केजरीवाल की कलई खुलते ही भरभरा कर गिरी दिल्ली में ‘आप’

 

 

डॉ धनंजय गिरि

दिल्ली में हुए हालिया चुनावों के नतीजों ने एक महत्वपूर्ण राजनीतिक संदेश दिया है – सत्ता में अहंकार और जनता की अनदेखी स्थायी नहीं हो सकती। इस चुनाव में जनता ने अपने फैसले से यह साबित कर दिया कि लोकतंत्र में अंतिम निर्णय आम जनता का ही होता है। दिल्ली विधानसभा चुनाव 2025 का परिणाम आ गया। 26 साल बाद भारतीय जनता पार्टी की जहां दिल्ली में सत्ता मिली, वहीं आम आदमी पार्टी के लिए करीब 13 साल बाद यमुना किनारे सचिवालय में सत्ताधारी दल के रूप में प्रवेश का अधिकार छिन गया। इसके इत्तर कांग्रेस को भले ही एक भी सीट नहीं मिला।

चुनाव परिणामों से यह साफ हो गया है कि कोई भी दल या नेता अगर जनता से दूरी बना लेता है और जमीनी मुद्दों को नजरअंदाज करता है, तो उसे हार का सामना करना पड़ सकता है। दिल्ली के मतदाताओं ने न सिर्फ अपने मुद्दों को प्राथमिकता दी बल्कि यह भी दिखाया कि वे किसी भी प्रकार के अहंकार को स्वीकार नहीं करेंगे। यह चुनाव जनता और सत्ता के बीच के समीकरण को परिभाषित करने वाला साबित हुआ है। जनहित की अनदेखी और सिर्फ सत्ता बनाए रखने की राजनीति अब ज्यादा दिनों तक सफल नहीं हो सकती।
जिस आम आदमी पार्टी ने खुद को अजेय समझ रखा था, उसे इस चुनाव में भारी निराशा का सामना करना पड़ा है। वहीं, भारतीय जनता पार्टी ने स्पष्ट बहुमत हासिल कर सरकार बनाने का रास्ता साफ कर दिया है।

अगर चुनाव परिणामों का विश्लेषण किया जाए, तो यह स्पष्ट होता है कि आम आदमी पार्टी को सबसे अधिक नुकसान कांग्रेस के कारण हुआ, जिससे विपक्ष के वोट बंट गए। इसका मतलब यह भी है कि पिछले चुनाव में आम आदमी पार्टी को जो अप्रत्याशित समर्थन मिला था, वह पूरी तरह से पार्टी और उसके नेताओं के प्रति विश्वास का परिणाम नहीं था। कहा जाता है कि अगर पिछली बार कांग्रेस का आंतरिक समर्थन न मिला होता, तो आम आदमी पार्टी इतनी तेजी से राजनीतिक मंच पर अपनी पहचान नहीं बना पाती।

यह भी महत्वपूर्ण है कि जो दूसरों की ताकत से चमकते हैं, उनकी चमक ज्यादा समय तक टिकती नहीं। केजरीवाल की आम आदमी पार्टी की स्थिति भी कुछ ऐसी ही रही। जहां तक पंजाब में सरकार बनाने की बात है, तो यह कहना उचित होगा कि वहां चुनाव के दौरान दिल्ली की योजनाओं को बड़े स्तर पर प्रचारित किया गया, जिससे आम आदमी पार्टी को राजनीतिक लाभ मिला।

दिल्ली विधानसभा चुनाव परिणामों के विश्लेषण से यह स्पष्ट होता है कि अरविंद केजरीवाल ने कांग्रेस को आईना दिखाने के प्रयास में खुद ही भारी नुकसान उठा लिया। यदि वे कांग्रेस के साथ गठबंधन कर लेते, तो चुनावी नतीजे बिल्कुल अलग हो सकते थे। लेकिन उनका अहंकार ही उनके लिए सबसे बड़ी बाधा बन गया।

एक समय अरविंद केजरीवाल ने सार्वजनिक रूप से कहा था, “मोदी जी, इस जन्म में तो आप आम आदमी पार्टी को दिल्ली में हरा नहीं सकते।” इस तरह के बयान से उनके अहंकार की झलक मिलती थी। दूसरी ओर, उन पर लगे भ्रष्टाचार के गंभीर आरोपों को लेकर भी उन्होंने हमेशा भाजपा पर निशाना साधा, जबकि इन मामलों की जांच एजेंसियों और सर्वोच्च न्यायालय ने की थी। उन्हें जेल भेजने का निर्णय भी न्यायालय का था, लेकिन उन्होंने आरोप भाजपा पर ही लगाए। दिल्ली की जनता ने उनकी इस रणनीति को नकार दिया और इसे झूठा प्रचार माना।

अरविंद केजरीवाल यह भूल गए कि भारतीय जनता पार्टी का दिल्ली में मजबूत राजनीतिक आधार है। लोकसभा चुनाव में भाजपा ने दिल्ली की सभी सीटें जीतकर इस प्रभाव को साबित भी किया था। भले ही विधानसभा में भाजपा को उतनी सफलता न मिली हो, लेकिन इससे उसके राजनीतिक प्रभाव को नकारा नहीं जा सकता।

इस चुनाव में भाजपा ने आम आदमी पार्टी की रणनीति को अपनाते हुए उसी के अंदाज में मुकाबला किया। “लोहे को लोहे से काटने” की नीति पर चलते हुए भाजपा ने अंततः इस चुनावी जंग में बाजी मार ली। इस बार दिल्ली चुनाव में आधुनिक संचार तकनीक के व्यापक उपयोग ने अरविंद केजरीवाल की कथनी और करनी के अंतर को स्पष्ट कर दिया। केजरीवाल अपने विचारों में स्थिर नजर नहीं आए और अक्सर विरोधाभासी बयान देते रहे। यमुना को साफ करने के वादे बार-बार दोहराने का नतीजा यह हुआ कि आम आदमी पार्टी के नेता अरविंद केजरीवाल को इस मुद्दे पर जनता के आक्रोश का सामना करना पड़ा।

वादे करना आसान होता है, लेकिन उन्हें निभाना उतना ही चुनौतीपूर्ण। केजरीवाल ने इस चुनाव में भी वही वादे किए, जो उन्होंने दस साल पहले किए थे। इनमें सबसे बड़ा वादा यमुना की सफाई का था, जो अब तक अधूरा है।

भ्रष्टाचार खत्म करने के उद्देश्य से बनी आम आदमी पार्टी के नेता अरविंद केजरीवाल खुद भ्रष्टाचार के आरोप में जेल जा चुके हैं। स्थिति तब और गंभीर हो गई जब उन्होंने जेल से ही सरकार चलाने की कोशिश की। सर्वोच्च न्यायालय ने उनकी जमानत के समय यह स्पष्ट कर दिया कि केजरीवाल मुख्यमंत्री कार्यालय में नहीं जा सकते और न ही किसी फ़ाइल पर हस्ताक्षर कर सकते हैं। भ्रष्टाचार के आरोपों के कारण उनका मुख्यमंत्री पद पर बने रहना भी मुश्किल हो गया। अगर वे चुनाव जीतते भी, तो बिना किसी अधिकार के मुख्यमंत्री बनकर रह जाते।

इस चुनाव में केजरीवाल के राजनीतिक गुरु माने जाने वाले समाजसेवी अण्णा हजारे भी उनसे खफा दिखे। विरोधियों ने इसे एक प्रभावी राजनीतिक हथियार के रूप में इस्तेमाल किया, जो केजरीवाल के खिलाफ प्रभावी साबित हुआ।

आगे आने वाले चुनावों के लिए भी यह एक सबक है कि सत्ता किसी की जागीर नहीं होती और जो भी जनता की उम्मीदों पर खरा नहीं उतरेगा, उसे जनता नकारने से पीछे नहीं हटेगी।