डॉ राजीव दासगुप्ता
एक प्रसिद्ध कहावत है, टीके जान नहीं बचाते, टीकाकरण बचाता है। वाकई, भारत ने काफी सफल कोविड-19 टीकाकरण अभियान चलाया है। अब तक कोविड-रोधी टीकों की 180 करोड़ से अधिक खुराकें लोगों को दी जा चुकी हैं। करीब 98 फीसदी वयस्क आबादी टीके की कम से कम एक खुराक पा चुकी है और 83 फीसदी का पूर्णत: टीकाकरण हो चुका है। 15-18 वर्ष के किशोरों को भी सफलतापूर्वक टीका दिया जा रहा है। राष्ट्रीय टीकाकरण दिवस 16 मार्च से भारत में 12 से 14 आयु-वर्ग के बच्चों के लिए टीकाकरण की शुरुआत हो गई, इसके साथ ही 60 वर्ष और इससे अधिक उम्र के लोगों के बूस्टर डोज के लिए सह-रुग्णता की शर्तों को भी हटा दिया गया है। ये तमाम प्रयास निश्चय ही भविष्य में कोरोना के आने वाले वेरिएंट (रूपों) के खिलाफ एक मजबूत रक्षा कवच बनाने का काम करेंगे।
अपने यहां चरणबद्ध तरीके से टीकाकरण अभियान की शुरुआत वैश्विक रणनीति के मुताबिक हुई थी। उच्च जोखिम वाले सभी समूहों, स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं, सभी उम्र के उच्च जोखिम वाले लोगों (हालांकि, इनमें बच्चों और किशोरों को शामिल नहीं किया गया था) से लेकर सभी वयस्क आबादी और किशोरों को टीका लगाने की सिलसिलेवार शुरुआत हुई। इसी तरह, विश्व स्वास्थ्य संगठन की ‘स्ट्रेटजी डॉक्यूमेंट’(रणनीति दस्तावेज) में जिन चार मूल्यों का जिक्र है, उन पर भी बराबर तवज्जो दी जा रही है। इनमें से पहला है, समानता, यानी तमाम व्यक्तियों, आबादी और देशों तक बिना किसी आर्थिक बाधा के टीके की समान पहुंच होनी चाहिए। आज विश्व की 90 फीसदी से अधिक आबादी को राष्ट्रीय और संघीय सरकारों द्वारा मुफ्त टीके दिए जा चुके हैं, जो किसी उल्लेखनीय सफलता से कम नहीं है। दूसरा मूल्य है, टीकाकरण में शामिल टीकों का गुणवत्ता के मामले में अंतरराष्ट्रीय मानकों (विश्व स्वास्थ्य संगठन के मानदंड) को पूरा करना। तीसरा मूल्य, टीकाकरण अभियान के साथ-साथ जांच, इलाज, सार्वजनिक स्वास्थ्य व सामाजिक उपायों पर अमल करना और चौथा, समावेशी टीकाकरण, जो हाशिये के लोगों, वंचित तबकों और विस्थापित आबादी की जरूरतों को पूरा करे।
बेशक, टीका उद्योग भारत का एक मजबूत पक्ष है, लेकिन यहां की विविधताएं और भूगोल एक सुचारू टीकाकरण अभियान के लिए चिंता के कारण थे। हालांकि, जिसकी चर्चा आमतौर पर नहीं होती, वह यह है कि नियमित टीकाकरण अभियान यहां एक प्रभावी कार्यक्रम रहा है, और यह बड़े पैमाने पर व्यापक रूप से चलाया जाता रहा है, जैसे पोलियो उन्मूलन अभियान या मिशन इंद्रधनुष। जिस तरह से लोग कोविड-रोधी टीके के प्रति उत्सुक रहे हैं, उससे यही लगता है कि टीके पर लोगों का जबर्दस्त विश्वास है। यह केन्द्र, राज्य व स्थानीय सरकार की नीतियों को स्वीकारने का भी संकेत है।
हालांकि, कोविड-रोधी टीकाकरण की सफलता के बावजूद इस महामारी ने टीकाकरण प्रणाली की हमारी कमजोरियों को उजागर किया है। अप्रैल, 2020 की शुरुआत में विश्व स्वास्थ्य संगठन के क्षेत्रीय कार्यालयों ने नियमित टीकाकरण की मांग और आपूर्ति में रुकावटों की सूचना दी, जिसमें स्वास्थ्य कार्यकर्याओं की कमी का भी जिक्र किया गया था। टीकों की पर्याप्त आपूर्ति जून, 2020 से शुरू हुई, जो उस साल के अंत तक जारी रही। कई अध्ययनों में इसकी पुष्टि भी हुई है। जैसे, एक विश्लेषण ने बताया है कि 424 बाल रोग विशेषज्ञों से बात करने पर 83 फीसदी डॉक्टरों ने यह माना कि कि नियमित टीकाकरण अभियान में 50 फीसदी की गिरावट आई है। उत्तर प्रदेश का एक अध्ययन बताता है कि जन्म के समय दिया जाने वाला टीका इससे सबसे कम प्रभावित हुआ, जबकि डीपीटी का पहला बूस्टर और खसरा-रूबेला की दूसरी खुराक सबसे ज्यादा प्रभावित हुई। राजस्थान के एक विश्लेषण में पाया गया कि कम पढ़े-लिखे और गरीब परिवार के बच्चों में टीकाकरण की दर कम थी, जिसमें लॉकडाउन के दौरान और उसके बाद तेज गिरावट आई है।
इन कमियों को दूर करने के लिए पिछले साल फरवरी और मार्च में देश के 29 राज्य व केन्द्र शासित क्षेत्रों के 25 जिलों और शहरी क्षेत्रों में सघन मिशन इंद्रधनुष 3.0 की शुरुआत की गई। बाद में, बच्चों और गर्भवती महिलाओं की सुरक्षा के लिए सघन मिशन इंद्रधनुष 4.0 को भी शुरू किया गया है। कोविड-19 टीकाकरण अभियान और मिशन इंद्रधनुष के अब तक हो चुके 10 चरणों की सफलता ने साफ कर दिया है कि सरकार ने किस कदर समग्रता में प्रयास किए हैं।
बावजूद इसके आगे की राह बहुत आसान नहीं है। कोविड-19 महामारी एक ‘स्वास्थ्य आपदा’ से ‘सुस्त तबाही’ में तब्दील होती जा रही है, नतीजतन सरकार का मुख्य ध्यान अब अर्थव्यवस्था, शिक्षा और सामाजिक सेवाओं के पुनरुद्धार के साथ-साथ कोविड-19 के खिलाफ एक लंबी जंग की तरफ चला गया है। वैसे, वैक्सीन को लेकर झिझक भी दिखाई देती है। फरवरी, 22 में कोविड-रोधी टीके जितनी मात्रा में लोगों को दिए गए, वे जनवरी, 2022 की तुलना में आधे थे और पिछले नौ महीनों में सबसे कम।
आपात स्थितियों में सरकार के समग्र प्रयास संबंधी नजरिये का वैश्विक अनुभव यही बताता है कि यह काम राजनीतिक और प्रशासनिक नेतृत्व द्वारा पारंपरिक बंधनों को तोड़ने के लिए किया जाता है। विशेष रूप से, केंद्रीय संरचनाओं के भीतर समन्वय तंत्र बनाए जाते हैं, जो कैबिनेट और/या कोर ग्रुप की रणनीतिक भूमिका को आगे बढ़ाते हैं। इसमें औपचारिक सहयोग की पारंपरिक व्यवस्थाओं को दरकिनार करते हुए, सहयोग और समन्वय बढ़ाने के लिए क्षेत्रीय अधिकारियों पर प्रभाव डाले जाते हैं।
(प्रोफेसर व अध्यक्ष, कम्युनिटी हेल्थ, जेएनयू, नई दिल्ली)