आने वाला 9 दिसंबर बेहद खास दिन होगा। खासकर देश की राजधानी दिल्ली के लिए। जिस प्रकार से किसानों का आंदोलन जारी है और सरकार भी अपने कहे पर कायम है, उसके बीच अगले दौर की बातचीत के लिए 9 दिसंबर की तारीख रखी गई है। किसान संगठनों और सरकार के बीच शनिवार को हुई पांचवें दौर की बातचीत हां या ना पर अटककर बेनतीजा समाप्त हो गई। पिछली वार्ता में बनी सहमति के बिंदुओं को भी किसान नेताओं ने नकार दिया। अब वे कृषि सुधार के तीनों कानूनों को समाप्त करने की अपनी मांग पर अड़े रहे।
भारतीय किसान यूनियन के नेता राकेश टिकैत की ओर से कहा गया कि सरकार वार्ता को लंबा खींचकर थकाना चाहती है, लेकिन किसान कहां थकने वाले हैं। किसान संगठन आठ दिसंबर को भारत बंद के अपने फैसले पर अडिग हैं। सरकार चाहती थी कि छठवें दौर की बैठक सात दिसंबर को हो, लेकिन किसानों ने इसे नौ दिसंबर के लिए आगे बढ़ा दिया।
दरअसल, तीन महिनों में पंजाब-हरियाणा के किसानों में यह हवा बन गई है कि नरेंद्र मोदी के बनाए कृषि कानून खेती और फसल को अंबानी-अदानी-कॉरपोरेट का बंधुआ बनवाने के दीर्घकालीन मकसद के है। इसलिए किसान तीनों कानून को खत्म कराने की जिद्द ठान बैठे है। दिल्ली को घेर कर बैठने से पूरे देश में किसानों को जो मैसेज गया है और उससे भी आंदोलन का रूप किसान बनाम अंबानी-अदानी-कॉरपोरेट के संर्घष में जैसे बदला है तो किसान संगठन शायद ही कृषि कानूनों के पूरे खात्मे से कम पर राजी हो।
जानकार कहते हैं कि नरेंद्र मोदी किसी सूरत में इन कृषि कानूनों को रद्द करने को तैयार नहीं होंगे। तो क्या किसानों को वे कानूनों की निरंतरता के बीच उनकी एमएसपी पर वादे, फसल खरीददारों के रजिस्ट्रेशन, एसडीएम की बजाय अदालत में सुनवाई जैसी शर्तों को मानने की घोषणा, वचनबद्धता से मना लेंगे?
अगर सरकार ने खास कर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने तीनों कृषि विधेयकों को प्रतिष्ठा का मुद्दा नहीं बनाया होता या सार्वजनिक मंचों से इतना जोर देकर इसकी तरफदारी नहीं की होती तो सरकार को किसानों को समझाने और इसमें बदलाव करने में आसानी होती। आखिर इतने धूम-धड़ाके से बने वस्तु व सेवा कर यानी जीएसटी कानून में दर्जनों बार बदलाव हो चुका है तो कृषि विधेयकों में भी बदलाव कोई बड़ी बात नहीं थी।
सरकार की ओर से किसानों की बुनियादी आपत्तियों का जवाब दिया गया। केंद्रीय कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर ने दो टूक अंदाज में कहा कि न्यूनतम समर्थन मूल्य यानी एमएसपी की व्यवस्था को छुआ भी नहीं जाएगी और वह पहले की तरह चलती रहेगी। किसान चाहते हैं कि इस बात को कानून का हिस्सा बनाया जाए। सरकार को इसमें आपत्ति नहीं होगी कि वह एमएसपी की व्यवस्था को अनिवार्य बनाने की बात कानून में शामिल कर दे। हरियाणा की उसकी सहयोगी पार्टी जजपा ने भी इसी की मांग की है। उनको लग रहा है कि इससे किसानों की एक बड़ी मांग पूरी हो जाएगी।