नई दिल्ली। कांग्रेस का इस लोकसभा चुनाव में उतना जोर नहीं दिखता है। भारतीय लोकतांत्रिक इतिहास में आज इसकी आयु 139 साल की हो चुकी है। देश में केंद्र की सत्ता और राज्यों में सबसे अधिक समय तक शासन करने का रिकॉर्ड इसके पास है, लेकिन आज यह अपने बूते खड़ा होते नहीं दिखती है। तमाम राज्यों में इसे अपने सहयोगी दलों की जरूरत पड़ती है। लोकसभा चुनाव 2024 के लिए इंडी अलायंस बना, तो कई राज्यों में सहयोगी दलों ने कांग्रेस को भाव नहीं दिया। पश्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस और पंजाब में आम आदमी पार्टी ने इसे झिड़क दिया। दिल्ली में किसी तरह आम आदमी पार्टी ने गठबंधन के तहत 3 सीट दिया। बिहार में राजद और लालू के आगे कई दौर की बैठकों के बाद दहाई का आंकड़ा में सीट ले पाईं।
ऐसे में सवाल उठता है कि कांग्रेस की यह स्थिति आखिर क्यां हुई ? जब सोनिया गांधी पार्टी की अध्यक्ष रही, तो केंद्र में यूपीए सरकार बनी और कांग्रेस नेता डॉ मनमोहन सिंह ही देश के प्रधानमंत्री बने। 2004 से लेकर 2014 तक वे प्रधानमंत्री रहे और कांग्रेस पूरे देश में अपनी धमक समय-समय पर दिखाती रही। मगर, 2014 के आम चुनाव में कांग्रेस केंद्र की सत्ता से क्या हारी, उसके बाद वह मुसीबतों से पार नहीं पा रही है।
राजनीतिक विश्लेषकों की रायशुमारी है कि कांग्रेस पार्टी को नेतृत्व में स्थायित्व और स्थायित्व की कमी का सामना कर रही है। कुछ समय से, पार्टी को अच्छे नेता की कमी महसूस की गई है जो पार्टी को समृद्धि की दिशा में ले सकें। कांग्रेस पार्टी ने कार्यकर्ताओं के संगठनात्मक उत्साह को बनाए रखने में कठिनाई का सामना किया है। इसके कारण पार्टी की क्षमता में कमी आई है जो उसे चुनावी प्रक्रिया में प्रभावी ढंग से शामिल होने में रोक रही है। कांग्रेस के नेतृत्व में विचारशीलता का अभाव भी है, जिसके कारण पार्टी को वर्तमान राजनीतिक परिस्थितियों के अनुरूप रणनीतिक उत्तर नहीं मिल पा रहे हैं। कुछ क्षेत्रों में कांग्रेस पार्टी को अपने बूट स्तर पर मजबूत नेतृत्व का अभाव महसूस किया गया है। यह क्षेत्रीय नेताओं की कमी पार्टी को स्थानीय स्तर पर उच्चाधिकारियों और वोटरों के बीच जुड़ाव बनाए रखने में अड़चनें पैदा करती है।
कांग्रेस को वर्षों तक दिल्ली सहित कई दूसरे प्रदेशों में कवर करने वाले कई वरिष्ठ पत्रकारों ने आपसी बातचीत में बताया था कि तक़रीबन 17 बरस पहले कांग्रेस में नए प्रयोगों का एक दौर बहुत तेज़ी से शुरू हुआ।इस काम की नींव में भले ही कितनी ही नेकनीयती रही हो, मगर इस उपक्रम का रेखाचित्र ड्राइंग बोर्ड पर शायद उतनी ऐहतियात से तैयार नहीं हुआ था और उस से कांग्रेस की नींव हिलने लगी। फिर 11 साल पहले इस रचना-काल का दूसरा चरण शुरू हुआ। इस चरण में कांग्रेस की नींव में खर-पतवार इकट्ठी होने लगी।कांग्रेस की पुनर्रचना का तीसरा चरण 7 साल पहले शुरू हुआ। क़रीब पांच साल पहले कांग्रेस की पतनगाथा में चौथे चरण का पन्ना जुड़ा और वह अंतरिम-काल के हवाले हो गई। सारे अहम फ़ैसले पेंडुलम पर लटक गए। डेढ़ बरस पहले कांग्रेस के पुनरुत्थान के पांचवे चरण की औपचारिक शुरुआत हुई है। इस मौजूदा चरण में मंचीय व्यवस्था और नैपथ्य व्यवस्था का रंगबिरंगापन कांग्रेस के गले की फांस बना हुआ है।
लोगों को यह कहने में अधिक दिक्कत नहीं है कि जब से कांग्रेस नेता राहुल गांधी को पार्टी ने अपना अध्यक्ष बनाया, उस समय से ही भाजपा नेता नरेंद्र मोदी ने इन पर जमकर सियासी हमला करना शुरू कर दिया। मीडिया और सोशल मीडिया के तमाम मंचों पर इस कदर पोस्ट किए गए कि राहुल गांधी की छवि एक पप्पू की बना दी गई। कई बार राहुल गांधी की अपनी एक्टिविटी इस बात को और अधिक बल देती रही। कांग्रेस के कई वरिष्ठ नेताओं ने गांधी परिवार खासकर सोनिया गांधी को समझाने की कोशिश की, लेकिन संभवतः पुत्रमोह के कारण सोनिया गांधी कड़े निर्णय नहीं ले पाई।
हाल ही में एक वरिष्ठ कांग्रेस नेता संजय निरूपम ने जब कांग्रेस पार्टी से अपना हर संबंध तोड़ा तो कहा कि कांग्रेस की दिक्कत अब यह है कि अब एक हाईकमान नहीं रहा। कई पावर सेंटर बन गए। बकौल, संजय निरूपम अब 5 पावर सेंटर हैं। सोनिया गांधी, राहुल गांधी, प्रियंका गांधी वार्डा, कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे और कांग्रेस के केंद्रीय महासचिव केसी वेणुगोपाल। दिक्कत ये है कि कोई भी पावर सेंटर आसानी से पार्टी कार्यकर्ताओं से नहीं मिलता है। एक की बात दूसरे को नहीं सुहाती है। ऐसे में कुछेक चंद लोग ही पार्टी की चलाते हैं और अपनी सुविधा के लिए ही जमीनी फीडबैक देते हैं, जिससे नुकसान किसी और का नहीं, बल्कि कांग्रेस का हो रहा है।