आलोक कुमार
नई दिल्ली। प्रशांत किशोर और कांग्रेस। फिर अलग हो गए। लाज़िम सवाल है। क्या इससे कांग्रेस ने 2024 के चुनावी रण में मजबूत विपक्ष के तौर पर खुद को पेश करने का मौका गंवा दिया है। या, ऐसा कोई मौक़ा बचा ही नहीं। क्या दिन ब दिन कमज़ोर होती कांग्रेस में उठ खड़ी होने की आस खत्म सी हो गईं है। इसका उत्तर हां न दोनों है। जैसा कि राजनीति संभावनाओं का खेल है। कब किस मोड़ पर किसकी फितरत काम कर जाए, किसकी किस्मत चमक जाए निश्चित तौर पर कोई बता नहीं सकता। लिहाजा, नाज़ुक मोड़ से गुजर रही कांग्रेस पार्टी का क्या होगा,यह कोई नहीं बता सकता है। बताने की हिम्मत करने वाले जी 23 के नेता फिर बारी बारी से आलाकमान के आगे नतमस्तक होने लगे हैं।
बनते बिगड़ते डायनेमिज्म के बीच समझना जरूरी है कि कांग्रेस में ऐसा क्या है ? कि प्रशांत बार बार आते हैं। सलाहकार बन छाते हैं। रूठों को बहलाया जाता है। सत्ता पक्ष से टोन मिलाने वालों को वापस बुलाया जाता है। हाई पॉवर कमेटियां बनती हैं। सब बदल डालने की बात चलती है।
लिहाज़ा,कोटरी संकट में आ जाता है। किशोर की उपयोगिता सर्वोपरि हो जाती है। जबतक आलाकमान के पास होते हैं। स्थापित सिपहसलार की सांसे थम जाती है। सब हक्के बक्के रहते हैं। उनके कांग्रेस पार्टी में समाहित होने का जिक्र चलता है। फिर दाल नहीं गलती। सब फुस्स साबित हो जाता है। जनाब तलाक लेकर चले जाते हैं। इस बार के तलाक पर दो ट्वीट महत्वपूर्ण है।
कांग्रेस के मीडिया प्रभारी रणदीप सुरजेवाला ने 26 अप्रैल की शाम ट्वीट कर लिखा कि प्रशांत किशोर के साथ बैठक और चर्चा के बाद, कांग्रेस अध्यक्ष ने लोकसभा चुनाव 2024 को ध्यान में रखते हुए एक समिति का गठन किया था। प्रशांत किशोर को इस समिति के सदस्य के रूप में पार्टी में शामिल होने के लिए आमंत्रित किया था, लेकिन उन्होंने मना कर दिया।सुरजेवाला ने आगे कहा कि हम पार्टी को दिए गए उनके प्रयासों और सुझावों की सराहना करते हैं।
प्रशांत किशोर का तुरंत जवाबी ट्वीट आया,’मैंने एंपावर एक्शन ग्रुप के सदस्य के रूप में पार्टी में शामिल होने और चुनावों की जिम्मेदारी लेने के कांग्रेस के उदार प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया। मेरी विनम्र राय में, परिवर्तनकारी सुधारों के माध्यम से गहरी जड़ें जमाने वाली संरचनात्मक समस्याओं को ठीक करने के लिए पार्टी को मुझसे अधिक नेतृत्व और सामूहिक इच्छाशक्ति की आवश्यकता है।’
ताजा तलाक़ की घोषणा से पहले तक प्रशांत किशोर के व्यक्तिनिष्ठ जनता दल एकीकृत की तरह ही कांग्रेस पार्टी के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष या उससे भी ताकतवर पद पर सुशोभित हो जाने की आशंका निरंतर बनी रही। स्थापित सत्य है। किशोर आलाकमान की सियासी रक्षा का काम बखूबी करते हैं। जनता दल यू मिसाल है। एक वक्त आया तो उपाध्यक्ष प्रशांत किशोर ने “एक नेता, एक पद” की दुहाई देने वाले सिद्धांत को ताक पर रखवा दिया। गाजे बाजे के साथ शरद यादव से पार्टी अध्यक्ष की कुर्सी छीनकर अपने आका नीतिश कुमार को दिलवा दी।
कमोवेश यही बात कांग्रेस पार्टी में होने वाली थी। किशोर की सलाह पर अंदरुनी रस्साकशी में बाजी प्रियंका गांधी बढ़ेरा के हक़ में पलटनी है। उनको पार्टी अध्यक्ष की कुर्सी मिलनी है। राहुल के जिम्मे फिलहाल संसदीय दल के नेता की कमान और बुजुर्ग सोनिया गांधी के पास यूपीए चेयरपर्सन की कुर्सी भर रह जानी है। कांग्रेस पार्टी अपने चुनावी प्रक्रिया के चरण में है। अब जब प्रशांत से तलाक़ हो गया है,तो उनका सुझाव परवान चढ़ता है या नहीं। यह देखना दिलचस्प होगा।
याद रहे कि शरद-नीतीश में कभी दांत कटी रोटी वाली दोस्ती हुआ करती थी। प्रशांत के आते ही इसमें पलीता लगा। अटल सरकार की सत्ता के दिनों में शरद यादव जनता दल यू के अध्यक्ष तो थे मगर महासचिव रामविलास पासवान की तुलना में समता पार्टी के नीतीश कुमार के ज्यादा करीब थे। और पासवान जनता दल यू में होते हुए भी जार्ज फर्नांडिस के हितैषी हुआ करते थे। शरद के ओहरे का इस्तेमाल सब मिलकर लालू यादव की सियासी काट के लिए किया करते थे। नीतीश से शरद के अंदरखाने की दोस्ती ने पासवान को जनता दल यू छोड़कर अपनी अलग पार्टी बनाने को मजबूर कर दिया।
यूपीए के दिनों में फेक रक्षा सौदे की जांच में फंसे जॉर्ज कमज़ोर हुए तो तीरंदाज दिग्विजय सिंह शंट हो गए। निश्चिंत नीतीश कुमार ने पासा चला। समता पार्टी को साथी शरद यादव की पार्टी जनता दल यू में समाहित करवा दिया। यह सियासी रवानगी की आंखों देखी कहानी है। तब रणनीतिकार के तौर पर प्रशांत किशोर का जन्म नहीं हुआ था। प्रशांत किशोर के काटे यही शरद यादव सौ सौ चूहे खा कर हज पर जाने के अंदाज़ में अब लालू पुत्र तेजस्वी यादव की शरण में लौटे हैं। पाश्च्याताप की यह लीला कारुणिक है।
सच है। मजबूत विपक्ष चहिए। यह लोकतंत्र की जरूरत है। लेकिन क्या कांग्रेस में अब भी वो ताकत बची है कि जनता उसमें मजबूत विपक्ष का अक्स देखे। यह विवाद का विषय है। कुछ विज्ञ के मुताबिक कांग्रेस महात्मा गांधी के उस आदेश की पूर्ति की दशा में प्रवेश कर चुकी है जिसमें उन्होंने जल, थल और मल अलग करने की बात कही थी। आज़ादी मिलने के साथ ही कांग्रेस पार्टी का उद्देश्य पूरा होने का ऐलान किया था। अखिल भारतीय कांग्रेस पार्टी को भंग करने का प्रस्ताव दिया था। तब राहुल गांधी के पिताजी के नानाजी नहीं माने। पंडित जवाहर लाल नेहरू के महात्मा गांधी से दो राय रखने नतीजा है कि आजादी के अमृत महोत्सव पर अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के साथ साथ कांग्रेस के नाम से दो दर्जन से ज्यादा राजनीतिक दल सक्रिय हैं। पड़ोसी मुल्क नेपाल के सत्तारूढ़ दल का नाम भी नेपाली कांग्रेस ही है। मराठा क्षत्रप शरद पवार से लेकर बंगला आईकॉन ममता बनर्जी और तेलगु बिट्टा जगन मोहन रेड्डी कांग्रेस के नाम पर ही सत्ता सुख का उपभोग कर रहे हैं। कई बार खंड खंड विखंड होने के बावजूद कांग्रेस पार्टी नामक सियासी व्यवस्था बनी हुई है।
ऐसे में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के कांग्रेस मुक्त भारत करने का संकल्प पूरा हो पाएगा। इसमें संदेह है। हालांकि कहने वाले कहते हैं इसी संदेह को दूर करने के लिए प्रशांत किशोर जब तब कांग्रेस के पास जाते हैं। उसकी जड़ को समझते हैं और पीपीटी के जरिए कांग्रेस पार्टी में स्मित संभावना का जिक्र करते हैं। उनकी इस राय से कभी शरद पवार, कभी ममता बैनर्जी तो प्रियंका के रास्ते सोनिया गांधी भी प्रभावित होती नजर आती हैं।
हालांकि पीपीटी से प्रभावित करने की कोशिश करने वाले किशोर से यह कोई क्यों नहीं पूछता कि पर उपदेश कुशल बहुतेरे से बाहर आएं। तमाम शोध के बाद जब कांग्रेस में संपूर्ण विपक्ष बनने की इतनी ही संभावना नज़र आती है,तो खुद ही एक नया कांग्रेस नामक दल क्यों नहीं खड़ा कर लेते?
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।)