धर्म से हटकर भी यूं देख सकते हैं कुंभ को

‘कुम्भ’ कानों में पड़ते ही पवित्र स्थल पर विशाल जन सैलाब हिलोरे लेने लगता है और हृदय भक्ति-भाव से विहवल हो उठता है। विश्व के इतिहास में, किसी देश में किसी भी समय क्या ऐसा संभव हुआ है या होता है? जहां न उद्योक्ता हैं और न आह्वानकर्ता, संवाददाता नहीं, सभा नहीं, समिति नहीं, संचालक नहीं, जबकि इस समारोह में लाखों लोग जिनमें आबाल वृद्ध-वनिता-महाराज से लेकर राह के भिखारी तक आते हैं। वह भी एक-दो नहीं, महीनों कल्पवास करते हैं। इतना भेद, इतना वैचित्र्य, इतनी विषमता, कहीं देखने में नहीं आती। फिर भी कितनी शांति, कितनी प्रीति, कितना आनंद, कितना उत्साह, कैसी निष्ठा, कितनी सेवा, कितनी आत्मीयता, कितनी भक्ति, कितनी श्रद्धा और कैसी धर्मपरायणता रहती है। न हिंसा, न द्वेष और न घृणा।

कुंभ का संस्कृत अर्थ कलश होता है। हिंदू धर्म में कुंभ का पर्व 12 वर्ष के अंतराल में आता है। कुंभ का मेला मकर संक्रांति के दिन प्रारम्भ होता है। इस दिन जो योग बनता है उसे कुंभ स्नान-योग कहते हैं। अखिल भारतीय राष्ट्रीय ज्योतिष परिषद के अध्यक्ष डॉ चंद्रशेखर शास्त्री के अनुसार, जब सूर्य और चन्द्रमा, वृश्चिक राशी में और वृहस्पति, मेष राशी में प्रवेश करते हैं। मकर संक्रांति के होने वाले इस योग को “कुम्भ स्नान-योग” कहते हैं और इस दिन को विशेष मंगलिक माना जाता है, क्योंकि ऐसा माना जाता है कि इस दिन पृथ्वी से उच्च लोकों के द्वार इस दिन खुलते हैं और इस प्रकार इस दिन स्नान करने से आत्मा को उच्च लोकों की प्राप्ति सहजता से हो जाती है। कुंभ का असाधारण महत्व बृहस्पति के कुंभ राशि में प्रवेश तथा सूर्य के मेष राशि में प्रवेश के साथ जुड़ा है।पनी अंतरात्मा की शुद्धि हेतु पवित्र स्नान करने लाखों श्रद्धालु यहाँ आते हैं। आध्यात्मिक दृष्टि से अर्ध कुंभ के काल में ग्रहों की स्थिति एकाग्रता तथा ध्यान साधना के लिए उत्कृष्ट होती है।

सच तो यह भी है कि कुंभ मेला कितना प्राचीन है, इस बारे में कोई निश्चयपूर्वक नहीं कह सकता। कौन इसके प्रथम उद्बोधनकर्ता थे, इसका पता लगाना भी कठिन है। महाभारत, भागवत, पुराणादि से ज्ञात होता है कि अनादिकाल से भारत में ऐसे सम्मेलन होते आए हैं। नैमिषारण्य, कुरुक्षेत्र, प्रभासादि पुण्य क्षेत्रों में असंख्य ऋषि-महर्षि और साधु-महात्मा एकत्रित्र होकर याग-यज्ञ, तपोहनुष्ठान और शास्त्रार्थ करते रहे। देश तथा समाज की स्थिति, रीति, प्रकृति पर विचार-विमर्श करते हुए धर्म की सृष्टि और संरक्षण की व्यवस्था करते रहे। बौद्ध युग में हम देखते हैं कि बौद्ध-संन्यासियों ने समय-समय पर विभिन्न पुण्य स्थानों में संघ महासंगीति का अधिवेशन कर संघ, धर्म और बुद्ध की अमृतवाणी का प्रचार किया था। मानव जाति की शाश्वत कल्याण के उपायों पर विचार करते रहे। बौद्ध सम्राट श्री हर्षवर्धन प्रयाग में प्रति पांचवें वर्ष सर्व त्याग यज्ञ अनुष्ठित करते थे, जहां अगणित साधु और महापुरुषों का सम्मेलन होता था, जिसकी स्मृति कुंभ मेला की याद दिला रही है।

एक आयोजन में उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने भी कहा था कि कुंभ भारत की आध्यात्मिक और सांस्कृतिक विरासत का प्रतीक है। कुंभ भारतीय संस्कृति का सबसे बड़ा मिलन स्थल है। स्वतःस्फूर्त भाव से विश्व का सबसे बड़ा जमावड़ा लोक कल्याण के भाव से कुंभ में होता है। कुंभ भारत की आध्यात्मिक और सांस्कृतिक विरासत का प्रतीक है। जाति,मत,क्षेत्र,भाषा, सम्प्रदाय का भेद नहीं होता है। समरसता का ऐसा आयोजन कुंभ में होता है। कुंभ का हमारा संदेश दुनिया के लिए क्या होता है। मानवता के कल्याण का मार्ग प्रशस्त होता है कुंभ में।समरसता हमारी भारतीय संस्कृति का अक्षुण्ण अंग रहा है, लेकिन बीच के कालखण्ड में इसे छिन्न-भिन्न किया गया। कुम्भ समरसता का द्योतक है, आध्यात्म है, ऊर्जा है, भारतीय संस्कृति का मूलमंत्र है। 1583 से अब तक इलाहाबाद में कुम्भ होता है, पहली बार प्रयागराज में कुम्भ हो रहा है, यह भारतीय संस्कृति की विजय है। कुम्भ से नई ऊर्जा मिलती है, हम सब मिलजुलकर कार्य करें, हम एक ही मां की संतान हैं। हम सभी बन्धु-बान्धव हैं। एकत्व का भाव लेकर, समरस भाव के साथ कदम से कदम मिलाकर आगे बढ़े।

असल में, जातियता व छुआ-छूत की भावना हमारे समाज के लिए कलंक है, मनुष्य को मनुष्य के साथ समानता, प्रकृति के साथ सद्व्यवहार भी हमारी संस्कृति रही है। आचार व विचार में समानता लाने की जरूरत है। जाति के आधार पर मन का भाव व व्यवहार बदल जाता है, यह हमारे समाज के लिए एक चुनौती है। धर्माचार्यों ने समय-समय पर आह्वान किया है “हिन्दवः सहोदरा सर्वे, न हिन्दू पतितो भवेत, मम दीक्षा हिन्दू रक्ष, मम मंत्र समानता“ का भाव लेकर चलने की जरूरत है। एक बार फिर प्रयागराज का कुंभ भारतीयता के प्राणपण में वृद्धि करेगा।

किसी उत्सव के आयोजन में भारी जनसम्पर्क अभियान, प्रोन्नयन गतिविधियां और अतिथियों को आमंत्रण प्रेषित किये जाने की आवश्यकता होती है, जबकि कुंभ विश्व में एक ऐसा पर्व है जहाँ कोई आमंत्रण अपेक्षित नहीं होता है तथापि करोड़ों तीर्थयात्री इस पवित्र पर्व को मनाने के लिये एकत्र होते हैं।

प्राथमिक स्नान कर्म के अतिरिक्त पर्व का सामाजिक पक्ष विभिन्न यज्ञों, वेद मंत्रों का उच्चारण, प्रवचन, नृत्य, भक्ति भाव के गीतों, आध्यात्मिक कथानकों पर आधारित कार्यक्रमों, प्रार्थनाओं, धार्मिक सभाओं के चारो ओर धूमती हैं, जहाँ सिद्धांतों पर वाद-विवाद एवं विमर्श प्रसिद्ध संतों एवं साधुओं के द्वारा किया जाता है और मानकस्वरूप प्रदान किया जाता है। पर्व का एक महत्वपूर्ण भाग गरीबों एवं वंचितों को अन्न एवं वस्त्र का दान कर्म है और संतों को आध्यात्मिक भाव के साथ गाय एवं स्वर्ण दान किया जाता है।

मानव मात्र का कल्याण, सम्पूर्ण विश्व में सभी मानव प्रजाति के मध्य वसुधैव कुटुम्बकम के रूप में अच्छा सम्बन्ध बनाये रखने के साथ आदर्श विचारों एवं गूढ़ ज्ञान का आदान प्रदान कुंभ का मूल तत्व और संदेश है जो कुंभ पर्व के दौरान प्रचलित है। कुंभ भारत और विश्व के जन सामान्य को अविस्मरणीय काल तक आध्यात्मिक रूप से एकताबद्ध करता रहा है और भविष्य में ऐसा किया जाना जारी रहेगा।