ओमप्रकाश श्रीवास्तव
जो विश्वास पर आधारित रिलीजन, मजहब, पंथ हैं वे चमत्कारों पर विश्वास करते हैं। पर सनातनधर्म तो बोध का धर्म है (बोध, तर्क और विज्ञान के ऊपर की अवस्था है, अंधविश्वास का तो प्रश्न ही नहीं है), चमत्कार तो उसके मार्ग के कील-कंटक हैं जिन्हें हटाने के बाद ही आगे की यात्रा ही संभव होती है। गीता में भगवान् कहते हैं कि हम स्वयं ही अपने उत्थान-पतन के लिए जिम्मेदार हैं – उद्धरेद् आत्मनात्मानम् आत्मानम् अवसादयेत् (गीता 6.5), ईश्वर न पुण्य देता है न पाप देता है (नादत्ते कस्यचित् पापं न चैव सुकृतं विभु: (गीता 5.15) । ऐसे हजारों संदेश सनातनधर्म के ग्रंथों में दिये गये हैं।
जड़ प्रकृति में चमत्कार नहीं होते इसलिए जोशीमठ की दरारों को कोई चमत्कार से नही भर सकता। वहाँ विज्ञान ही काम आएगा। शरीर स्थूल पंचतत्त्वों से मिलकर बना है जिसके तीन स्तर हैं – स्थूल शरीर, शूक्ष्म शरीर और कारण शरीर। इसीमें चेतना का निवास है। शरीर की बीमारी का कारण स्थूल शरीर में हो सकता है और शूक्ष्म शरीर में भी। शूक्ष्म शरीर के कारण को ही आधुनिक भाषा में बीमारी का मनोवैज्ञानिक कारण कहते हैं। इस कारण को विचारों में परिवर्तन से ठीक किया जा सकता है, जैसा कि गीता में कृष्ण ने अर्जुन को उपदेश देकर किया। प्रकृति से बने शरीर की बीमारी को प्रकृति के नियम अर्थात् विज्ञान से ही ठीक किया जा सकता है। इसलिए तथाकथित चमत्कारी पुरुष भी चमत्कार से सभी बीमारों को ठीक नहीं कर सकते वे भी इलाज के लिए अस्पताल बनाने की बात करते हैं।
सनातनधर्म चमत्कार पर आधारित नहीं है। यह बोध का धर्म है। इसलिए चमत्कार और अंधविश्वास का सनातन धर्म में कोई स्थान नहीं है। यह तर्क करना कि दूसरे रिलीजन, मजहब, पंथ चमत्कार पर विश्वास कर रहे हैं तो हम भी करेंगे, वैसा ही है जैसे एक ऑंख वाले पड़ोसी से आगे निकलने के लिए अपनी दोनों आँखें फोड़ लेना। हाँ, ईश्वर अवश्य चमत्कार कर सकता है परंतु उसके लिए किसी माध्यम की जरूरत नहीं है। इसके लिए ईश्वर के प्रति समर्पण, उपासना, प्रार्थना और प्रभु का निमित्त बन जाने की साधना ही पर्याप्त है।
(लेखक मध्यप्रदेश के आबकारी आयुक्त है)