Guest Column : यह राजनीति है… जरा तोल—मोल के बोल

याद कीजिए नेताओं के पुराने भाषणों को, फिर जब देश के गृह राज्यमंत्री ने सार्वजनिक जनमंच से धरने पर बैठे किसानों पर हमला बोलते हुए कहा था कि कुछ ही मिनट में इन्हें समझा दूंगा। जिसके कुछ दिन बाद ही आरोप है कि लखीमपुर खीरी में उनके ही बेटे ने सरेआम गाड़ियों से किसानों को रौंद कर मार डाला । मुख्य अपराधी के रूप में वह जेल में बंद है और उसकी जमानत के लिए लगातार प्रयत्न चल रहे हैं। सच तो यह है कि यह भी तो एक परिवारवाद वंशवाद का नमूना है।

निशिकांत ठाकुर

वंशवाद या परिवारवाद शासन की वह पद्धति है जिसमें एक ही परिवार, वंश या समूह से एक के बाद एक कई शासक बनते जाते हैं। माना जाता है कि लोकतंत्र में वंशवाद के लिए कोई स्थान नहीं है, इसके बावजूद कई देशों में आज भी वंशवाद हावी है। दरअसल, वंशवाद, निकृष्टतम कोटि का आरक्षण है। हालांकि, इसे राजतंत्र का सुधरा हुआ रूप भी कहा जा सकता है। पिछले सप्ताह प्रधानमंत्री ने वंशवाद पर चोट करते हुए उन्हें धिक्कारा, जो आज भी वंशवाद के समर्थक हैं। पीएम का अप्रत्यक्ष, लेकिन सीधा कटाक्ष कांग्रेस पर था। उन्होंने कहा, वंशवादी दल जो स्वयं लोकतांत्रिक चरित्र खो चुके हैं, वह लोकतंत्र की रक्षा कैसे कर सकते हैं। सच है, भारत जैसे लोकतांत्रिक देश में आज वंशवाद के लिए कोई स्थान नहीं है। लेकिन, अपने ही देश में यह भी एक कहावत है ‘चिराग तले अंधेरा’। हम इस बात को भूल जाते हैं कि जब हम किसी की ओर इशारा करते हैं उनकी ओर एक अंगुली उठती है, जबकि शेष तीन अंगुलियां अपनी ओर ही होती है। आज कोई भी दल सीना ठोककर यह नहीं कह सकता कि उसके यहां ऐसा चलन नहीं है, यानी उनका दल इस अपवाद से परे है।

आजादी के बाद वंशवाद को बढ़ाने का आरोप सबसे पहले नेहरू गांधी परिवार पर लगा, क्योंकि इसके तीन सदस्य— जवाहर लाल नेहरू, बेटी इंदिरा गांधी और इंदिरा के बेटे राजीव गांधी, देश के प्रधानमंत्री रह चुके हैं। इनमें दो की हत्या आतंकवादियों द्वारा की जा चुकी है। आज जब राजीव के बेटे राहुल गांधी, कांग्रेस की इस परंपरा को आगे बढ़ाने की कोशिश में जी—जान से जुटे हैं, वहीं बहन प्रियंका वाड्रा भाई का साथ देने मैदान में कूद पड़ी हैं। पहले जहां आलोचना के बावजूद वंशवाद नेहरू गांधी परिवार का अचूक हथियार माना जाता था, आज वामपंथियों को छोड़ लगभग सभी दलों ने इसे बेझिझक अपना कर एक नई प्रथा सी कायम कर दी है।
नेहरू गांधी के बाद जम्मू और कश्मीर के दिवंगत मुख्यमंत्री शेख अब्दुल्लाह के परिवार का नाम भी वंशवाद को लेकर बहुत आगे आता है। यहां उनके बेटे फारुख अब्दुल्लाह और पोते उमर दोनों राज्य के मुख्यमंत्री रह चुके हैं। उसी तरह जैसे पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी के मुफ्ती मुहम्मद सईद और उनकी बेटी महबूबा मुफ्ती।

राजतंत्र हो या कुलीन तंत्र और वर्तमान का आरोपित लोकतांत्रिक ढांचा इन सब में एक बात पूर्णतया समान होती है और यह बात है वंशानुगत उत्तराधिकार तथा परिवारवाद की जिसमें सत्ता हमेशा पारिवारिक ढांचे के अंतर्गत प्रवाहित होती रहती है। किंतु यह वंशवाद मात्र भारत तक ही सीमित नहीं है, बल्कि इसका प्रचलन उतने ही प्रभावी रूप में लगभग सभी अल्प विकसित या नव विकासशील देशों में देखा जा सकता है, जहां पर कुछेक परिवार राजनीति में हमेशा महत्वपूर्ण रहे हैं और जिनके प्रभाव से पूरी राजनीतिक व्यवस्था संचालित होती रही है। भारत में जहां गांधी-नेहरू परिवार तक ही अब परिवारवाद सीमित नहीं रह गया है। तमाम नए सियासी घराने भी वंशानुगत सत्ता हस्तांतरण का तरीका अपनाने लगे हैं जिससे इस प्रथा का विकराल स्वरूप देखा जा सकता है। इसका सबसे ज्वलंत उदाहरण पिछले वर्षों में ही उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बने अखिलेश यादव की ताजपोशी के रूप में देखा जा सकता है जिन्हें बिना अनुभव के प्रदेश की सबसे महत्वपूर्ण कुर्सी का उपहार मिला। उनकी योग्यता बस इतनी है कि वे बहुमत पाए दल के मुखिया के पुत्र हैं।

वर्ष 2014 में लोकसभा चुनावों में प्रधानमंत्री पद के लिए भाजपा के तत्कालीन उम्मीदवार और आज के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने राहुल गांधी को ‘शहजादा’ और तत्कालीन यूपीए सरकार को ‘दिल्ली सल्तनत’ करार देते हुए गांधी परिवार पर ताना मारा था। मोदी ने उत्तर प्रदेश में अपने अभियान के दौरान समाजवादी पार्टी के नेता मुलायम सिंह यादव और अखिलेश यादव की जोड़ी का जिक्र करते हुए भी कहा था, ‘जहां मां और बेटे की सरकारों ने देश को तबाह कर दिया, वहीं उत्तर प्रदेश को पिता-पुत्र की सरकार ने बर्बाद कर दिया।’ मोदी और उनकी पार्टी के सहयोगियों ने वंशवादी संस्कृति को बढ़ावा देने को लेकर विपक्षी दलों के खिलाफ हमलावर रुख अपना रखा है, जबकि प्रमुख राजनीतिक परिवारों के सदस्य भाजपा में शामिल हो रहे हैं और आगे भी बढ़ रहे हैं। वर्ष 2019 में अखबार में छपी जानकारी के मुताबिक भाजपा के लगभग 11 प्रतिशत सांसदों, यानी 45 सदस्यों की पृष्ठभूमि वंशवाद की राजनीति से जुड़ी है। वर्ष 2019 के महाराष्ट्र और हरियाणा विधानसभा चुनावों में तो मानों भाजपा और कांग्रेस के बीच इसकी होड़ ही लगी थी कि कौन कितने राजनीतिक वंशजों को मैदान में उतारेगा। भाजपा ने महाराष्ट्र और हरियाणा में राजनीतिक परिवारों से जुड़े 29 लोगों को मैदान में उतारा, जिनमें 17 ने जीत हासिल की। इस मामले में कांग्रेस का आंकड़ा 36 में से 21 का था। कांग्रेस के वरिष्ठ नेता पवन खेड़ा ने कहा, ‘भाजपा में दुष्यंत, पंकज सिंह, अनुराग ठाकुर, पूनम महाजन, जयंत सिन्हा, प्रवेश वर्मा आदि के बाद भी राजनीतिक वंशजों की जैसे कमी पड़ गई हो तो वह अन्य दलों से भी वंशवादियों को ला रहे हैं। अब उनके पास बोम्मई के रूप में एक और वंशवादी कर्नाटक का मुख्यमंत्री है।’ उन्होंने कहा, ‘पार्टी के अपने और दूसरी पार्टियों से आयातित वंशवादियों को मिलाकर भाजपा के पास कांग्रेस की तुलना में अधिक राजनीतिक वंशज हैं। उन्हें कांग्रेस के खिलाफ वंशवादी राजनीति के इस पुराने हथकंडे का इस्तेमाल करना बंद कर देना चाहिए। यह एक पाखंड और उबाऊ बन चुका है।’

सच तो यह है कि किसी को अपना चेहरा स्वयं नहीं दिखाई देता है। उसे खुद को देखने के लिए दर्पण अथवा पानी के सामने जाना पड़ता है। जब हम किसी और की आलोचना करने लगते हैं तो यह भूल जाते हैं कि अपनी स्वयं की उनमें कितनी कमी है। लगभग यही हमारे राजनीतिज्ञों से होता रहा है। जब वह मंच से समाज को संबोधित करते हैं तो उन्हें केवल अपनी बातों की प्रतिक्रिया का प्रभाव देखना होता है जो किराये के लाए गए श्रोता होते हैं। ऐसे श्रोता—दर्शक तो उनकी बातों से प्रभावित हो जाते हैं, लेकिन समाज का वह वर्ग, जो बुद्धिजीवी होता है, उसकी हंसी, आलोचना तथा उपहास के पात्र बनते हैं। आज राजनीतिज्ञ सारी मर्यादाओं को या तो भूल गए हैं अथवा उन्हे अपने शब्द चयन का ज्ञान नहीं होता। यह एक आम बात हो गई है की जो राजनीतिज्ञ जितनी अमर्यादित शब्दों का प्रयोग करते हैं, समाज का एक वर्ग उन्हें उतना सम्मानित समझता है।

से जनता अब ऐसे नेताओं पर विश्वास करना लगभग छोड़ ही दिया है। जो कभी यह कहते थे कि यदि उनकी सरकार बनी तो प्रत्येक के खाते में पंद्रह लाख रुपया और लाखों लोगों को रोजगार देंगे, जिसे उनके ही दल द्वारा चुनाव के बाद ‘जुमला’ करार दिया था। ध्यान देने की बात यह है की जिन परिवारों को वंशवादी कहा जा रहा है वे स्वयं उच्च पदस्थ नहीं हो गए , उन्हे जनता ने मतदान में चुना और बहुमत दल की ताकत ने उन्हें उस कुर्सी पर बैठाया । ऐसा इसलिए कि हमारा भारत जनतांत्रिक देश है जहां जनता ही भाग्य विधाता है । जो कुछ भी हुआ अथवा हो रहा है यह सारा निर्णय भारतीय जनता का है अतः जनता को ही यदि कोई अपराधी मान ले तो यह उनकी इच्छा । जनता हर उस आलोचक को समय आने पर समझा देती है – क्योंकि हमारा देश लोकतांत्रिक व्यवस्था में संविधान के बल पर चल रहा है इसलिए यहां कोई वंशवादी नही है । सब जनता के बहुमत द्वारा चुने हुए प्रतिनिधि हैं ।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक हैं)