रमेश शर्मा
पिछले दिनों सिने संसार या चित्रपट जगत से संबंधित तीन बड़ी घटनायें सामने आईं । इनमें से एक ने हल्का ध्यानाकर्षण किया जबकि दो को प्रचार माध्यमों में बहुत स्थान मिला । पहली घटना एक अंडरवियर के विज्ञापन की थी । इस विज्ञापन प्रस्तुतिकरण इतना अशिष्ठ था कि उसने मर्यादा की सभी सीमाएँ तोड़कर अपने उत्पाद का प्रचार किया था । जबकि दूसरी घटना कश्मीरी पंडितों की वेदना पर बनी फिल्म है । इस फिल्म पर जन भावनाओ की अभिव्यक्ति ने मानों आकाश को भी गुंजा दिया और तीसरी घटना चित्र भारती द्वारा भोपाल में आयोजित तीन दिवसीय सिने उत्सव जिसमेँ देश के मूर्धन्य विचारकों ने फिल्म निर्माण की महत्ता, दशा और दिशा पर अपने विचार रखे । इन तीनों घटनाओं ने दो बातें स्पष्ट कीं हैं । एक यह कि सिने संसार के भीतर कुछ लोग हैं जो अपने उत्पाद का प्रचार तो करना चाहते हैं पर इस बहाने वे मनौवैज्ञानिक स्तर पर जन भावनाओं भ्रमित भी करना चाहते हैं । इस विज्ञापन का विरोध हुआ, वह रुका उसके स्थान पर दूसरा आया पर उसमें भी उतनी शिष्ठता नहीं थी जितनी अपेक्षित थी । यही बात विज्ञापन निर्माण जगत में सक्रिय कुछ लोगों की मानसिकता पर संदेह उत्पन्न करती है ।
दूसरी घटना फिल्म कश्मीर फाइल्स को देखने के उमड़ी अपार भीड़ और उसपर प्रतिक्रिया है । इस फिल्म ने जन चर्चा के सभी रिकार्ड तोड़े । इससे पहले फिल्मों के प्रचार केलिये योजना पूर्वक कुछ जन चर्चा उछाली जाती थी । ऐसे कुछ प्रकरण समय समय पर प्रशासन के सामने भी आये हैं । ताकि चर्चा बने और फिल्मों के दर्शक बढ़े । किंतु कश्मीर फाइल्स पर जन भावनाओं की सहज प्रतिक्रियाओं का ज्वार आया । यद्यपि कुछ लोगों ने इन भावनाओं के विरुद्ध भी वातावरण बनाने का प्रयत्न किया । कुछ प्रश्न उठाकर दिशा बदलने का प्रयास किया । किंतु उसका कोई प्रभाव नहीं पड़ा और फिल्म ने पिछले सभी कीर्तिमान मान ध्वस्त किये । इन दो घटनाओं से यह तो स्पष्ट हुआ कि लगभग बारह सौ वर्षों से दमित भारतीय जन भावनाओं की मौलिकता क्या है । और यह प्रश्न भी उठा कि इस मौलिकता या जन अभिव्यक्ति के रचनात्मक प्रस्तुति का भविष्य में मार्ग क्या होना चाहिए ? इन प्रश्नों का समाधान चित्र भारती के इस तीन दिवसीय सिने उत्सव ने दिया । निसंदेह चित्र भारती का यह सिने उत्सव भविष्य में फिल्म निर्माण की दिशा में एक मील का पत्थर साबित होगा । चित्र भारती के आयोजन से एक ओर जहाँ फिल्म निर्माण की दिशा में सकारात्मक और सांस्कृतिक वातावरण निर्माण का मार्ग प्रशस्त होगा, फिल्मों के माध्यम से समाज जीवन के सांस्कृतिक विचार भाव की अभिव्यक्ति को दिशा मिलेगी लेगी होगी और वहीं उस मानसिकता पर थोड़ा बहुत विराम अवश्य लगेगा जो अपवाद स्वरूप घटीं कुछ घटनाओं अथवा योजना पूर्वक कूटरचित संदर्भों के आधार पर फिल्में बनाकर भारतीय समाज जीवन में परंपराओं और भारतीय मानविन्दुओं के प्रति अनास्था का वातावरण बनाने के काम में लगे हैं ।
भारतीय जीवन में फिल्मों का प्रभाव संसार में सबसे अधिक है । दुनियाँ के दूसरे देशों में फिल्में केवल मनोरंजन का माध्यम भर होतीं हैं । लोग देखते हैं और उसकी कथा पटकथा को वहीं छोड़कर चल देते हैं । वहाँ फिल्में जीवन की विचार शैली को प्रभावित नहीं करतीं और न वहाँ के लोग फिल्मी कलाकारों के पीछे उतने दीवाने होते हैं जितने भारत में । भारत में फिल्में केवल मनोरंजन का साधन नहीं हैं । फिल्में सामाजिक वातावरण भी बनातीं हैं । विशेष कर युवा पीढ़ी की विचार शैली को प्रभावित भी करतीं है । यह फिल्मी प्रचार ही तो है कि जोधा बाई और अकबर की जोड़ी के किस्से लोगों की जुबान पर हैं जबकि इतिहास में कोई जोधाबाई पैदा ही नहीं हुई । इतिहास प्रसिद्ध आमेर की जो राजकुमारी अकबर के हरम में पहुँची थी वह षडयंत्र और बलपूर्वक विवश करके ले जाई गई थी, लेकिन इस विषय पर बनीं फिल्मों और सीरियल ने क्या-क्या मानस बनाये यह सबके सामने है । सिने जगत में कुछ ऐसे निर्माता हैं जो इतिहास के सत्य पर परदा जलाकर कूटरचित तथ्य को स्थापित करने और भारतीय समाज में वैमनस्यता फैलाने में सहायक बनीं । साम्यवाद के जन्मदाता काल मार्क्स ने कभी कहा था कि भारत में वर्ग संघर्ष नहीं वर्ण संघर्ष हो सकता है । पता नहीं कितना सच है पर कुछ फिल्मों की पटकथा देख कर लगता है कि क्या कुछ फिल्मों ने इस दिशा में काम किया है ?
बीच के दौर की कुछ फिल्मों को देख लीजिये उनमें भारतीय वर्ण व्यवस्था पर बहुत प्रश्न उठाये गये । उन्हें विकृत करके प्रस्तुत किया गया । किसी पंडे पुजारी के पात्र की ऐसी प्रस्तुतियाँ की गयीं मानों यह समूह अज्ञानी, लालची, भोले लोगों को भ्रमित करने वाला है, किसी ठाकुर को ऐसा प्रस्तुत किया मानों वह स्त्री शराब और लोगों को लूटने के काम में ही लगा रहता है । एक फिल्म तो ऐसी बनी जिसमें बाकायदा कोई चिल्लाता है कि “ठाकुर आया* और लोग घरों में छिप जाते हैं । वहीं किसी व्यापारी को बही खातें बदलने वाला जमीन हड़पने वाला प्रस्तुत किया गया । एक बात और यदि किसी विवश माता को अपने शिशु को छोड़ना हो तो वह चर्च के सामने लगे पालने में चुपचाप छोड़ जाती है । पता नही सच क्या है पर यह संदेह अवश्य होता है कि क्या सिने संसार में कोई समूह ऐसा है जिसमें साम्यवादी विचार और चर्च समर्थक मानस की युति है । चूंकि साम्यवादी विचार ने भारत में वर्ण संघर्ष की नींव रखी और चर्च कै अभियान ने पीड़ित समूह में मतान्तरण की । सच जो हो पर प्रथम दृष्टया यही संदेह प्रबल होता है ।
यह फिल्मी कलाकारों की प्रसिद्धि का योजना पूर्वक प्रचार ही है कि यदि महानायक की बात हो तो लोग किसी राष्ट्र नायक या राष्ट्र के लिये किसी बलिदानी का नाम ध्यान में नहीं आता । किसी न किसी फिल्मी कलाकार का चेहरा ही उभरता है । भारतीय समाज ने अपनी भावुकता और भोलापन से बार बार धोखे खाये हैं । मोहम्मद बिन कासिम के हमले से लेकर चीन की चालाकियों तक, इतिहास धोखे से भरा हुआ है । कयी बार लगता है कि भारतीय समाज के इस भोलेपन का लाभ उठाने और भारतीय समाज के मनो विचार को बदलने, परंपराओं को विकृत करने केलिये कुछ लोग फिल्म जगत में सक्रिय हो गये हैं । यह फिल्मों का ही तो प्रभाव है कि भारतीय समाज जीवन में भारतत्व कमजोर होने लगा । लोग परंपराओं से भाग कर आधुनिकता की दौड़ के नाम दिग्भ्रमित हो रहे हैं । अनेक फिल्में ऐसी हैं जिनमें समाज को बांटने और परस्पर द्वेष की भावना को बल मिला है । आधुनिकता के नाम पर वस्त्र विन्यास की गरिमा को कम करने का काम फिल्मों से ही हुआ है । हालांकि फिल्म आरंभ होने के पहले एक सूचना आती है कि यह फिल्म मनोरंजक के लिये है,कथा पटकथा कल्पनाशीलता है । इससे ऐसी फिल्में कानूनी दायरे से बाहर तो हो जातीं हैं किंतु उनकी प्रस्तुति ऐसी होती है जो युवाओं को मानस को प्रभावित किये बिना नहीं रहतीं ।
ऐसे वातावरण में भोपाल में यह तीन दिवसीय सिने उत्सव हुआ । इस उत्सव की विशेषता यह रही कि इसके शुभारंभ और समापन में ही नामचीन अतिथि आये ।
शुभारंभ के लिये सिने कलाकार अक्षय कुमार और समापन के लिये केन्द्रीय मंत्री एस मरुगन आये । यदि तीनों दिन की कुल कार्यवाही या सक्रियता को जोड़े तो यह कुल लगभग तीस घंटे बैठती है । अर्थात उद्घाटन और समापन के समय को निकाल दें तो विचार मंथन के कुल समय लगभग पच्चीस घंटे होते हैं । इन पच्चीस घंटों में विभिन्न विषय विशेषज्ञों ने अपने विचार रखे । इन विचारकों में समाज सेवी, भारतीय संस्कृति के यथार्थ स्वरूप, फिल्म निर्माण की तकनीक, समय और समाज के सामने आने वाली चुनौतियां, इतिहास के वास्तविक स्वरूप, मीडिया की भूमिका और महत्ता के साथ फिल्मों के माध्यम से कैसे समाज में व्यक्ति निर्माण, समाज निर्माण और राष्ट्र निर्माण का संदेश जाये । इन सब विषयों पर खुलकर और शोध परख व्याख्यान आये । ये दोनों प्रकार के थे । सिने संसार से संबंधित तो थे ही साथ ही सोशल मीडिया के माध्यम से अति लघु एवं वृतचित्र का यथार्थ परक स्वरूप क्या हो यह विषय भी आया ।
संभवतः देश में यह पहला अवसर है जब फिल्म निर्माण से संबंधित विषयों की समीक्षा ही नहीं वर्तमान स्वरूप और भविष्य की दिशा पर एक कार्यशाला हुई । यद्यपि इस तीन दिवसीय आयोजन का नाम फिल्मोत्सव दिया गया था । इसमें समझाने के लिये कुछ फिल्मों का भी प्रदर्शन हुआ । किंतु ये फिल्में मनोरंजन या उत्सव आनंद के लिये नहीं वहाँ उपस्थित जिज्ञासुओं को समझाने के लिए थीं । मानों सैद्धांतिक व्याख्यान का प्रयोगात्मक प्रस्तुति हो । हो सकता है वर्तमान समय की कुछ फिल्मों में विसंगतियां इसलिये हों कि कोई दिशा निर्देशन न था । जिसके मन में जो आया उसने वह फिल्में बनाईं । फिल्म निर्माण की स्पर्धा और चर्चा में आने के लिये नकारात्मक प्रस्तुतियाँ की गईं हों । लेकिन चित्र भारती की इस पहल ने एक बीड़ा उठाया है कि कैसे सिने संसार में मनोरंजन के स्थ एक सकारात्मक प्रबल हो । राष्ट्र और संस्कृति पर आक्षेपात्मक प्रस्तुति के बजाय सकारात्मक और संदेशात्मक प्रस्तुतियाँ हों । निसंदेह इस दिशा में चित्र भारती का आयोजन सफल ही माना जायेगा ।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।)