Guest Column : फाइनल से कम नहीं होगा सेमीफाइनल का ‘रण’

जो भी हो अभी चुनाव में कुछ समय शेष है। आप चुनाव के लिए कुछ भी पूर्वानुमान लगा लें, लेकिन मतदाता अपने विचारों को तब भी बदल लेता है, जब उसे ईवीएम का बटन दबाना होता है। दूसरी बात यह है कि चुनाव लड़ने वाला कोई भी दल और उसका प्रत्याशी कभी यह स्वीकार नहीं करता है कि वह हार रहा है। इसलिए प्रत्याशियों को जानिए—समझिए और भयमुक्त होकर सही प्रत्याशियों को चुनिए जो आपके देश को आपके राज्य को आधुनिक युग में ले जाए, न कि केवल अपने जुमलों से आपको भ्रमित कर आपको केवल एक वोटर के तौर पर ताउम्र इस्तेमाल करता रहे।

निशिकांत ठाकुर

अगले साल पांच राज्यों—उत्तर प्रदेश, पंजाब, मणिपुर, गोवा और उत्तराखंड में होने वाले विधानसभा चुनाव की उल्टी गिनती शुरू हो गई है। चुनावी अखाड़े में एक—दूसरे को पटखनी देने के लिए राजनीतिक दलों ने अभी से खम ठोंकना भी शुरू कर दिया है। सबसे ज्यादा हरकत में भारतीय जनता पार्टी और उनके इकलौते सदाबहार चेहरे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी में दिख रही है। उनके पीछे—पीछे अन्य दल और मुखिया भी अपने—अपने हिसाब से कदमताल करते नजर आने लगे हैं। आरोप—प्रत्यारोप का दौर भी शुरू हो चुका है। कहां किस राज्य में किस पार्टी से हाथ मिलाकर सत्ता के करीब आना है, किन पुराने दुश्मनों को दोस्त बनना है और किसे आखिरी वक्त पर झटका देना है, इन सारे मुद्दों पर पर्दे के पीछे खेल भी शुरू हो गया है। दरअसल, अगले साल होने वाले पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव को केंद्र सरकार के लिए सेमीफाइनल के तौर पर भी देखा जा रहा है, क्योंकि दो साल बाद 2024 में ही तो लोकसभा चुनाव भी होने हैं।

विधानसभा चुनाव के मद्देनजर उत्तर प्रदेश, पंजाब, मणिपुर, गोवा, उत्तराखंड में सियासी हलचल तेज हो गई है। केंद्र सरकार से जुड़े भाजपा शासित राज्यों में उत्तर प्रदेश सबसे बड़ा राज्य है। पुरानी कहावत है कि दिल्ली की सत्ता की राह उत्तर प्रदेश ही तरह करता है। ऐसे में यहां की हार—जीत का सबसे अधिक असर वर्ष 2024 में होने जा रहे लोकसभा चुनाव पर सबसे ज्यादा पड़ेगा। यही वजह है कि यहां भाजपा समेत जिस किसी भी दल को देखें, वह किसी—न—किसी रूप में सरकार बनाने और सत्ता पाने की जुगत में लगा है। चाहे उत्तर प्रदेश हो या पंजाब, गोवा, उत्तराखंड या छोटा राज्य मणिपुर… हर जगह सत्तारूढ़ दल से सत्ता की चाबी छीनने के लिए अन्य पार्टियां लगी हैं। वैसे, अभी चुनाव आयोग ने चुनाव की तारीख घोषित नहीं की है, लेकिन हर तरह का आरोप—प्रत्यारोप लगाकर एक—दूसरे को नीचा दिखाने के लिए सभी लगे हुए हैं। बता दें कि गोवा, मणिपुर, पंजाब और उत्तराखंड विधानसभाओं का कार्यकाल मार्च 2022 में समाप्त होगा। जबकि, उत्तर प्रदेश विधानसभा का कार्यकाल अगले साल मई तक चलेगा। लेकिन, उम्मीद है कि आयोग पांचों राज्यों की विधानसभा का चुनाव एक साथ कराएगा।

60 सीटों वाली मणिपुर विधानसभा में भाजपा गठबंधन के पास कुल 32 विधायकों का समर्थन था। लेकिन, अब नौ विधायकों ने अपना समर्थन वापस ले लिया है, जिनमें तृणमूल कांग्रेस का एक विधायक और एक निर्दलीय विधायक शामिल है। भाजपा छोड़कर कांग्रेस में शामिल होने वाले विधायक सुभाष चंद्र सिंह, टीटी हाओकिप और सैमुअल जेंदाई मुख्यमंत्री से बेहद नाराज़ थे। भाजपा नेता विजय चंद्र कहते है, ‘मणिपुर में केवल 12 लोगों का मंत्रिमंडल बनाया जा सकता है। इतने छोटे मंत्रिमंडल में सभी विधायकों को मंत्री बनाना कैसे संभव हो सकता है। ऐसी में सबकी नाराज़गी दूर नहीं की जा सकती। जबकि, हमने एक उप-मुख्यमंत्री समेत एनपीपी के चारों विधायकों को मंत्रिमंडल में शामिल किया था, फिर भी वे खुश नहीं थे। असल में एनपीपी हमेशा समस्या खड़ी करने वाली पार्टी रही है। पिछले लोकसभा चुनाव में भी इस पार्टी ने भाजपा के खिलाफ काम किया था।’ गोवा विधानसभा चुनाव के लिए सभी दलों ने अपनी तैयारी शुरू कर दी है। 40 विधानसभा वाले गोवा विधानसभा के लिए सत्तारूढ़ भाजपा, कांग्रेस, तृणमूल कांग्रेस तथा आम आदमी पार्टी अपनी सत्ता के लिए जोर—आजमाइश कर रहे हैं। इसके लिए कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी, तृणमूल की ममता बनर्जी, आम आदमी पार्टी के संयोजक अरविंद केजरीवाल और भाजपा के दिग्गज नेताओं ने पणजी और वहां के आसपास अपना डेरा डाल रखा है। भाजपा को बहुत कम बढ़त के साथ सत्ता हासिल करने का अवसर वहां मिला था। इस बार भी उठापठक के बाद क्या स्थिति बनती है, इस पर अभी से कुछ कहना उचित नहीं है, लेकिन आम आदमी पार्टी संघर्ष में अभी मजबूत दिखाई पड़ती है।

देश का छोटा, लेकिन सबसे समृद्ध राज्य पंजाब, जहां अभी कांग्रेस सत्तारूढ़ है, वहां भाजपा और आम आदमी पार्टी कांग्रेस से सत्ता छीनने के लिए अपने जोड़—तोड़ में जुटी है। 117 विधानसभा सीटों वाले राज्य में अकाली दल के कद्दावर नेता सरदार प्रकाश सिंह बादल अब उतने सक्रिय नहीं हैं। उन्होंने पार्टी की कमान अपने बेटे सरदार सुखबीर सिंह बादल के हाथों में सौंपकर युवाओं को नेतृत्व देने का प्रयास किया है। सुखबीर सिंह बादल पंजाब की गरिमा को वहां के मतदाताओं को अपनी ओर आकर्षित करने में कितने सफल होते हैं, यह तो चुनाव ही बताएगा, लेकिन सुखबीर बादल भी जोड़तोड़ में जुटे हैं। कांग्रेस ने तो अपनी लुटिया अपने हाथों से दिल खोलकर डुबाने का प्रयास किया है, कैप्टन अमरिंदर सिंह को सत्ता से एक मशखरे की सलाह पर बाहर कर देना इसे पंजाब के मतदाता पचा नहीं पा रहे हैं और अंदर—ही—अंदर कांग्रेस का विरोध कर रहे हैं। वैसे, कांग्रेस के जो सत्तासीन मुख्यमंत्री और राज्य कांग्रेस के अध्यक्ष ने तो कैप्टन अमरिंदर सिंह के ऊपर खुलेआम आरोप लगाना शुरू कर दिया है। लेकिन, कैप्टन के प्रति मतदाताओं का जो लगाव है, वह भी धीरे—धीरे सामने आने लगा है। ऐसा इसलिए, क्योंकि उन्होंने भाजपा की नजदीकियों को स्वीकार कर लिया है। इसका लाभ तो भाजपा को मिलेगा ही, लेकिन पंजाब में अब तक भाजपा कहीं भी अकाली दल और कांग्रेस के आसपास नहीं टिक रही थी। ऐसी स्थिति में हो सकता है कि भाजपा को कुछ लाभ उनके जाने से मिल जाए। अब रही आम आदमी पार्टी की बात, तो जो स्थिति आपसी फूट के कारण पंजाब में बनती जा रही है, उसमें इतना तो मानना ही पड़ेगा की आम आदमी पार्टी को इस बंदरबाट का कुछ—न—कुछ लाभ तो जरूर मिलेगा। दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल पूरी तरह से पंजाब में सत्तासीन होने का मन बना चुके हैं, इसलिए मतदाताओं को इस तरह का लोभ देकर अपनी और आकर्षित कर रहे हैं जिसके कारण ऐसा लगता है कि सबसे अधिक सफलता पंजाब में उसी दल को मिल जाए।

अब उत्तराखंड की यदि बात करें तो यहां सत्तारूढ़ भाजपा एक बार फिर सत्ता में आने के लिए एड़ी-चोटी का जोर लगा रही है। पार्टी ने इस बार 70 सदस्यों वाली विधानसभा में 60 से अधिक सीटें जीतने का लक्ष्य बनाया है। इसे हासिल करने के लिए भाजपा नेता जुटे हैं। 70 सदस्यीय उत्तराखंड विधानसभा में जादुई आंकडा है 36, जिसके लिए मुख्य मुकाबला अब तक भाजपा और का‍ंग्रेस के बीच होता रहा है। वर्ष 2017 में हुए पिछले विधानसभा चुनाव में भाजपा 57 सीट जीतकर प्रचंड बहुमत से सरकार बनाई थी, जबकि 11 विधायकों वाली का‍ंग्रेस पार्टी विधान सभा में मुख्य विपक्षी दल बनी थी। इसके अलावा किसी अन्य पार्टी का खाता भी नहीं खुला था, लेकिन दो निर्दलीय विधायक जीतने में कामयाब रहे थे। यद्यपि विपक्ष से भाजपा को बहुत अधिक चुनौती नहीं मिल रही है, लेकिन पार्टी आंतरिक खींच-तान से दो-चार करती जरूर दिख रही है। चार वर्षों के कार्यकाल के बाद भाजपा ने त्रिवेंद्र सिंह रावत को हटाकर तिरथ सिंह रावत को मुख्यमंत्री बनाया था और महज कुछ ही महीने में रावत की जगह पुष्कर सिंह धामी को उत्तराखंड का मुख्यमंत्री बनाया गया। जहा‍ं आगामी चुनाव भाजपा के केंद्रीय नेतृत्व के साथ-साथ धामी की भी अग्नि परीक्षा होगी वहीं का‍ंग्रेस भी उत्तराखंड के इतिहास को देखते हुए सरकार बदलने के लिए कोई कसर शायद ही छोड़े। इस बार आम आदमी पार्टी की मौजूदगी राज्य के चुनावी घमासान को और अधिक मजेदार बना रही है। राज्य में त्रिकोणीय संघर्ष से इंकार नहीं किया जा सकता।

उत्तर प्रदेश में आगामी विधानसभा चुनावों को लेकर सियासी सरगर्मियां उफान पर हैं। सत्तारूढ़़ भाजपा सूबे में फिर से वापसी के लिए आत्मविश्वास से लबरेज है, वहीं समाजवादी पार्टी से लेकर कांग्रेस और बहुजन समाज पार्टी तक अपनी जीत के दावे कर रही हैं। प्रियंका गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस में भी नए जीवन का संचार हुआ है उसका जीता जागता उदाहरण पिछले दिनों अमेठी में राहुल गांधी और प्रियंका गांधी की रैली ने सिद्ध कर दिया है । धीरे—धीरे कांग्रेस ने भी अपनी जमीन तैयार कर ली है। यूपी में बड़े नेताओं की गतिविधियां भी बढ़ गई हैं। उत्‍तर प्रदेश विधानसभा द्विसदनीय विधान मंडल का निचला सदन है। इसमें 403 निर्वाचित सदस्‍य तथा राज्‍यपाल द्वारा मनोनीत एक आंग्‍ल भारतीय सदस्‍य होते हैं। उत्तर प्रदेश विधान परिषद में कुल 100 सदस्‍य हैं। वर्ष 1967 तक एक आंग्‍ल भारतीय सदस्‍य को सम्मिलित करते हुए विधानसभा की कुल सदस्‍य संख्या 431 थी। यह वहीं राज्य है, जिसकी आबादी सभी राज्यों से अधिक है, जहां से लोकसभा के सबसे अधिक सांसद चुने जाते हैं। आज यहां विधानसभा चुनाव को लेकर हलचल तेज है। मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के नेतृत्व में सब ठीक चल रहा था, लेकिन तीन नए कृषि सुधार कानूनों के विरोध में एक साल से लंबे समय तक चले किसान आंदोलन ने सत्तारूढ़ दल भाजपा के सभी समीकरणों को बिगाड़कर रख दिया। किसान आंदोलन केंद्र सरकार के विरुद्ध चल ही रहा था कि लखीमपुर खीरी प्रकरण ने आग में घी डाल दिया। जिस तरह से केंद्रीय राज्य मंत्री अजय मिश्र टेनी के बेटे ने अपनी जीप से चार आंदोलनकारी किसानों को रौंद दिया और कई किसानों को घायल कर दिया, उसने भी सारा माहौल बिगाड़ दिया। लेकिन, सत्तारूढ़ दल अपनी भूल को स्वीकार करने के बजाय किसानों को ही दोषी ठहराने में जी—तोड़ प्रयास करता रहा। अब तो यह स्थिति हो गई है कि सुप्रीम कोर्ट द्वारा बनाई गई एसआईटी ने भी अपनी रिपोर्ट में कहा है कि यह हत्या दुर्घटना नहीं, बल्कि जानबूझकर साजिश के तहत की गई है। किसानों की बस यही मांग है कि गृहमंत्री को बर्खास्त किया जाए और उनके खिलाफ हत्या का मुकदमा दर्ज हो। यदि सरकार इस बात को मान लेती है तो हो सकता है कि भाजपा के पक्ष में किसानों का आत्मविश्वास बढ़े और अगले चुनाव में इसका लाभ मिले।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक हैं)