COVID19 : चुनाव खत्म हुआ, अब महामारी पर ध्यान दे सरकार

क्या हिंसक झपड़, घायल लोग, कार्यकर्ता और नेताओं की मौत सियासत में सिर्फ आंकड़ा है। अगर ऐसा है, तो यह घिनौना है। जिस वीभत्स बलात्कार को लेकर पांच मई को देशभर में मूक प्रदर्शन किया गया, वह कोरी अफवाह निकली। इसपर कोई पचतावा करेगा, क्या?

नई दिल्ली। पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव (Assebly Election) में जिस तरह से केंद्र सरकार के तमाम मंत्री भाजपा (BJP) के पक्ष में प्रचार करने में व्यस्त थे, वह समय अब बीत चुका है। जनता अब मांग कर रही है कि कोरोना महामारी से पूरी तत्परता से सरकार लडे। जनता को इससे जल्द छुटकारा चाहिए। खेला शेष हो गया। खेला खत्म, पैसा हजम। सरकार बन गई। अब क्या गड़ा है ? बंगाल (West Bengal) में जान अटकी पड़ी है। छड़ यार। दिल कर बड़ा। लग जा अब पिशाच लीला को परास्त करने में। हम साथ हैं।
प्रबंधन को चाक चौबंद करिए। पूरी ताकत से लगिए। कोविड (COVID19)को नेस्तानाबूत कीजिए। भारत को बचाईए। आईए, भगवान से मिन्नत करें। वक्त के विकराल जब्ज में हम बाहर निकलें। मौत को परास्त करें। जिंदगी बचा लें ।अवसाद से बाहर निकालें। हौसला जुटाएं। लोगों को बचाने में लग जाएं। दिलो जान से कोविड प्रबंधन को दुरुस्त करें। ताकि मौत का मंज़र तुरंत खत्म हो।

राज्य से लेकर केंद्र सरकार पर कुप्रबंध हावी है। इसे दूर किया जाए। दुआ है कि सब जल्द दुरुस्त हो जाए। समाधान निकले। राहत की सांस मिले। क्या महाराष्ट्र, गुजरात, दिल्ली, तमिलनाडु, आंध्रप्रदेश, हरियाणा, पंजाब, बिहार,झारखण्ड, उत्तर प्रदेश और अब बंगाल। कोई कोना बचा ही नहीं जहां मौत तांडव न कर रहा हो। लोग बेबस हैं। निरीह परिजन पटपटाकर मर रहे हैं। कोई बचाने वाला नहीं। तंत्र – मंत्र सब फेल। दुआ काम नहीं कर रही, दवा कालाबाज़ारियों ने दबा लिया है । अपनों के जाने की चित्कार से विह्वल गांव-गली, अस्पताल,शमशान से सिर्फ रहम की भीख मांगी जा रही है। या खुदा ! जिंदगी को बचा लो। मुश्किल घड़ी में सियासत शोभा नहीं देती।

प्लीज, बंगाल (West Bengal) से बाहर निकल आईए। वहां रणबंकुरा को अब मुक्तकंठ से चंडीपाठ करने दीजिए। आंख तरेरना बंद कीजिए। मर्दानी का जयघोष होने दीजिए। फिलहाल सीबीआई-ईडी और चुनाव आयोग के झाल झम्बाटा को समेटकर बाहर निकल आईए। बंगाल को वैक्सिन दीजिए। लोगों को बचाने दीजिए. राजपाट सम्हालने दीजिए। धरा को संवारने दीजिए।
हां, आज यह बताईए कि केंद्रीय मंत्री वी मुरलीधर रेड्डी को मिदनापुर किसने भेजा ? किसके आदेश पर दुरुह इलाके में गए ? क्या देश के किसी हिस्से में भारत सरकार के मंत्री का रुट लगने से पहले प्रशासनिक इंतजाम की समीक्षा नहीं होती? अगर होती है, तो विदेश राज्यमंत्री के साथ ऐसा क्यों नहीं हुआ ? क्या वहां कोई विदेश मंत्रालय की बैठक थी ? अब तो चुनाव भी नहीं फिर यह तफरीह क्यों ? सियासत चमकाना जरुरी क्यों है ?

पूर्व राज्यपाल तथागत रॉय के हवाले से बंगाल बीजेपी के अंदर से आवाज उठ रही है। उसे कान लगाकर सुनिए। मूल कैडर की उपेक्षा का आंकडा क्यों छिपाया जा रहा है। बात निकली है तो दूर तलक जानी चाहिए। जीतने वाले 75 में से ज्यादातर विधायक बाहरी हैं। उनके हवाले बंगाल में बीजेपी के आगे का सफर कैसे तय होगा ? जैसे आए वैसे चल देंगे। बाहरी भीतरी के खेल में पार्टी का बंटाधार हुआ है। हिसाब कौन देगा कि तीक्ष्ण दिमाग वाले बंगालियों को समझने में भारी भूल हुई है। हार मान लेने में दिक्कत क्या है ?
ज्यादातर हिंदु बहुल इलाकों में बीजेपी को बड़ी हार मिली है। पार्टी की लुटिया डूबोने में तृणमूल, कांग्रेस और वाममोर्चा से बौरो बनाकर लाए गए नेताओं का अहम योगदान है। मुंह फुलाकर बैठे कैडरों को सम्हाला नहीं गया, तो आगे बंगाल की लडाई अधूरी छोड़कर भागना पड़ेगा।

बंगाल का सच मानने को तैयार ही नही। या अभी वजह कुछ और है। बंगाल के बहाने निशाना कहीं और साधा तो नहीं जा रहा। कहीं चर्चा को सियासी मोड देकर व्यवस्था की बदहाली से ध्यान मोड़ने का चालाकी भरा जतन तो नहीं। अगर यह है, तो भीषण कुमगज है। हार के बाद भी अलाप जारी है। बंगाल। बंगाल। बंगाल।…. ममता। ममता। ममता।… अकेली महिला से आखिर किया क्या है ? जो इतनी तल्ख लगी है। हारे तो तमिलनाडु में भी। जयललिता के सूरमा भारतीय जनता पार्टी से साठगांठ के इल्जाम में खेत हो गए। स्टालिन ने चटकनी चटका दी। तमिलनाडु के नए मंत्रिमंडल में गांधी और नेहरु को जगह देकर बता दिया कि हम सात साल से क्या बन रहे हैं? हमे बनाने में पुरखों का ही योगदान है। अस्सी साल में सब गलत शलत ही नहीं हुआ।

बंगाल औऱ तमिलनाडु ही क्यों हार की बात तो केरल में और भी तल्ख है। वहां एक भी नहीं बचे। पूरी लुटिया डूब गई। विजयन के रथ ने यशस्वी मेट्रोमैन की सवारी का कचूमर निकाल दिया। विधानसभा में नामलेवा तक नहीं बचा ।

हां,गम को कम कीजिए। असम की अस्मिता ने बचा लिया। बंगाली और असमी मुस्लिमों का भेद काम कर गया। इनमें बदरुद्दीन अजमल के घालमेल की कोशिश नाकाम रही। बाहरी हेमंत बिस्वा सरमा के कंधे पर बैठकर ब्रह्मपुत्र पार कर गए। अब उनको मुख्यमंत्री बनाईए। वरना अगली बार हिसाब बराबर होते देर नहीं लगेगी। हां, पुडुचेरी को लेकर संतोष कीजिए। खुशियां मनाईए। अरविन्दो की तपोभूमि में दाल गल गई। किरण बेदी की कुर्बानी काम कर गई। एनआर कांग्रेस के एन रंगासामी को खुले दिल से अपनाईए। कांग्रेस से टूटकर भाजपा के टिकट पर विधानसभा पहुंचे रणबांकुरों के साथ राजग की पहली सरकार बनाईए।

ऐसा नहीं है कि हार को पचा लेना कोई नई बात है। हारे तो राजस्थान, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ और उससे पहले दिल्ली और पंजाब में भी थे। तेलंगाना और आंध्र प्रदेश में भी हारे। गुजरात में हार्दिक पटेल ने हरा ही दिया था। वह केशुभाई पटेल, आडवाणी जी और बघेला साहब का बना बनाया संगठन था, जो बचा ले गया। उत्तर प्रदेश में जिस केशव मोर्य को सामने कर चुनाव जीत आए और योगी आदित्यनाथ के हाथों डबल इंजन की सरकार चला रहे हैं, वह जमीन पर दरक गया है। इसका अंदाजा पंचायत चुनाव नतीजों में नहीं लगा है, तो अगले साल फाइनल का इंतजार कीजिए। किसान आंदोलन ने जो पलीता लगाया है, उसकी कसक को महसूस कीजिए, तो आगे की राह आसान होगी। वरना जिद का तो कोई जवाब होता ही नहीं है।