठित कर अंग्रेजों को घुटनों पर लाने में सफल रहे। जब भारत वापस आए तो उनसे जो भी जुड़े, वह कोई अशिक्षित नहीं थे।

गांधी जी कितने दूरदर्शी थे, इसके कई उदाहरणों में एक उदाहरण यह है कि सुभाष चंद्र बोस उनसे कहते थे कि यह कैसा अभिशाप है कि 38 करोड़ भारतीय पर केवल एक लाख अंग्रेज शासन करे। गांधी जी उन्हें समझाते थे और कहते थे कि अंग्रेजों की आबादी केवल एक लाख नहीं है, बल्कि विश्व में उनकी ताकत का डंका बजता है जो उनके राज्य में सूर्यास्त नहीं होने देता है। उनके पास दुर्भाग्यपूर्ण एकता के साथ हथियारों की ताकत है, इसलिए हम उनसे युद्ध करके आजादी हासिल नहीं कर पाएंगे। अतः हमें अहिंसा का ही मार्ग अपनाना होगा। लेकिन, सुभाष बाबू कहां मानने वाले थे। इसलिए आज विश्व के तमाम अनुसंधानकर्ता इस बात में लगे हैं कि एक संत प्रवृत्ति वाला व्यक्ति इतना दूरदर्शी कैसे हो सकता था जिसने अंग्रेजों को इस बात के लिए विवश कर दिया कि उसे भारतवर्ष को आजादी देनी ही पड़ी। गांधी जी ने हिंसा की किसी भी घटना की निंदा का कोई भी अवसर नहीं छोड़ा। उन्होंने कांग्रेस को भी उनकी इच्छा के विपरीत ऐसी घटनाओं की निंदा करने के लिए विवश किया। गांधी जी ने हिंदू—मुस्लिम एकता को बनाए रखने की खातिर कुछ हिंदुओं की हत्या की कोई चिंता नहीं की। वह इसलिए, क्योंकि उनके बलिदान से हिंदू-मुस्लिम एकता बनी रहे।

भारत की आज़ादी पर जितना कुछ लिखा जाए कम है, क्योंकि इस आजादी को पाने की शुरुआत सन् 1857 में ही हो चुकी थी जो लगभग 90 वर्षों बाद वर्ष 1947 में सफल हुई। आजादी की जंग में हजारों देशभक्त शहीद हुए, खून की नदियां बहती रहीं, लेकिन गांधी जी की अगुवाई में अहिंसक लड़ाई भी जारी रही। तभी हमें आजादी मिली है। उसे यह कहकर कि आजादी हमें भीख में मिली है, उन लाखों शहीदों का घोर अपमान है । उसकी अगुवाई करने वाले राष्ट्रपिता मोहनदास करमचंद गांधी का तो घोर अपमान है। उनके अपमान का अर्थ है उनके समर्थकों एवं अनुयायियों का अपमान, जो हर दशा में गांधी जी को पूजते हैं, उनके नाम की कसमें खाते हैं। स्वतंत्रता संग्राम के सभी सेनानी हमारे लिए कल भी स्तुत्य थे, आज भी हैं और कल भी रहेंगे। उनके प्रति अपमानजनक शब्दों का प्रयोग आसमान में थूकने जैसा है, जो लौटकर उसके ही मुंह पर गिरता है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक हैं)