निशिकांत ठाकुर
निर्दयता की हद को पार कर रूह कंपा देने वाली एक दुर्भाग्यपूर्ण घटना आज से करीब 30 साल पूर्व 12 जुलाई, 1991 को उत्तर प्रदेश के पीलीभीत में हुई थी। वहां सिखों का एक जत्था अपने परिवार के साथ बस से तीर्थयात्रा को निकला था। बस में सवार 11 लोगों को पुलिस ने बिना किसी जांच—पड़ताल के जबरन घसीटकर पूरनपुर थानांतर्गत इलाके में उतार लिया और धमोला कुआं फागुनिया घाट तथा पट्टा मौजी इलाके में एनकाउंटर दिखाकर उनकी हत्या कर दी। 11वां शख्स एक बच्चा था जिसका आज तक कोई पता नहीं है। हृदय को चीरकर रख देने वाली इस हत्याकांड के बाद मृतक परिवार की ओर से दिए गए आवेदन पर सर्वोच्च न्यायालय ने सीबीआई जांच के आदेश दिए थे जिसमें सीबीआई ने लखनऊ स्थित विशेष अदालत ने 4 अप्रैल, 2016 को 47 अभियुक्तों को घटना का दोषी करार देते हुए उम्रकैद की सजा सुनाई थी। उत्तर प्रदेश के इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनऊ बेंच ने पीलीभीत में वर्ष 1991 में 10 उन्हीं सिख तीर्थयात्रियों की कथित फर्जी मुठभेड़ में हुई हत्या के मामले में दोषी करार दिए गए पीएसी के 34 पूर्व सिपाहियों की जमानत अर्जी खारिज कर दी। साथ ही अदालत ने उनकी अपीलों पर अंतिम सुनवाई के लिए 25 जुलाई की तारीख तय की है। यह आदेश जस्टिस रमेश सिन्हा और जस्टिस बृजराज सिंह की पीठ ने देवेंद्र पांडेय और अन्य की ओर से दाखिल अपील के साथ अलग से दी गई जमानत अर्जी खारिज करते हुए पारित किया।
कहते हैं कि न्याय में देरी न्याय का इन्कार है। न्याय की परिभाषा के आईने में पीलीभीत के सिख युवकों के फर्जी मुठभेड़ कांड में आए फैसले को देखें, तो पीड़ितों का दर्द नजर आएगा। फैसला सुनने के बाद पीड़िता का दर्द नजर आया था। उनकी आंखों में पच्चीस साल तक भोगी गई जिल्लत का दर्द वर्षों बाद निकला । एक महिला का बयान है- ‘इतनी देर बाद अब इस सजा से हमारे जीवन पर क्या प्रभाव पड़ने वाला है।’ ट्रायल के दौरान 10 आरोपी पुलिसकर्मियों की मृत्यु हो गई। 25 साल तक चले इस मुकदमे में आखिरकार सीबीआई की विशेष कोर्ट ने बचे सभी 47 आरोपियों को दोषी ठहराया। सीबीआई की ओर से मृत्युदंड की मांग पर कोर्ट ने कहा कि मृत्युदंड वास्तव में बहुत छोटी सजा है, जो बहुत कम पीड़ा के बाद समाप्त हो जाती है। आजीवन कारावास की सजा कठोरतम सजा है, क्योंकि सजा भोगने वाला रोज जीता और मरता है। उसके दिमाग में रोज यह विचार पनपता है कि उसने ऐसा क्यों किया।
जब भी कोई अपराध होता है तो उसकी सूचना पुलिस को दी जाती है। पुलिस का पहला काम मुकदमा दर्ज करना और फिर दोषियों को गिरफ्तार करना होता है। यह अलग बात है कि हर मुकदमे में सीधी गिरफ्तारी की जरूरत नहीं होती, बल्कि कुछ प्रारंभिक जांच-पड़ताल करनी होती है और फिर जरूरी समझने पर गिरफ्तारी होती है। पुलिस किसी हो चुके अपराध की या होने वाले अपराध की गुप्त सूचना के आधार पर भी संदिग्ध व्यक्ति को गिरफ्तार कर सकती है। फौजदारी मामलों में अक्सर दोषी की गिरफ्तारी जरूरी समझी जाती है। कई बार मुकदमे का सच खोजने के लिए, माल बरामद करवाने के लिए, अपराध के लिए इस्तेमाल किए गए हथियार बरामद करवाने के लिए या फिर अंध अपराध (जिनमें दोषी नामजद न हों) के लिए दोषियों का पता लगाने के लिए संदिग्ध व्यक्तियों की गिरफ्तारी आवश्यक हो जाती है। दोषियों को गिरफ्तार करने में हो रही देरी से भी मुद्दई पक्ष का जांच एजेंसियों तथा न्याय प्रणाली से विश्वास उठने लगता है, इसलिए अधिकतर मुद्दई पक्ष दोषियों की गिरफ्तारी की मांग को लेकर उच्चाधिकारियों और फिर उच्च अदालतों तक पहुंचता है। इस लिहाज से इस अपराध के लिए मुलजिम की गिरफ्तारी न्याय प्रणाली का एक अहम हिस्सा बन चुकी है।
सेवानिवृत्त न्यायाधीश एमपी सिंह पहवा बताते हैं कि पुलिस का प्रारंभिक कार्य किसी अपराध की जांच करना, सबूत जुटाना और फिर मामला अदालत में पहुंचाने का होता है। जिस मामले में दोषी नामजद हों, मौके के गवाह सामने आ जाएं, दोषियों की मौके पर ही गिरफ्तारी हो जाए अथवा मौके से कोई ऐसा सबूत हाथ लग जाए जिससे दोषियों का सीधा संबंध हो तो फिर पुलिस को भी जांच करने में कोई कठिनाई नहीं होती। जब अपराध अज्ञात हाथों से किया गया हो, मौके का कोई गवाह न हो और दोषियों तक ले जाने के लिए कोई अन्य सबूत भी हाथ न लगे तो फिर सचमुच पुलिस का कार्य कठिन हो जाता है। पुलिस को विभिन्न थ्योरियों पर काम करना पड़ता है, संदिग्ध व्यक्तियों को काबू करना पड़ता है। ऐसे मामलों में अक्सर पुलिस को गैरकानूनी ढंग अपनाने पड़ते हैं, यानी कुछ सख्ती करनी पड़ती है। यह ठीक है कि आज के युग में तकनीक बहुत विकसित हो चुकी है। फोरेंसिक साइंस भी इस्तेमाल में है, मोबाइल टावरों के माध्यम से, एटीएम का इस्तेमाल भी कई बार दोषियों की तलाश में मददगार साबित हो रहे हैं। इन वैज्ञानिक तथा तकनीकी साधनों के बावजूद पुलिस द्वारा अमावनीय तरीके अपनाए जाते हैं। दोषियों को यातनाएं दी जाती है। इस यातना के लिए साधारण से लेकर असाधारण तरीके तक अपनाए जाते हैं। कई बार पुलिस द्वारा ऐसे अमानवीय तरीके अपनाए जाते हैं जिन्हें सुनकर ही इंसानियत शर्मसार होने लगती है। पिछले वर्ष ‘यातना के विरुद्ध राष्ट्रीय अभियान’ नामक एक गैर-सरकारी संस्था की रिपोर्ट के अनुसार वर्ष 2019 में 125 व्यक्तियों की 124 केसों में पुलिस हिरासत में मौत हो गई थी। अधिकतर अदालतों द्वारा भी मामले की सुनवाई के दौरान पुलिस अत्याचारों के आरोपों का नोटिस लिया जाता है। अब सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश जस्टिस एनवी रमण का बयान भी सामने आया है जिनका कहना है कि पुलिस थानों में न तो मानवीय अधिकार सुरक्षित हैं और न ही शारीरिक तौर पर कोई व्यक्ति सुरक्षित रह सकता है। उनका मानना है कि मानवीय अधिकार तथा सम्मान पवित्र हैं। हिरासत में यातनाओं जैसी समस्याएं आज भी समाज में मौजूद हैं। सीजेआई एनवी रमण के मुताबिक संवैधानिक घोषणाओं तथा गारंटियों के बावजूद प्रभावशाली कानूनी प्रतिनिधित्व की कमी भी गिरफ्तार किए गए या हिरासत में लिए गए व्यक्ति की बड़ी हानि करने के बराबर है। इसलिए पुलिस ज्यादतियों पर नजर रखने के लिए कानूनी सहायता के संवैधानिक अधिकार के बारे में लोगों तक जानकारी पहुंचाना बहुत जरूरी है।
इससे पहले फरवरी में एक सेवामुक्त पुलिस कर्मचारी (दोषी) की अपील की सुनवाई के दौरान भी माननीय सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी थी कि पुलिस थानों में किसी मुजरिम की पिटाई से समाज में डर की भावना पैदा होती है और पुलिस द्वारा ऐसा अत्याचार किसी भी तरह माफी योग्य नहीं है। पुलिस हिरासत में मौत के अन्य कारण भी हो सकते हैं, जैसे— बुढ़ापा, कोई पुरानी बीमारी, डाक्टरी सुविधाओं की कमी, जेल में अवांछित भीड़, पुलिस की कार्यप्रणाली में सुधार की कमी, उनकी जवाबदेही का न होना, फोरेंसिक तकनीक का सही इस्तेमाल न करना भी इस अत्याचार के मुख्य कारण हैं। पुलिस अत्याचार समाज को सहमा देता है। कई बार निर्दोष भी पुलिस अत्याचार के डर से कसूर मान लेते हैं जिस कारण असल दोषी बच निकलते हैं और उससे अन्य जुर्म करने को बढ़ावा मिलता है। पुलिस अत्याचार के खात्मे के लिए अदालत की समय-समय पर टिप्पणियां तथा भारत के मुख्य न्यायाधीश के विचार विशेष ध्यान की मांग करते हैं।
उत्तर प्रदेश और बिहार, महज़ भौगोलिक रूप से ही एक-दूसरे के पड़ोसी नहीं हैं, बल्कि यहां की भाषा, बोली और संस्कृति भी बहुत हद तक आपस में मेल खाती है। इसके अलावा बीते कुछ वर्षों में इन दोनों राज्यों में एक और समानता नज़र आ रही है और वह है महिलाओं के शोषण-उत्पीड़न की समानता, पितृसत्तात्मक राजनीति की समानता और शासन-प्रशासन, कानून व्यवस्था के ध्वस्त होने की समानता। महिलावादी संगठन और नागरिक समाज पहले से ही कहते रहे हैं कि अब नीतीश सरकार भी उत्तर प्रदेश की योगी सरकार के नक्शे क़दम पर चल रही है जहां अपराधियों को सत्ता का संरक्षण हासिल है और पुलिस प्रशासन पीड़ित को ही प्रताड़ित करने में महारत हासिल कर चुका है। बता दें कि सोशल मीडिया पर महिलाओं के शोषण-उत्पीड़न से जुड़ा उप्र के जौनपुर और बिहार के मधेपुरा के दो वीडियो वायरल हो रहे हैं। जौनपुर के वीडियो में कुछ महिलाएं अपने शरीर पर चोटों के निशान दिखा रही हैं। महिलाओं का आरोप है कि पुलिस ने घर में घुसकर जातिसूचक शब्दों का इस्तेमाल करते हुए उनके कपड़े उतरवाकर बुरी तरह से पीटा है और मुंह खोलने पर जान से मारने की धमकी तक दी है। वहीं, बिहार के मधेपुरा के वीडियो में पंचायत ने सरेआम एक महिला के ऊपर बदचलन होने का आरोप लगाकर भरी पंचायत में गरम रॉड और लाठी-डंडों से उसकी पिटाई की। इस दौरान महिला की साड़ी भी खुल गई, लेकिन कोई बीच—बचाव करने नहीं आया। महिला की तब तक पिटाई जारी रही, जब तक कि वह बेहोश नहीं हो गई।
सच तो यह है कि हमारे संरक्षण के लिए ही पुलिस बल का गठन किया गया है, लेकिन पुलिस जैसी गरिमायुक्त संस्थान में कुछ अराजक तत्व घुसकर उसे बदनाम करने का साजिश समय समय पर करते रहते हैं। ये सारे उदाहरण ऐसे ही दुर्दांत पुलिसकर्मियों की है जिन्होंने मानवता को सदैव तार-तार किया है। यदि रक्षक ही भक्षक बनकर सामान्य नागरिकों का भक्षण करने लग जाएंगे तो फिर उसकी रक्षा कौन करेगा! पुलिस सुधार के ढेरों कानून केंद्रीय सरकार और राज्य सरकारों द्वारा बनाए गए, लेकिन परिणाम वही ढाक के तीन पात। दरअसल, जबतक हमारा समाज पूरी तरह शिक्षित नहीं होगा, कभी हमारी पुलिस पीलीभीत की तरह की घटना को अंजाम देकर अपने पर फख्र महसूस करेगी। कभी थाने में थर्ड डिग्री का इस्तेमाल करके निर्दोषों को मार देगी तो कभी किसी निराश्रित महिला को थाने में निर्वस्त्र करके अपमानित करेगी।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक हैं)।