क्या भारतीय राजनीति के लिए धर्म वाकई जरूरी है ?

“चुनाव लड़ने का अधिकार” एक सांविधिक अधिकार है और धर्मनिरपेक्षता संविधान के मूल ढाँचे का एक अहम हिस्सा है. क्या चुनावी प्रक्रिया एक धर्मनिरपेक्ष गतिविधि है? और, क्या एक धर्मनिरपेक्ष राज्य की धर्मनिरपेक्ष गतिविधियों में धर्म का हस्तक्षेप उचित है?

नई दिल्ली। यूं तो जीवनशैली को सनातन संस्कृति में धर्म से जोड़कर देखा जाता है, लेकिन भारतीय लोकतांत्रिक व्यवस्था में जैसे ही चुनावी बयार सिसकने लगती है, राजनीतिक दलों के नेता और कार्यकर्ताओं का धर्म के प्रति आकर्षण बढ़ जाता है। भले ही शेष दिनों में इन नेताओं को धर्म और धार्मिक स्थलों से कोई वास्ता न हो, लेकिन चुनावी मौसम में हर कोई जहां भी जाते हैं, वहां के धार्मिंक स्थल पर सिर नवाते मिल जाएंगे। चाहे वो केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह का जम्मू के खीर भवानी मंदिर हो या प्रियंका गांधी का पूरे उत्तर प्रदेश के कई मंदिरों में पूजा अर्चना करना। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सहित उनके तमाम मंत्री तो खुलकर मंदिरों और धार्मिक स्थलों में जाते रहे हैं। चुनावी मौसम में वैसे नेता भी उन धार्मिक स्थलों में जाकर आशीष लेने की जुगत करते हैं, जिनके प्रति उनके मन में कोई भावना नहीं होती। बीते दिनों ऐसी भावनाएं पश्चिम बंगाल के विधानसभा चुनाव में देखने को मिला है।
अगले साल 5 राज्यों में विधानसभा चुनाव होने हैं। मुख्य फोकस राजनीतिक दलों का उत्तर प्रदेश और पंजाब पर है। यहां के धार्मिक स्थलों में नेताओं का आना-जाना शुरू हो चुका है। वरिष्ठ पत्रकार मार्क टुली कहते हैं कि ये नया चुनावी शगल नहीं है। हमने कई प्रधानमंत्री के कार्यकाल को देखा है। कई लोकसभा और विधानसभा चुनाव को कवर किया है। जाति और धर्म के नाम पर जनता को रिझाने की कोशिश इस देश में होती आई है, क्योंकि यहां के लोग धार्मिक अधिक है। जिन बातों को यूं नहीं मानते, यदि आप उसे धर्म के सहारे उन्हें समझाने की कोशिश करेंगे, तो जल्दी समझ जाते हैं।
इसी सोच को समर्थन करती है एक सर्वे। बीते दिनों एक सर्वे आई थी, उसमें कहा गया था कि 1962 से लेकर 2014 के लोकसभा चुनाव के आंकड़ों को देखें तो पता चलता है कि शिक्षा में असमानता, आमदनी या रोजगार जैसे मुद्दों का चुनाव के दौरान मामूली असर रहता है। एमआईटी के अर्थशास्त्री अभिजीत बनर्जी और पेरिस स्कूल ऑफ इकनॉमिक्स के ऐमरी गेथिन और थॉमस पिकेटी की रिसर्च में यह तथ्य निकलकर सामने आया है। रिसर्च के मुताबिक मतदाता अपना वोट किसे देंगे, यह तय करने में मूलभूत समस्याओं की कोई खास भूमिका नहीं होती है। इस रिसर्च के दौरान सर्वे और इलेक्शन रिजल्ट का बारीकी से अध्ययन किया गया।