कृष्णमोहन झा
दिल्ली विधानसभा के चुनाव परिणाम 27 साल के बाद भाजपा के लिए सत्ता में वापसी का संदेश लेकर आए हैं। उसने दिल्ली विधानसभा की 70 सीटों में से 48 सीटें जीत कर सरकार बनाने के लिए आवश्यक बहुमत हासिल कर लिया है जबकि 2015 और 2020 के चुनावों में प्रचंड बहुमत के साथ सरकार बनाने वाली आम आदमी पार्टी मात्र 22 सीटों पर सिमट कर रह गई है।आम आदमी पार्टी के संयोजक और पूर्व मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल तथा पूर्व उपमुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया, पार्टी के वरिष्ठ नेता सौरभ भारद्वाज, सत्येन्द्र जैन, सोमनाथ भारती सहित अनेक दिग्गज अपनी सीट बचाने में सफल नहीं हो पाए लेकिन मुख्यमंत्री आतिशी मार्लेना ने भाजपा उम्मीदवार पूर्व सांसद रमेश विधूड़ी को कालकाजी सीट पर हराकर चुनाव जीत लिया।कांग्रेस को तो सदन की 70 में से एक भी सीट के मतदाताओं ने जीत का स्वाद चखने का मौका नहीं दिया। संदीप दीक्षित और अलका लांबा जैसे दिग्गज कांग्रेसी नेताओं को भी शर्मनाक हार का सामना करना पड़ा। दिल्ली विधानसभा के चुनाव परिणामों पर अपनी प्रतिक्रिया में जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने कहा है- ‘और लड़ो आपस में’। मतलब साफ है कि दिल्ली विधानसभा चुनावों में भाजपा की शानदार विजय के लिए उमर अब्दुल्ला आम आदमी पार्टी और कांग्रेस की आपसी लड़ाई को बहुत बड़ा कारण मानते हैं। गौरतलब है कि इंडिया गठबंधन में कांग्रेस ,आम आदमी पार्टी और उमर अब्दुल्ला की नेशनल कांफ्रेंस भी शामिल है। इंडिया गठबंधन के दो प्रमुख दलों तृणमूल कांग्रेस और समाजवादी पार्टी ने इन चुनावों में आम आदमी पार्टी को समर्थन प्रदान किया था। चुनाव अभियान के दौरान आम आदमी पार्टी और कांग्रेस ने एक दूसरे पर जो तीखे हमले किए उसे इंडिया गठबंधन के बाकी घटक दलों ने पसंद नहीं किया। दिल्ली विधानसभा का यह चुनाव यूं तो मात्र एक केंद्र शासित प्रदेश की विधानसभा का चुनाव था परन्तु इन चुनावों ने सारे देश की जनता का ध्यान आकर्षित किया था। सारे देश की नजरें दिल्ली विधानसभा के चुनाव परिणामों पर टिकी हुई थीं। भाजपा ने 27 साल बाद जिस तरह शानदार विजय के साथ दिल्ली प्रदेश की सत्ता में वापसी की है उसने एक बार फिर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की करिश्माई लोकप्रियता पर मुहर लगा दी है। केजरीवाल को तीन हजार से भी अधिक वोटों से हराने वाले भाजपा उम्मीदवार और पूर्व सांसद प्रवेश वर्मा संभवत: दिल्ली के नये मुख्यमंत्री बन सकते हैं।
दिल्ली के पिछले तीन विधानसभा चुनावों की भांति ही इन चुनावों में भी आम आदमी पार्टी के चुनाव अभियान की बागडोर पार्टी के राष्ट्रीय संयोजक और पूर्व मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ही थामे हुए थे। दिल्ली के मुख्यमंत्री की कुर्सी पर अपनी विश्वास पात्र आतिशी मार्लेना को बिठाने के अरविंद केजरीवाल पूरी तरह से चुनाव प्रचार में जुट गए थे। पार्टी ने चुनाव के लिए जो गीत जारी किया था उसमें भी केजरीवाल का ही महिमा मंडन किया गया था परन्तु इस बार उनके आभामंडल की चमक फीकी दिखाई दे रही थी। भाजपा के अलावा कांग्रेस पार्टी ने भी इन चुनावों में अपनी पूरी ताकत झोंक कर चुनावों को त्रिकोणीय मुकाबले में बदल दिया था। खुद केजरीवाल के लिए नई दिल्ली सीट जीतना टेढ़ी खीर साबित हो रहा था। उनके खिलाफ कांग्रेस के पूर्व सांसद संदीप दीक्षित और भाजपा के पूर्व सांसद प्रवेश वर्मा चुनाव मैदान में थे। गौरतलब है कि संदीप दीक्षित की मां स्वर्गीय शीला दीक्षित और प्रवेश वर्मा के पिता स्वर्गीय साहिब सिंह वर्मा भी अतीत में कांग्रेस और भाजपा शासन काल में दिल्ली के मुख्यमंत्री पद पर आसीन थे। केजरीवाल ने अपनी रैलियों में और पत्रकार वार्ताओं में अपने दोनों प्रतिद्वंद्वी दलों भाजपा और कांग्रेस पर आरोप लगाने में कोई कोई कसर नहीं छोड़ी। कांग्रेस और भाजपा भी अपनी रैलियों में केजरीवाल और आम आदमी पार्टी सरकार को कठघरे में खड़ा करते रहे। इसमें कोई संदेह नहीं कि यमुना की सफाई, प्रदूषण, सड़क जैसे मुद्दों पर केजरीवाल और आम आदमी पार्टी की सरकार बचाव की मुद्रा में थी। यमुना की सफाई का वादा पूरा न कर पाने के लिए केजरीवाल ने दिल्ली की जनता से माफी मांगने भी मांगी। यमुना के पानी में जहर मिलाने का जो आरोप उन्होंने हरियाणा सरकार पर लगाया वह मनगढ़ंत आरोप केजरीवाल के लिए ही मुसीबत बन गया।उस आरोप के लिए उन्हें भाजपा और कांग्रेस दोनों से तीखी आलोचना सहनी पड़ी। केजरीवाल के इस पास इस सवाल का कोई जवाब नहीं था कि इस तरह का आरोप उन्होंने चुनाव के पहले क्यों नहीं लगाया। कथित शराब घोटाले में आम आदमी पार्टी के बड़े नेताओं की गिरफ्तारी ने भी पार्टी की छवि को धूमिल करने में अहम भूमिका निभाई। आम आदमी की सच्ची हितैषी होने का दावा करने वाली आम आदमी पार्टी की सरकार के मुख्यमंत्री के रूप में अरविंद केजरीवाल की कथित रूप से विलासिता पूर्ण जीवन शैली को लेकर भाजपा और कांग्रेस ने जो हमले किए उनको गलत साबित करने के लिए केजरीवाल मतदाताओं को कोई सफाई पेश नहीं कर पाए। दिल्ली में खुद को और अपनी पार्टी को अजेय मानकर चुनाव मैदान में उतरना भी केजरीवाल को महंगा साबित हुआ। इसके अलावा चुनाव मैदान में कांग्रेस की पूरी दमखम के साथ अपनी मौजूदगी ने भी केजरीवाल की मुश्किलों में इजाफा किया। कांग्रेस को यह अच्छी तरह मालूम था कि अगर आम आदमी पार्टी सत्ता से बाहर होती है तो दिल्ली में भाजपा की ही सरकार बनेगी उसके बावजूद कांग्रेस का पूरा चुनाव प्रचार आम आदमी पार्टी और केजरीवाल के विरोध पर ही केन्द्रित था। कांग्रेस भले ही दिल्ली विधानसभा के चुनाव में खाता न खोल पाई हो परंतु आम आदमी पार्टी और केजरीवाल की पराजय से उसे यह लाभ अवश्य हो सकता है कि इंडिया गठबंधन में राहुल गांधी के नेतृत्व को केजरीवाल की ओर से कोई चुनौती नहीं दी जा सकेगी लेकिन एक सवाल यह भी उठता है कि दिल्ली विधानसभा चुनावों में जिस कांग्रेस ने आम आदमी पार्टी को हराने के लिए पूरी ताकत लगा दी थी वह रणनीति आगे चलकर कहीं केजरीवाल की आम आदमी पार्टी और इंडिया गठबंधन के बीच नयी कड़वाहट का कारण तो नहीं बन जाएगी।
अब जबकि चुनाव परिणामों से यह स्पष्ट हो गया है कि दिल्ली में 27 साल के बाद भाजपा सत्ता में वापसी कर रही है तब केजरीवाल को यह चिंता अवश्य सता रही होगी कि दिल्ली की सत्ता से आम आदमी पार्टी की विदाई उसके बिखराव का कारण बन सकती है।न तो वे खुद चुनाव जीत पाए,न ही उनकी पार्टी को इतनी सीटें मिली हैं कि वह विधानसभा में सशक्त विपक्ष की भूमिका निभाने में सफल हो सके । इन चुनावों में केजरीवाल की पराजय और आम आदमी पार्टी के पराभव ने समूची पार्टी के भविष्य पर ही प्रश्न चिन्ह लगा दिया है।यह कहना भी गलत नहीं होगा कि दिल्ली विधानसभा के चुनाव परिणाम पंजाब की आम आदमी पार्टी सरकार के स्थायित्व को भी प्रभावित कर सकते हैं। सबसे बड़ी बात यह है कि अरविंद केजरीवाल अब आम आदमी पार्टी के अंदर एकछत्र नेता के रूप में अपना वर्चस्व कायम रखने में सफल नहीं हो पाएंगे।
(लेखक राजनैतिक विश्लेषक है)