अनंत अमित
राष्ट्रपति पद के लिए इस बार देश में पहली बार किसी आदिवासी महिला का नाम आया है। इससे पहले भी देश नये व अभिनव प्रयोग कर चुका है। पहले देश में मुस्लिम राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम और दलित राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद रह चुके हैं। पहले मुस्लिम, फिर दलित और अब आदिवासी। लेकिन इन सबसे अलग हट कर इस बार के राष्ट्रपति चुनाव में जो सबसे अहम है वह यह है कि स्वतंत्रता के बाद से लेकर अब तक यह पहला मौका है जब देश की सबसे लंबे समय तक सत्ता में रहने वाली कांग्रेस पार्टी ने राष्ट्रपति चुनाव में कोई दिलचस्पी नहीं ली, किसी उम्मीदवार को खड़ा नहीं किया। इस संबंध में सवाल बहुत से हैं कि कांग्रेस ने क्यों ऐसा किया ? क्या कांग्रेस नेतृत्व ईडी में फंसा होने के चलते इससे बचता रहा या फिर उसे मालुम था कि वह चुनाव में अपने उम्मीदवार को नहीं जिता पायेगा। हालांकि यह सब सच्चाई जानते हुए भी इस बार विपक्ष की इस कोशिश को अंजाम दिया छोटे से दल तृणमूल कांग्रेस ने जिसका नेतृत्व पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने किया। लेकिन विपक्ष ने राष्ट्रपति पद के लिए जिस तरह की रणनीति अपनायी वह पूरी तरह से फेल कही जायेगी, क्योंकि विपक्ष ने न तो संख्या बल जुटाने के लिए कोई प्रयास किया, न ही ऐसा उम्मीदवार खड़ा किया जिस पर अन्य दलों को एकमत किया जा सके। विपक्ष ने अपने ख्ोमे से बाहर आकर अन्य दलों से संपर्क की भी कोई कोशिश नहीं की । ऐसे में यशवंत सिन्हा को खड़ा करके विपक्ष ने अपनी कमजोर, लचर नीति का तमाशा ही किया और सिन्हा को फिर असफलता के एक सोपान पर चढ़ा दिया।
कांग्रेस का मानना है कि यह कहना गलत है कि पार्टी ने राष्ट्रपति चुनाव के लिए उम्मीदवार तय करने में अपनी भूमिका नहीं निभाई, या वह ईडी के दबाव में फंसकर अपनी जिम्मेदारी भूल गई। दरअसल, राष्ट्रपति उम्मीदवार के मुद्दे पर तृणमूल कांग्रेस की ममता बनर्जी के सक्रिय होने से पहले ही इस मुद्दे पर शरद पवार, एमके स्टालिन और वामदलों से बातचीत शुरू हो चुकी थी। देश की आजादी से लेकर अब तक हुए सभी राष्ट्रपति चुनावों में कांग्रेस प्रमुख खिलाड़ी रही है। बड़ी राजनीतिक ताकत रहने पर उसने अपने उम्मीदवारों को चुनावी मैदान में उतारा और जिताया तो कुछ कमजोर होने पर गठबंधन दल के नेताओं से बातचीत कर एक साझा उम्मीदवार खड़ा किया और चुनाव में अपनी भूमिका अदा की। कांग्रेस ने एक बेहद महत्वपूर्ण मौके पर यह रुख तब अपनाया है जब वह खुद को मजबूत करने की हर संभव कोशिश करने की बात कहते हुए देखी जाती है। उदयपुर चितन शिविर में भी पार्टी को दोबारा मजबूत भूमिका में लाने के लिए जमीनी संघर्ष करने और लोगों से जुड़ने की बात कही गई थी। पार्टी नेताओं खासकर राहुल गांधी और प्रियंका गांधी को तमाम अहम सवालों पर संघर्ष करते हुए देखकर लगता भी है कि वे अपने मकसद को लेकर गंभीर हैं। तब ऐसे महत्त्वपूर्ण अवसर पर पार्टी ने बैकसीट पर बैठना क्यों स्वीकार किया।
वर्तमान गणित से साफ है कि राष्ट्रपति चुनाव में एनडीए की उम्मीवार द्रौपदी मुर्मू की जीत तय है, लेकिन इसके बाद भी यदि कांग्रेस ने अपना उम्मीदवार घोषित किया होता, या विपक्ष के साझा राष्ट्रपति उम्मीदवार तय करने में प्रमुख भूमिका निभाई होती, तो इसके बहाने वह लगातार चर्चा में रहती। इस समय पार्टी के लिए लगातार सक्रिय बने रहना और मीडिया में चर्चा में बने रहना भी जरूरी है। यदि सहयोगी दलों को विश्वास में लेकर सिन्हा को राष्ट्रपति उम्मीदवार घोषित किया जाता, तो इसके बहाने मीडिया में खूब चर्चा होती। विपक्ष में मजबूती से आवाज उठाते रहने से मतदाताओं में पार्टी के लगातार सक्रिय रहने का संदेश दिया जा सकता था। चूंकि विपक्षी दल भी जानते हैं कि यह लड़ाई प्रतीकात्मक मात्र रह गई है, लिहाजा उनके पास कांग्रेस के इस दावे को नकारने का कोई ठोस कारण न होता और वे सहमत भी हो जाते, लेकिन पार्टी ने यह अवसर गंवा दिया। संभवतया कांग्रेस ने तृणमूल कांग्रेस जैसे छोटे दलों की सक्रियता के सामने ‘आत्मसमर्पण’ कर दिया। उसके लिए यह स्वयं मुख्य विपक्षी दल की भूमिका से पीछे हटने पर अपनी सहमति देने जैसा है। पार्टी के भविष्य को लेकर यह बहुत सकारात्मक संदेश नहीं कहा जा सकता। पार्टी को 2०24 के लोकसभा चुनाव में उसे इसका नुकसान हो सकता है। पता नहीं क्यों आज विपक्ष को लगता है कि वह मोदी को हरा ही नहीं सकता। हम सभी ने एक गांव के उस काल्पनिक बूढ़े की कहानी पढ़ी है, जिसने अपनी मृत्युशैय्या पर आपस में झगड़ रहे बेटों को बुलाया। हम जानते हैं कि आपस में लड़ रहे बेटे, जब डंडे की गठरी नहीं तोड़ पाए तो उन्हें किस तरह अपनी मूर्खता का अहसास हुआ और फिर उन्होंने ‘एकजुट’ होने का फैसला किया। अब आज के समय में इस कहानी को लेकर दो गंभीर सवाल उठते हैं, क्या बूढ़ा अपने बेटे और बेटियों को बुलाएगा। दूसरा, ज्यादा महत्वपूर्ण, प्रश्न है कि यदि बूढ़ा जिदगी का पाठ दिए बिना ही गुजर गया तो लड़ने वाले बेटे और बेटियों का क्या होगा ?
आज हालात कुछ ऐसे ही लगते हैं क्योंकि भारतीय जनता पार्टी की चार राज्यों में प्रो इनकम्बैंसी जीत ने मतदाताओं के सामने बीजेपी के खिलाफ ‘विश्वसनीय संयुक्त मोर्चा’’ की जरूरत को बढ़ा दिया है। साथ ही इसे बनाने में विपक्ष की काबिलियत पर दर्जनों सवाल उठाए हैं , क्योंकि इस मजबूत भाजपा का नेतृत्व नरेंद्र मोदी कर रहे हैं। पहला प्रश्न तो यही पूछना चाहिए कि क्या अनगिनत विपक्षी पार्टियां और नेता क्या सच में संयुक्त विपक्षी ताकत बनाना चाहते हैं ? बहुतों के मन में इसको लेकर शंका है। अगर जवाब ‘हां ‘ है तो दूसरा सवाल है कि फिर वैसा महा गठबंधन कैसे बनेगा जहां भारतीय मतदाताओं को लगे कि ये, भाजपा से अच्छी सरकार मुहैया करा सकती है ? चूंकि राजनीति में कुछ भी संभव है । एक वक्त में देश का प्रधानमंत्री बनने की चाहत रखने वाले (जब 1991 में कांग्रेस ने ज्यादा सेफ पी वी नरसिम्हा राव को चुना) सियासी चाल के माहिर ग्रैंडमास्टर शरद पवार बहुत सही बात कहते हैं कि इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि विधानसभा चुनावों में कौन सी पार्टी कितनी बड़ी जीत हासिल करती है, केंद्रीय स्तर पर बीजेपी से लड़ने और मोदी को चोट पहुंचाने के लिए बिना कांग्रेस को साथ लिए लड़ने का ख्याल भ्रामक है और जो ऐसा सोचते हैं उनको साल 2०24 में कुछ भी हासिल नहीं होगा।
याद रखिए इसी तरह का लचर ‘यूनाइटेड फ्रंट’ साल 2००9 में बीजेपी ने भी कांग्रेस के खिलाफ खड़ा किया था , नतीजा ये हुआ कि विनम्र मनमोहन सिह जैसे नेता ने भी कांग्रेस को 145 से बढ़ाकर 2०6 सीटों पर ले गए। मनमोहन सिह के कट्टर प्रशंसक भी मानते हैं मनमोहन सिह करिश्माई नेता नहीं थे, और चुनावी जादूगर तो बिल्कुल ही नहीं। अब जरा सोचिए करिश्माई मोदी क्या कुछ कर सकते हैं। कांग्रेस अभी भी बीजेपी से लोकसभा की 195 सीटों पर सीधी टक्कर में है, अगर इसमें केरल के 2० सीटों को भी जोड़ लें जहां बराबरी की लड़ाई हो तो आंकड़ा 215 पर पहुंच जाता है, जहां मुकाबले में कांग्रेस या तो नंबर वन रह सकती है या फिर नंबर टू। सिर्फ कांग्रेस को क्यों वंशवाद के लिए जिम्मेदार ठहराएं जबकि विपक्ष की लगभग सभी पार्टियां यही कर रही हैं । समाजवादी पार्टी, राष्ट्रीय लोकदल, राष्ट्रीय जनता दल, झारखंड मुक्ति मोर्चा, इंडियन नेशनल लोकदल, बीजू जनता दल, द्रविड़ मुनेत्र कषगम, तेलंगाना राष्ट्र समिति, शिवसेना, राष्ट्रीय कांग्रेस पार्टी, और शिरोमणि अकाली दल.और नेशनल कॉन्फ्रेंस पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी, सभी पार्टी के भीतर वंशवादी शासन ही चला रहे हैं. अभी तक सिर्फ आम आदमी पार्टी और लेफ्ट पार्टियां एक अपवाद हैं। मोदी ये जानते हैं और इसलिए उन्होंने इस चुनावी कैंपेन में विपक्ष के वंशवाद का मसला खूब उछाला।।
(लेखक राजनीतिक विश्लेषक हैं। ये उनके निजी विचार हैं।)