नई दिल्ली। दिल्ली के सीएम अरविंद केजरीवाल ने कहा, “ये CAA क्या है? केंद्र की बीजेपी सरकार का कहना है कि अगर तीन देशों – बांग्लादेश, पाकिस्तान और अफगानिस्तान के अल्पसंख्यक भारतीय नागरिकता लेना चाहते हैं, तो उन्हें दी जाएगी। इसका मतलब है कि बड़ी संख्या में अल्पसंख्यकों को हमारे देश में लाया जाएगा। उन्हें नौकरियां दी जाएंगी और उनके लिए घर बनाए जाएंगे। भाजपा हमारे बच्चों को नौकरी नहीं दे सकती लेकिन वे पाकिस्तान के बच्चों को नौकरी देना चाहते हैं। हमारे कई लोग बेघर हैं लेकिन बीजेपी पाकिस्तान से आए लोगों को यहां बसाना चाहती है। वे हमारी रोजगार उनके बच्चों को देना चाहते हैं। वे पाकिस्तानियों को हमारे घरों में बसाना चाहते हैं। भारत सरकार का जो पैसा हमारे परिवारों और देश के विकास के लिए इस्तेमाल होना चाहिए वह पाकिस्तानियों को भारत में बसाने के लिए इस्तेमाल किया जाएगा।”
चूंकि यह कानून लोकसभा चुनाव से ऐन पहले लागू हो रहा है इसलिए सबसे पहले इसके राजनीतिक पहलुओं पर ही विचार की जरुरत है। ध्यान रहे भाजपा की केंद्र सरकार ने दिसंबर 2019 में नागरिकता कानून में संशोधन किया था। अगर विशुद्ध राजनीतिक नजरिए से देखें तो इस पर अमल रोकने का कारण 2021 के मई में होने वाले विधानसभा चुनाव थे। मई 2021 में एक ही साथ असम और पश्चिम बंगाल दोनों के चुनाव होने वाले थे। अगर पश्चिम बंगाल का चुनाव अलग हो रहा होता तो सरकार इसे लागू कर सकती थी।
लेकिन सरकार और भाजपा दोनों को अंदाजा था कि असम के चुनाव में इसका नुकसान हो सकता है। असम में इस कानून के खिलाफ ही लुरिनजोत गोगोई और अन्य लोगों ने मिल कर असम जातीय परिषद का गठन किया था और इसके खिलाफ आंदोलन शुरू किया था। अस्सी के दशक में हुए असम समझौते को लेकर बेहद संवेदनशील कई जातीय समूहों ने इसका विरोध किया। उनकी चिंता है कि इस कानून के जरिए बांग्लादेश से आए अवैध प्रवासियों को भारत की नागरिकता मिल जाएगी और उसका असर असम की संस्कृति और भाषा दोनों पर होगा। उनको यह भी डर है कि असमी लोग अपने ही राज्य में अल्पसंख्यक हो जाएंगे और बांग्लाभाषियों की बहुलता हो जाएगी। उनकी यह आशंका सही है या नहीं यह बाद की बात है लेकिन इसका राजनीतिक नुकसान संभव था।
तभी भाजपा की सरकार ने 2021 में जोखिम नहीं लिया था। लेकिन अब यह जोखिम लिया जा रहा है तो उसका कारण यह है कि भाजपा को इस बार असम में नुकसान से ज्यादा पश्चिम बंगाल में फायदा दिख रहा है। पश्चिम बंगाल में बांग्लादेश से आए मतुआ समुदाय के हिंदू प्रवासियों की आबादी करीब दो करोड़ है और राज्य की 10 लोकसभा सीटों पर बहुत स्पष्ट प्रभाव है। पिछले विधानसभा चुनाव में इनके असर वाले इलाकों में भाजपा ने 18 सीटें जीती थीं, जहां उससे पहले भाजपा को सिर्फ तीन सीट मिली थी।