प्रयागराज । कुंभ मेला, भारतीय संस्कृति और धर्म का एक अत्यंत महत्वपूर्ण पर्व है, जिसका ओशो ने गहरे अर्थों में विश्लेषण किया है। यह मेला महज एक धार्मिक अनुष्ठान नहीं, बल्कि एक विशाल सामूहिक प्रयोग है, जो मानवता के लिए अद्वितीय महत्व रखता है। ओशो के अनुसार, कुंभ मेला वह अवसर है जब करोड़ों लोग एक निश्चित समय, तिथि और नक्षत्र में एक स्थान पर एकत्रित होते हैं, और यह सभी एक ही आकांक्षा, एक ही उद्देश्य, और एक ही प्रार्थना के साथ आते हैं। इस समागम में कोई व्यक्ति नहीं होता, केवल एक विशाल समूह की चेतना होती है। यहां हर किसी की पहचान खो जाती है और बस एक सामान्य लक्ष्य होता है – परमात्मा से मिलन। ओशो कहते हैं कि कुंभ में आने वाले लोग एक ही ध्वनि और एक ही धारा के साथ मिलकर अपने भीतर एक बड़ी चेतना का निर्माण करते हैं, जो परमात्मा के प्रवेश के लिए एक व्यापक मार्ग तैयार करती है।
कुंभ मेला इस अर्थ में अद्वितीय है कि यह एक सामूहिक चेतना का निर्माण करता है, जहां लाखों लोग अपनी व्यक्तिगत पहचान खोकर एक साझा उद्देश्य में लीन होते हैं। ओशो के अनुसार, इस समय व्यक्ति की व्यक्तिगत पहचान मिट जाती है और केवल एक विशाल सामूहिकता की उपस्थिति होती है। यहां, न कोई राजा होता है, न कोई रंक, न कोई अमीर होता है, न ही कोई गरीब। सभी एक जैसे होते हैं। इस सामूहिक ऊर्जा का प्रभाव इतना शक्तिशाली होता है कि परमात्मा के प्रवेश का मार्ग बहुत सरल हो जाता है। जितना बड़ा संपर्क क्षेत्र तैयार किया जाता है, उतना ही परमात्मा का अवतरण सरल और सुलभ हो जाता है।
ओशो ने यह भी बताया कि कुंभ मेला, केवल एक धार्मिक अनुष्ठान नहीं, बल्कि एक गहरा सामूहिक प्रयोग है, जिसमें लाखों लोग एक ही समय पर, एक विशेष स्थान पर, एक निश्चित उद्देश्य के साथ इकट्ठा होते हैं। यह एक तरह से चेतनाओं का एक पुल बनाता है, जो लोगों के दिलों को जोड़ता है और उन्हें एक उच्चतर चेतना के स्तर पर पहुंचाता है। जब इतने बड़े पैमाने पर लोग एकजुट होते हैं, तो उनकी चेतना आपस में मिलकर एक विशाल शक्ति का रूप ले लेती है। इस समय परमात्मा के साथ जुड़ने का रास्ता बहुत सहज हो जाता है।
ओशो ने तीर्थ स्थानों और कुंभ के महत्व को भी गहराई से समझाया। उनके अनुसार, पहले समाज में जब लोग सरल और कम अहंकारी होते थे, तब तीर्थ स्थानों का प्रभाव बहुत गहरा और शाश्वत था। लोग वहां से खाली हाथ नहीं लौटते थे, बल्कि वे आंतरिक रूप से परिवर्तित होकर लौटते थे। आजकल, जब समाज में अहंकार और ‘मैं’ का बोध बढ़ गया है, तब तीर्थों का प्रभाव उतना सशक्त नहीं रह गया। अब लोग अक्सर तीर्थों में जाते हैं, लेकिन उनकी प्रार्थना व्यक्तिगत होती है, और इसलिए वे उतना परिवर्तन नहीं अनुभव करते।
ओशो के अनुसार, तीर्थों और धार्मिक प्रतीकों का असली प्रभाव व्यक्ति की स्मृतियों को नष्ट करने में है। जैसे जीसस के पास एक व्यक्ति आता है और अपने पापों का प्रायश्चित करता है, तो जीसस उसके पापों को नहीं, बल्कि उसकी स्मृतियों को माफ करते हैं। ओशो ने यह उदाहरण दिया कि गंगा में स्नान करने से व्यक्ति के पाप नहीं धुलते, बल्कि उसकी स्मृतियां धुल जाती हैं। ये स्मृतियां ही असली बोझ होती हैं, जो मनुष्य को लगातार तंग करती हैं। जब व्यक्ति अपने पापों को भूलने की कोशिश करता है, तो गंगा में स्नान उसे इस मानसिक बोझ से मुक्त कर देती है।
अब जैसे कि कुंभ के मेले पर गंगा में कौन पहले उतरे, वह भारी दंगे का कारण हो जाता है। क्योंकि इतने लोग इकट्ठे नहीं उतर सकते एक घड़ी में, और वह घड़ी तो बहुत सुनिश्चित है, बहुत बारीक है, तो उसमें कौन उतरे उस पहली घड़ी में, वह सुनिश्चित हो गया है। जिन्होंने वह घड़ी खोजी है या जिनकी परंपरा और जिनकी धारा में उस घड़ी का पहले अवतरण हुआ है, वे उसके मालिक हैं। वे उस घड़ी में पहले उतर जाएंगे। और कभी-कभी इंच का फर्क हो जाता है। परमात्मा का अवतरण करीब-करीब बिजली की कौंध जैसा है कौंधा और खो गया। उस क्षण में आप खुले रहे, जगे रहे, तो घटना घट जाए। उस क्षण में आंख बंद हो गई, सोए रहे, तो घटना खो जाए।
तीर्थ का तीसरा महत्व था: समूह प्रयोग, जिससे अधिकतम विराट पैमाने पर लोगों को उतारा जा सके। जब लोग सरल थे तो यह घटना बड़ी आसानी से घटती थी। ऐसा नहीं था, उस दिन तीर्थ बड़े सार्थक थे। तीर्थ से कभी कोई खाली नहीं लौटता था, लेकिन आज के समय खाली लौट आता है, फिर भी आदमी फिर दुबारा चला जाता है। उस दिन कोई खाली नहीं लौटता था, वह परिवर्तित होकर लौटता ही था हालांकि यह बहुत सरल और मासूम समाज की घटनाएं हैं, क्योंकि जितना सरल समाज हो और जहां व्यक्तित्व का बोध जितना कम हो, वहां तीर्थ का यह तीसरा प्रयोग काम करेगा, अन्यथा नहीं करेगा।
जब समाज बहुत हम के बोध से भरा था और मैं का बोध बहुत कम था, तब तीर्थ बड़ा कारगर था, बहुत कारगर था। अब उसकी उपयोगिता उसी मात्रा में कम हो जाएगी, जिस मात्रा में मैं का बोध बढ़ जाएगा।
और आखिरी बात जो तीर्थ के बाबत ख्याल में रखनी चाहिए, वह यह कि प्रतीकात्मक कृत्य का मूल्य भारी है। जैसे जीसस के पास कोई आता है और कहता है, मैंने यह यह पाप किए हैं। वह जीसस के सामने कबूल करके सब बता देता है। जैसे जीसस उसके सर पर हाथ रख कर कह देंगे कि जा तुझे माफ किया। अब इस आदमी ने पाप किए हैं, जीसस के कहने से माफ कैसे हो जाएंगे? जीसस कौन हैं? और उनके हाथ रखने से माफ हो जाएंगे? तो इस आदमी ने खून किया, उसका क्या होगा? हमने कहा कि आदमी पाप करे और गंगा में स्नान कर ले और मुक्त हो जाएगा। यह बिल्कुल पागलपन लगता है, क्योंकि इसने हत्या की है, चोरी की है, बेईमानी की है, गंगा में स्नान करके मुक्त कैसे हो जाएगा?
इसलिए अब यहां दो बातें समझ लेनी जरूरी हैं। एक तो यह कि पाप असली घटना नहीं है, स्मृति असली घटना है, स्मृति आपका पीछा करेगी कि पत्थर की तरह आपकी छाती पर पड़ी रहेगी। वह कृत्य तो गया, अनंत में खो गया। वह कृत्य तो अनंत ने संभाल लिया। सच तो यह है कि सब कृत्य अनंत के हैं। आप नाहक उसके लिए परेशान हैं। अगर चोरी भी हुई है आपसे तो भी अनंत के ही द्वारा आपसे हुई है। आप नाहक बीच में अपनी स्मृति लेकर खड़े हैं कि मैंने किया। अब यह मैंने किया और यह स्मृति आपकी छाती पर बोझ है।
तो जीसस कहते हैं, तुम कबूल करो, मैं तुम्हें माफ किए देता हूं, और जो जीसस पर भरोसा करता है वह पवित्र होकर लौटेगा। असल में जीसस पाप से तो मुक्त नहीं कर सकते, लेकिन स्मृति से मुक्त कर सकते हैं। स्मृति ही असली सवाल है। गंगा पाप से मुक्त नहीं कर सकती, लेकिन स्मृति से मुक्त कर सकती है। अगर कोई भरोसा लेकर गया है कि गंगा में डुबकी लगाते ही से सारे पाप से बाहर हो जाऊंगा, और ऐसा अगर उसके चित्त में और उसकी यादों की गठरियों में है तो उस समाज के, करोड़ों वर्ष की धारणा है कि गंगा में डुबकी लगाने से पाप से छुटकारा हो जाता है। पाप से छुटकारा नहीं होगा, चोरी को अब कुछ और नहीं किया जा सकता, लेकिन जब व्यक्ति पानी के बाहर निकलेगा तो प्रतीकात्मक कृत्य हो गया।