Guest Column : मैं भी काफ़िर, तू भी क़ाफ़िर

भारत में कई नए धर्म आए, लेकिन किसी की प्रचार-प्रक्रिया में यह कहावत किसी ने कभी नहीं सुनी कि किसी को कभी मार-मारकर बौद्ध, जैन या सिख बनाया गया, लेकिन मार-मारकर मुसलमान बनाने की एक कहावत हिंदुस्तान के गांव-गांव में इस तरह फैली है कि किसी भी किस्म की जोर-जबर्दस्ती किए जाने पर एक अनपढ़ आदमी भी कह देता है, क्यों मार-मारकर मुसलमान बना रहे हो।

रीना. एन. सिंह

“सब तेरे सिवा काफिर, आखिर इसका मतलब क्या, सर फिरा दे इंसा का, ऐसा ख़ब्त-ए-मजहब क्या ?

इस्लाम के अनुसार अन्य सभी धर्मों के व्यक्तियों को दो श्रेणियों में बाँटा गया हैं-एक वे जो ईश्वरीय ज्ञान के हिस्सेदार माने गए थे; जैसे-यहूदी और ईसाई। इनको ‘जिम्मी’ पुकारा गया था और वे जजिया (धार्मिक कर्) देकर इस्लामी राज्य में रहते हुए अपने धर्म का पालन कर सकते थे। दूसरे व्यक्ति वे थे जो मूर्तिपूजक थे, और काफिर कहलाते थे। ऐसे व्यक्तियों को इस्लामी राज्य में रहने का अधिकार न था। उन्हें मृत्यु अथवा इस्लाम में से एक को चुनना पड़ता था। तलवार की शक्ति के आधार पर इस्लाम का प्रचार करना यही सभी खलीफाओं का प्रमुख उद्देश्य था और उस समय भारत पूर्णता हिंदुओं और मूर्तिपूजकों का देश था तथा अरबों का मुख्य उद्देश्य मूर्तिपूजकों को नष्ट करना था। अरब समेत पश्चिमी एशिया के देशों से भारत का व्यापार प्राचीन काल से होता रहा था। तथा 636 ई० में अरबो द्वारा किए गए आक्रमण के बाद अनेक अरब व्यापारी भारत के मालाबार समुद्र तट पर आकर बस गए। इस प्रकार अरब लोग भारत की संम्पन्नता और धन के प्रति बहुत आकर्षित थे। इस कारण धन की लालसा भी इनके आक्रमण का एक लक्ष्य था इसमें संदेह नहीं किया जा सकता। दिल्ली में सात सौ साल की सुलतानों-बादशाहों की हुकूमत के दौरान लिखे गए दस्तावेजों में तलवार के जोर पर लगातार हुए धर्मपरिवर्तन के ब्यौरे भरे पढ़े हैं।

अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी ने अरबी और फारसी के नींद हराम कर देने वाले इन डरावने दस्तावेजों का अनुवाद हिंदी में कराया, जिसे अपने नाम को लेकर कोई संशयं या डर हो | वह आइने की तरह अपना चेहरा कत्लोगारत और खूनखराबे से भरे इन भीषण ब्यौरों में देख सकता है। यकीनन उसे अपने बदकिस्मत और बेइज्जत हिंदू, बौद्ध, जैन और पारसी पुरखों के दर्शन इनमें जरूर हो जाएंगे | हर सदी में हजारों की तादाद में वे बेबस माएं दिखाई देंगी, जो गनीमत की शक्ल में हरम में भेजी जाती रहीं। जंग में जीत के बाद जुनूनी सुलतानी-बादशाही फौजों के कहर में देश के कोने-कोने में बेहिसाब नाम बदले गए हैं। पीढ़ियों तक सजा के नाम पर एक नई पहचान उनके माथे से चिपकाई जाती रही, वे अरब, तुर्क और फिर गजनी से आकर सिंध, मुलतान, लाहौर, दिल्ली, बंगाल, गुजरात, कश्मीर, अहमदनगर जैसी अनेक रियासतों पर काबिज होते गए। उनकी बेरहम फौजें दरअसल एक ‘उन्मादी भीड़’ ही थीं, जिनके पास अपने झंडे थे, नारे थे, निशान थे और सबसे ऊपर एक मजहबी जुनून था |

वे खुद को सुलतान, बादशाह, नवाब और निजाम कहा करते थे, जो लगातार जारी रहने वाली बेहिसाब लूट के माल पर पलते थे। उन्होंने अपने आतंक के राज की कीमत इसी देश से वसूली | उनके मजहबी इंसाफ में शिकस्त खाने वालों के सामने सजा के यही दो गौरतलब विकल्प थे-मरो या नाम बदलो, जान बचाने के लिए जिन्होंने दूसरी सजा कुबूल फरमाई, वे बदले हुए नामों के साथ जीने लगे। इस लिहाज से जो खुद को किसी विचारधारा का अमनपसंद अनुयायी मानने के भुलावे में अब तक हैं, वे दरअसल “अनुयायी’ नहीं बल्कि “पीड़ित’ हैं।


(लेखिका उच्चतम न्यायालय की अधिवक्ता हैं।)