इस चुनाव में क्या सोच रहा है देश का मुसलमान !

केंद्र की सत्ता पर काबिज भारतीय जनता पार्टी की ओर से विकसित भारत 2047 के लिए वोट मांगा जा रहा है, तो मुख्य विपक्षी दल सहित तमाम राजनीतिक दल इस हिसाब-किताब में लगे हुए हैं कि उनके पाले में कितनी मुस्लिम वोट आ रही है। उसी से उनके जीत का आधार बनेगा।

 

नई दिल्ली। जब भी देश में लोकसभा अथवा विधानसभा का चुनाव होता है, सबसे पहले इस पर राजनीतिक गुणा-भाग लगाया जाता है कि देश का मुसलमान किधर है ? 1950 से लेकर 2024 तक की यात्रा में यह बात पूरी तरह से मौजू है। तमाम आंकड़ें और नेताओं की बयानबाजी इसकी गवाही देते हैं। जब से हम चुनावी राजनीतिक को देखते और पढ़ते आए हैं, अब तक यही सुनने और पढ़ने में आया कि चुनाव के दौरान फलां मस्जिद से अमुक राजनीतिक दलों के लिए फरमान दिया गया। चाहे देवबंद हो या दिल्ली का जामा मस्जिद। वहां के इमामों का राजनीतिक संदेश और मतदान की तारीख से पहले जुमा की नमाज को लेकर खबरें बनती आई हैं। इस बार पहली बार देखने में आया है कि सूफी समाज में किसी सरकार और राजनीतिक दल के प्रत्याशी को जिताने का ऐलान किया है। हाल ही में फतेहपुर सीकरी के प्रसिद्ध चिश्ती दरगाह से लाखों की संख्या में आवाज आईं और सभी ने तय किया कि फतेहपुर सीकारी से निवर्तमान सांसद राजकुमार चाहर को ही दोबारा सांसद बनाया गया। इसके लिए पूरा समाज काम करेगा। इसके पीछे राजकुमार चाहर की व्यक्तिगत काम करने का हुनर और छवि काम आया, तो दूसरी ओर बीते दशक में वर्तमान प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में देश के साथ दुनिया में एक सशक्त छवि को कारण बताया गया। कहा गया कि जाति और क्षेत्र से हटकर केंद्र सरकार देश के विकास के लिए काम कर रही है, इसलिए पहली बार सूफी संतों ने भी इस प्रकार की घोषणा सरेआम की है।

अब यही सवाल उठता है कि यदि एक बदलाव की बयार सूफी संत के यहां से उठी है, तो पूरे देश का पसमांदा और मुस्लिम समाज इस पर क्या राय रखता है ? लोकसभा चुनाव में वह किधर जाएगा। ऐसा भी नहीं है कि जो आवाज फतेहपुर सीकरी में दिख रही है, वही पूरे देश का मिजाज तय करती है। भौगोलिक विविधता वाले देश में राजनीतिक और सामाजिक परिदृश्य भी अलग अलग हैं। बिहार और पश्चिम बंगाल जो सोचता है, वह दिल्ली और पंजाब में नहीं दिखता है। जम्मू कश्मीर और लद्दाख में धारा 370 हटने के बाद हालात बदले हैं। सोच पहले से जुदा हुई है। सीएए को लेकर उत्तर प्रदेश, आंध्रप्रदेश, पश्चिम बंगाल, असम और त्रिपुरा में एकमत नहीं है। दक्षिण भारत के मुस्लिम समाज खुद को पूर्वोत्तर के समाज से कनेक्ट नहीं कर पाते हैं। केंद्र सरकार की नीतियों, खाबसर मोदी सरकार के कामों को लेकर तमाम मुस्लिम संगठन लगातार मुखर हुए हैं। तीन तलाक को लेकर भले ही कुछ क्षेत्रों में महिलाओं का झुकाव भाजपा की ओर हुआ है, लेकिन अधिकांश समाज भाजपा के विरोधी दल के साथ जाने की पटकथा पर काम कर रहा है।
चुनावी मंचों से चाहे सत्ता और विपक्षी की ओर से मुस्लिम वोटरों को लुभाने की बात की जाए, लेकिन जमीनी हकीकत अभी चिंता करने वाली है। किसी बड़े मुसलमानों के गांव जाइए तो आपको वहां सड़क नहीं मिलेगी। प्रशांत किशोर ने कहा कि किसी मुसलमानों की बस्ती में जाइए वहां आपको नाली-गली नहीं मिलेगी, स्कूल-अस्पताल नहीं मिलेगा।
कई राजनीतिक दलों के साथ चुनावी प्रबंधन का काम देख चुके वर्तमान में जन सुराज के संस्थापक प्रशांत किशोर का कहना है कि उन्होंने मुसलमानों की बस्ती में जाकर लोगों को समझाने का काम किया। गांव में जाइगा तो मुसलमान कहता है, महिलाएं निकलकर कहती हैं भैया जीवन में कितनी दिक्कत है कि प्रसव पीड़ा शुरू हो जाए तो सड़क इतनी खराब है कि जान निकल जाए। अस्पताल इतनी दूर है कि वहां तक पहुंचने में हालत खराब हो जाती है। अगर ये बात मुसलमानों को अच्छी तरह पता है तो अपने बच्चे और महिलाओं का दर्द कैसे पता नहीं होगा।

कुछ समय पहले एक खबर पढ़ने को मिला था, जिसमें कहा गया था कि इस्लामोफोबिया नई ऊंचाईयां छू रहा है। मुसलमान डरे हुए हैं और केवल अपनों के बीच रहना चाहते हैं। अधिकांश शहरों में मिश्रित आबादी वाले इलाकों में मुसलमानों को न तो मकान खरीदने दिए जा रहे हैं और ना किराए पर मिल रहे हैं।सन् 2019 में 45 प्रतिशत भारतीय मुसलमानों ने कहा कि उनका जीवनस्तर पहले की तुलना में खराब हुआ है।एनआरसी व सीएए के माध्यम से मुसलमानों को मताधिकार से वंचित करने के प्रयास भी चल रहे हैं। असम में एक लंबी कवायद के बाद पता चला कि जिन 19 लाख लोगों के पास जरूरी दस्तावेज नहीं थे उनमें से अधिकांश मुसलमान थे। सीएए में ऐसे हिन्दुओं के लिए बच निकलने का रास्ते है मगर ऐसे मुसलमानों के लिए हिरासत केन्द्र बनाए जा रहे हैं।
हाल ही में एक रिपोर्ट आई थी, उसमें कहा गया था कि 2019 से पहले, मुस्लिम मतदान व्यवहार काफी खंडित था , और किसी एक राजनीतिक दल के पीछे निर्वाचन क्षेत्र-स्तरीय समन्वय के कोई स्पष्ट संकेत नहीं थे। हालाँकि, विशेष रूप से, भाजपा की 2019 की जीत के बाद से मतदान व्यवहार अधिक जटिल हो गया है। राजनीतिक वैज्ञानिक आम तौर पर वोटों के वितरण में मौजूद भिन्नीकरण या समेकन के स्तर की जांच करने के लिए हेरफिंडाहल-हिर्शमैन इंडेक्स (एचएचआई) नामक एक उपाय का उपयोग करते हैं। शून्य के करीब सूचकांक स्कोर का मतलब है कि सभी मुसलमानों ने अलग-अलग पार्टियों को वोट दिया, जबकि 1 का स्कोर एक ही पार्टी के लिए उनके समर्थन को दर्शाता है। 2019 के आम चुनावों के लिए एचएचआई के एक आवेदन से बढ़ते हिंदू बहुसंख्यकवाद के बावजूद मुस्लिम वोटों के कुछ विभाजन का पता चलता है।
इस बीच, भारत स्थित गैर सरकारी संगठन कॉमन कॉज़ की 2019 की रिपोर्ट में पाया गया कि सर्वेक्षण में शामिल आधे पुलिस ने मुस्लिम विरोधी पूर्वाग्रह दिखाया, जिससे मुसलमानों के खिलाफ अपराधों को रोकने के लिए उनके हस्तक्षेप करने की संभावना कम हो गई। विश्लेषकों ने यह भी नोट किया है कि मुसलमानों पर हमला करने वालों को व्यापक छूट मिली हुई है। हाल के वर्षों में, राज्य और राष्ट्रीय अदालतों और सरकारी निकायों ने कभी-कभी दोषसिद्धि को पलट दिया है या उन मामलों को वापस ले लिया है जिनमें हिंदुओं पर मुसलमानों के खिलाफ हिंसा में शामिल होने का आरोप लगाया गया था। राज्यों ने तेजी से मुसलमानों की धार्मिक स्वतंत्रता को प्रतिबंधित करने वाले कानून पारित किए हैं, जिनमें धर्मांतरण विरोधी कानून और स्कूल में हेडस्कार्फ़ पहनने पर प्रतिबंध शामिल हैं।
एक ओर राजनीतिक दलों को अपने वोट की चिंता है, तो हाल के वर्षों में मुस्लिम अपने वजूद को लेकर चिंता में दुबले हुए जा रहे हैं। हालांकि, उनके कई नेता चुनावी मंचों से केंद्र की सत्ता को ललकारने से चूकते नहीं। इसे आंकड़ों के आधार पर बात की जाए, तो 1951 में देश की आबादी में 84 प्रतिशत हिस्सा मुस्लिमों का था जो 2020 में घटकर 79 प्रतिशत हो चुका है। इसी तरह 1951 में भारत की कुल आबादी में 10 प्रतिशत हिस्सा मुस्लिमों का था जो 2020 में बढ़कर 15 प्रतिशत हो चुका है। 2045-50 तक कुल आबादी में मुस्लिमों का शेयर बढ़कर 18 प्रतिशत हो सकता है यानी 1951 के मुकाबले उनका शेयर करीब दोगुना हो जाएगा। 2045-50 तक देश में मुसलमानों की तादाद 28.88 करोड़ होने का अनुमान है। उस वक्त तक हिंदुओं की तादाद भी बढ़कर 1.23 अरब हो जाएगी यानी तब भी मुस्लिमों की तुलना में हिंदुओं की आबादी 4 गुना से ज्यादा होगी।

इस बीच मोदी ने भारत के एकमात्र मुस्लिम बहुल राज्य जम्मू-कश्मीर की राजनीतिक प्रतिष्ठा को कम कर दिया है। अगस्त 2019 में, सरकार ने राज्य को, जो पाकिस्तान के साथ विवादित पहाड़ी सीमा क्षेत्र में स्थित है, दो क्षेत्रों में विभाजित कर दिया और इसकी विशेष संवैधानिक स्वायत्तता छीन ली। तब से, भारतीय अधिकारियों ने सुरक्षा बनाए रखने की आड़ में, कई बार इस क्षेत्र में लोगों के अधिकारों पर हमला किया है। उन्होंने 2021 में पचासी बार इंटरनेट बंद किया, पत्रकारों को परेशान किया और गिरफ्तार किया, और प्रमुख राजनीतिक हस्तियों और कार्यकर्ताओं को हिरासत में लिया। सरकार के इस दावे के बावजूद कि सुरक्षा स्थिति में सुधार हुआ है, विभाजन के बाद से सशस्त्र समूहों द्वारा दर्जनों नागरिक मारे गए हैं। दिसंबर 2023 में, सुप्रीम कोर्ट ने सरकार के फैसले को बरकरार रखते हुए फैसला सुनाया कि इस क्षेत्र को अगले वर्ष स्थानीय चुनावों के लिए समय पर राज्य का दर्जा हासिल करना चाहिए।
2020, नई दिल्ली में मुसलमानों और अन्य लोगों द्वारा नागरिकता संशोधन अधिनियम का विरोध करने पर हिंसा भड़क उठी। राजधानी शहर की दशकों की सबसे भीषण सांप्रदायिक हिंसा में लगभग पचास लोग मारे गए, जिनमें से अधिकांश मुस्लिम थे। कुछ भाजपा राजनेताओं ने हिंसा भड़काने में मदद की, और पुलिस ने कथित तौर पर हिंदू भीड़ को मुसलमानों पर हमला करने से रोकने के लिए हस्तक्षेप नहीं किया। 2021 ह्यूमन राइट्स वॉच की रिपोर्ट में पाया गया कि अधिकारियों ने पुलिस की मिलीभगत की जांच नहीं की थी, जबकि उन्होंने एक दर्जन से अधिक प्रदर्शनकारियों पर आरोप लगाया था।
वर्तमान में देखें, तो लोकसभा चुनाव के बीच अगर सोशल मीडिया या विभिन्न मेसेंजर्स पर पोस्ट हो रहे लेखों, विचारों या दूसरी सामग्रियों के कंटेंट पर गौर करें, तो डिजिटली सशक्त और सक्रिय अधिकांश मुसलमान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का खुला विरोध कर रहे हैं। मोदी का समर्थन केवल वही मुसलमान कर रहे हैं, जो किसी न किसी तरह भाजपा या भाजपा नेताओं से जुड़े हैं। ज्यादातर लोग मोदी विरोधी खेमे में ही खड़े नज़र आ रहे हैं।सवाल यह उठता है कि क्या मोदी सरकार का विरोध ही मुसलमानों का एकमात्र एजेंडा है? क्या मुस्लिम समाज के समक्ष मोदी विरोध के अलावा और कोई समस्या नहीं है? आख़िर मुस्लिम बुद्धिजीवी दूसरे ज़रूरी मुद्दों पर इतने सक्रिय क्यों नहीं हैं? इस सवाल का जवाब तलाशने के लिए देश में मुसलमानों की हालत का अध्ययन करने के लिए गठित राजिंदर सच्चर कमेटी, रंगनाथ मिश्रा आयोग और महमूदुर रहमान समिति की रिपोर्ट पर गौर करना पड़ेगा। तीनों समितियों की रिपोर्टों का अध्ययन करने से पता चलता है कि आज की तारीख़ में मुस्लिम समाज के सामने सबसे ज़्यादा समस्याए हैं। कोई दूसरा समाज इतनी अधिक समस्याओं से दो-चार नहीं है। सच्चर कमेटी और रंगनाथ मिश्र आयोग की रिपोर्ट की मुख्य बातों से सभी अवगत हैं।