नई दिल्ली। कभी राष्ट्रपिता महात्मा गांधी, कभी नेहरू, तो कभी जिन्ना को बीच में लाकर खुद को राष्ट्रभक्त साबित करने में जुट जाते हैं। संभव है इसके प्रमुख दो कारण हों। पहला यह कि देश में जो बेरोजगारी है उसमें अपना वक्त काटने के लिए देश के पढ़े—लिखे लोग अपने हित-अहित की बात करके जानबूझकर अपना समय जाया कर रहे हों। दूसरा कारण यह भी हो सकता है कि उनमें शिक्षा का घोर अभाव हो। हंसी तो तब आती है जब तथाकथित पढ़े-लिखे स्वनामधन्य अपने को पंडित कहलाने वाले लोग गौरवान्वित महसूस करते हैं, वह भी इस बहस में भाग लेकर झूठ में इतिहास और इतिहासकार को बदनाम करने के उद्देश्य से कुतर्क करते हैं।
पता नहीं, ऐसे लोग इतने कुतर्क कहां से खोज लाते हैं। अभी कुछ दिन पहले एक लेख पढ़ा था जिसमें पार्टी से पलायन करने वालों का पक्ष लेते हुए कांग्रेस की आलोचना की गई थी। उसमें विशेष रूप से यह भी कहा गया था कि अब इस दल में बचा ही क्या है जो कोई उसमें रहकर अपना समय खराब करे। स्तंभकार ने कांग्रेस विरोधी प्रचारक के रूप में कहा था कि उस दल के नेता इस योग्य नहीं हैं जो पार्टी को चला सकें। तो फिर ऐसे लोगों के प्रति समाज यह सोचता है कि पलायन करने वाले नेता ही उस योग्य नहीं थे जो खुलकर उस कमजोर नेतृत्व करने वाले का विरोध कर सकते और खुलकर ऐसे नेताओं का विरोध करके उस स्थान पर अपने को बैठाने का संकल्प लेते। किसी की आलोचना करना तो बड़ी सहज बात है, लेकिन उस जगह पर बैठकर अपने आप को देखना दूसरी बात।
यह बात केवल कांग्रेस की ही नहीं है। सभी दलों में ऐसे मौकापरस्त लोग होते हैं जिन्हें मलाई देने में यदि थोड़ी सी भी कमी आई नहीं कि वह गाली-गलौज पर उतर आते हैं। फिर यह आरोप लगाकर कि उन्हें कम तवज्जो दिया गया या उनके वजन को कमतर आंका गया… पार्टी का साथ छोड़ दूसरे दल में शामिल हो जाते है। जिस दल को कल तक वह गालियों से नवाजते हैं, मौकापरस्त लोग उसकी गलियों में ठिकाना तलाशने तक में नहीं हिचकते हैं। अभी उत्तर प्रदेश के सत्ता में शामिल रहे कई नेताओं ने सत्तापक्ष को छोड़कर विपक्ष के टिकट पर चुनाव लडने मैदान में उतर आए हैं।
समझ में नहीं आता है कि इस तरह के लोग जनता के पास किस मुंह से वोट मांगने जाएंगे या जा रहे हैं! यह ठीक है कि नेताओं को भारतीय संविधान ने इतना अधिकार दिया है कि वह अपने अनुरूप दल और चुनावी स्थान चुन सकते हैं। लेकिन, होना तो यह चाहिए कि जिन लोगों ने अपना पाला चुनाव के ठीक पहले बदला है, उन्हें कम—से—कम पांच वर्ष तक कानूनन वंचित कर दिया जाए, लेकिन अपने देश में ऐसा नहीं होता, उल्टे उनका सम्मान किया जाता है। यदि इस तरह के नेता सत्तारूढ़ होते ही अपना पाला यह कहकर बदल लेते हैं कि यह दल जनहित के लिए काम नहीं कर रहा है, इसलिए हम दलबदल कर रहे हैं तो जनता को अपने उन नेताओं पर विश्वास जमता। लेकिन, यह क्या बात हुई कि आपने अपने कार्यकाल में कोई कार्य किया नहीं, आपकी कोई उपलब्धि रही नहीं और जब चुनाव आया तो अपनी नाकामियां छिपाने के लिए पाला बदल लिया और दल के क्रिया—कलापों पर आरोप लगाकर उसकी आलोचना कर रहे हैं।
अब तक सात फेज में होने वाले विधानसभा चुनाव में कई राज्यों के पहले फेज के चुनाव हो चुके हैं। परिणाम एक साथ ही 10 मार्च को आएंगे, लेकिन अब तक जो चुनाव हो चुके हैं, उनके बारे में बात कर लें। ऐसे में सबसे पहले उत्तर प्रदेश की बात करते हैं, क्योंकि यह देश का सबसे बड़ा राज्य है और यहां फिलहाल भाजपा के कद्दावर मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ सत्तारूढ़ हैं। योगी जी देश के मजे हुए राजनीतिज्ञ हैं। उन्होंने स्वयं अपने बारे में संसद में बताया था उन्होंने संन्यास केवल जनसेवा के लिए ही लिया है। वह निःस्वार्थ भाव से राजनीति करते हैं। लेकिन, इस बीच उनकी जुबान खूब फिसल रही है। उनकी इस फिसलती जुबान की शिकायत समाजवादी पार्टी ने चुनाव आयोग से की है।
समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष एवं उप्र के पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने चुनाव आयोग को शिकायत करते हुए कहा है कि समाजवादी पार्टी आदर्श आचार संहिता का पालन कर रही है, जबकि भाजपा के नेता और मुख्यमंत्री अपने अमर्यादित बयानों से लोकतंत्र की पवित्रता को प्रभावित कर रहे हैं। उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री ने अभी आगरा में ‘10 मार्च के बाद बुलडोजर चलेगा’ की धमकी दी। इसके अतिरिक्त वह लगातार समाजवादी पार्टी के नेतृत्व को गुंडा, मवाली, माफिया बता रहे हैं। मुख्यमंत्री जी ने 1 फरवरी, 2022 को मेरठ में सिवालखास और किठौर की सभाओं में कहा, ‘लाल टोपी मतलब दंगाई, हिस्ट्रीशीटर’। मुख्यमंत्री ने कैराना, मुजफ्फरनगर में कहा ‘जो गर्मी दिखाई दे रही है, सब शांत हो जाएगी’, ‘गर्मी कैसे शांत होगी, मैं जानता हूं’ जैसी अलोकतांत्रिक भाषा का प्रयोग किया गया है। वह लगातार धमकाने वाली भाषा बोल रहे है। क्या हो गया हमारे राज नेताओं को। देश के सबसे शक्तिशाली गृहमंत्री अमित शाह गोरखपुर सपा को माफिया कहते हैं, तो वहीं कानपुर देहात में भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा समाजवादियों को गुंडों की पार्टी और आतंकियों के संरक्षक कहते हैं । क्या सत्तारूढ़ दल के नेतागण समाजवादियों से घबड़ाकर ही ऐसी अमर्यादित भाषा का प्रयोग कर रहे हैं?
सत्तारूढ़ भाजपा के कई नेताओं के अनाप—शनाप बयानों के कारण अब इस दल के उम्मीदवार कहीं भी अपनी चुनावी यात्रा में वोट मांगने जाते हैं तो वहां के निवासी उनका विरोध करते हैं, हमला करते हैं, उनकी गाड़ियों पर ईंट-पत्थर फेंककर नाराजगी दिखाते हैं। इस तरह का विरोध प्रदर्शन मतदाताओं द्वारा तो लगभग हर चुनाव में किया जाता रहा है, लेकिन उत्तर प्रदेश में सत्तारूढ़ दल का जिस प्रकार इस बार विरोध किया जा रहा जा रहा है, ऐसा शायद पहले कभी नहीं किया गया होगा। ऐसा कई कारणों से हुआ है जिसमें सत्तारूढ़ दल का कोई भी वरिष्ठ राजनेता आकर अपने प्रचार या रैली में अपने द्वारा जनहित अथवा राजहित में किए गए कार्यों की जानकारी बहुत कम देते हैं, लेकिन विरोधियों को जमकर कोसना उनका एकमात्र लक्ष्य होता है।
जन समस्याओं की बातों को नजरंदाज करके हिंदू-मुस्लिम, भारत-पाकिस्तान की बातों से मतदाताओं को डराया जाता है। भोली—भाली जनता के मन में यह दुराग्रह बैठाया जाता है कि केवल यही दल उनका भला कर सकता है, क्योंकि मुसलमान का वर्चस्व यदि बढ़ गया तो फिर हिंदुओं का इस देश में रहना मुश्किल हो जाएगा। अपना कुतर्क वह यह कहकर देते हैं कि अमुक देश पहले किसी अन्य धर्म का हुआ करता था, लेकिन कुछ ही दिनों में वह इस्लामिक देश हो गया। कारण मुसलमान अपनी जनसंख्या बेतहसा बढ़ाते रहे हैं, पर हमारे ऊपर प्रतिबंध है। समझ में यह नहीं आता कि यह नेता आम जनता को इस प्रकार क्यों गुमराह करते हैं। वह इस बात को क्यों नहीं स्वीकार करते हैं कि पिछले लगभग आठ वर्षों से केंद्र सहित कई राज्यों में उनकी सरकार सत्ता में रही है और देश के अधिकांश राज्यों में भी उनका ही शासन रहा है, उनकी ही सरकार रही है, फिर एक सामान्य कानून उनकी सरकार द्वारा क्यों नहीं अब तक बनाया जा सका कि देश के किसी जाति-धर्म का कोई क्यों न हो, वह केवल एक या दो बच्चे को जन्म दे सकता है। यदि इस प्रकार का कानून बना दिया गया होता तो जिस जनसंख्या की बात की जाती है उस पर नियंत्रण हो सकता था।
उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव की बात हो, तो बसपा सुप्रीमो सुश्री मायावती का नाम न आए, यह कैसे हो सकता है। अभी कुछ दिन पहले तक उनकी तरफ से कोई हलचल नहीं दिखाई दे रही थी, लेकिन अंदर ही अंदर उन्होंने बसपा को मजबूत कर लिया और अपनी मजबूत राजनीतिक पकड़ के साथ मतदाताओं के सामने आकर बता दिया कि चार बार प्रदेश की राजनीति में अपने दम पर देश के सबसे बड़े राज्य की मुख्यमंत्री वह कैसे बनीं। उनकी पूरी टीम तैयार हो गई है और अपनी मजबूत दावेदारी दिखाते हुए मतदाताओं में अपना विश्वास जमाना शुरू कर दिया है। पहले फेज के चुनाव के दौरान अपने मजबूत उम्मीदवारों को लड़ाकर यह प्रमाणित करने का प्रयास किया है कि उनकी मुख्यमंत्री की दावेदारी अब भी कायम है।
अब रही देश की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस की बात तो मुख्यमंत्री की दावेदारी में प्रियंका गांधी पीछे नहीं हैं। हर दिन उत्तर प्रदेश चुनाव का रंग बदल रहा है। हर दल के नेता अपने लिए और अपने उम्मीदवारों के लिए घर—घर जाकर वोट मांग रहे हैं। एक खास बात यह कि हर दल के उम्मीदवार जब किसी के दरवाजे जाते हैं और उस परिवार से अपने लिए वोट मांगते हैं तो आज के मतदाता भी उन्हे अपना मतदान उन्हीं के पक्ष में करने का आश्वासन भी देते हैं। ऐसा हर दल के साथ वह इसलिए करते हैं, क्योंकि उन्हें पता है कि उनका भला करने वाला तो कोई है नहीं, इसलिए किसी को निराश करने की भी जरूरत नहीं है। मतदान करने आप भी जाइए और जो आपका हित कर सकता है, उसके पक्ष में मतदान कीजिए। यह कभी मत सोचें कि आपके एक मत से कुछ होने वाला नहीं है, यह गलत है, क्योंकि भारत के प्रथम नागरिक राष्ट्रपति को भी एक ही मत देने का अधिकार संविधान ने दिया है वहीं सम्मान संविधान निर्माताओं ने आपको भी दिया है। इसलिए अपने मतदान के अधिकार का उपयोग जरूर कीजिए।
– निशिकांत ठाकुर, लेखक वरिष्ठ पत्रकार और राजनीति विश्लेषक हैं