Guest Column : कुर्सी के लिए ‘सुशासन बाबू’ने लिया पलटासन का सहारा

कुर्सी पर काबिज रहने के लिए बार बार पाला बदल कर वे बिहार ही नहीं बिहार के बाहर भी अपनी विश्वसनीयता खो चुके हैं। 243 सदस्यीय बिहार विधानसभा में जदयू की मात्र 44 सीटें होने के बावजूद जोड़ तोड़ करके वे राज्य के मुख्यमंत्री तो बन सकते हैं परंतु जोड़-तोड़ की 'कला' में उनकी यह प्रवीणता आगामी लोकसभा चुनावों में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की करिश्माई लोकप्रियता को चुनौती देने का हक नहीं दिला सकती।

कृष्णमोहन झा

नीतिश कुमार 2004 में पहली बार बिहार की जदयू और भाजपा की गठबन्धन सरकार के मुख्यमंत्री बने थे। तब वे पूर्ववर्ती राजद सरकार के कार्यकाल में पनपे अकूत भ्रष्टाचार और निरंकुश समाज विरोधी तत्वों पर अंकुश लगाकर राज्य की जनता की नजरों में सुशासन बाबू बन गए थे लेकिन समय बीतने के साथ ही सत्ता में बने रहने के लिए उन्होंने सुशासन बाबू के रूप में अर्जित अपनी सारी प्रतिष्ठा को दांव पर लगा दिया। नैतिकता और सिद्धांत आज उनके लिए कोई मायने नहीं रखते।नीतिश कुमार ने आज एक बार फिर उसी राजद से हाथ मिला लिया है जिसके शासन काल को कभी वे खुद जंगल राज कहा करते थे।यह निःसंदेह आश्चर्यजनक है कि नीतिश कुमार की पार्टी जनता दल यूनाइटेड की सीटें भाजपा से कम होने के बावजूद उन्हें मुख्यमंत्री पद का जो गौरव मिला वह भी उनके अहं को संतुष्ट नहीं कर सका। यहां यह उल्लेख करना ग़लत नहीं होगा कि 2013 में जब भाजपा ने नरेंद्र मोदी की करिश्माई लोकप्रियता के आधार पर उन्हें तत्कालीन चुनावों में भावी प्रधानमंत्री के रूप में प्रोजेक्ट करने का फैसला किया था तब भी उस फैसले से नाराज़ होकर उन्होंने राजग से 17 साल पुराना रिश्ता एक झटके में तोड़ दिया था जिसकी असली वजह नीतिश कुमार की अपनी महत्त्वाकांक्षा थी। नीतिश कुमार ने उसके बाद लालू प्रसाद यादव के साथ समझौता कर लिया । लालू प्रसाद यादव की पार्टी के साथ अपनी पार्टी का गठजोड़ कर नीतिश कुमार ने विधानसभा चुनाव लडा था और राजद की सीटें जदयू से अधिक होने के बावजूद उस गठबंधन सरकार में उनकी वरिष्ठता के कारण पुनः उन्हें मुख्यमंत्री बनने का सौभाग्य मिला। परंतु कुछ ही समय पश्चात् उन्होंने राजद का साथ छोड़ कर एक बार फिर भाजपा से हाथ मिला लिया। गौरतलब है कि उस समय लालू यादव ने अपने इस पुराने दोस्त को पलटूराम कह कर तंज कसा था परंतु राजनीति में दोस्ती या दुश्मनी कभी स्थाई नहीं होती। लालू प्रसाद यादव के बेटे तेजस्वी यादव और नीतिश कुमार मिलकर अब नयी सरकार की रूपरेखा तय कर रहे हैं । उन्हें कांग्रेस और मार्क्सवादी मोर्चा सहित कुल 7 राजनीतिक दलों ने समर्थन दे दिया है।कल तक सत्ता का हिस्सा रही भाजपा राज्य विधानसभा के अंदर अब विपक्षी दल की भूमिका में होगी। भाजपा नीतिश के इस कदम को जनादेश का अपमान और जनता से विश्वासघात बता रही है । भाजपा ने नीतिश को याद दिलाया है कि भाजपा ने ही उन्हें मुख्यमंत्री की कुर्सी तक पहुंचाया लेकिन वे भाजपा को धोखा देने में कोई संकोच नहीं किया। उधर नीतिश कुमार ने भाजपा से जदयू के संबंध विच्छेद के लिए भाजपा को ही जिम्मेदार ठहराते हुए यह आरोप लगाया है कि भाजपा पिछले काफी समय से उन्हें न केवल अपमानित कर रही थी बल्कि जदयू को कमजोर करने की साज़िश भी कर रही थी। हाल में ही नई दिल्ली में आयोजित नीति आयोग की बैठक में नीतिश कुमार की अनुपस्थिति को भाजपा से उनकी बढ़ती दूरी का संकेत माना जा रहा था। नवनिर्वाचित राष्ट्रपति श्रीमती द्रौपदी मुर्मू के शपथग्रहण समारोह में भी नीतिश कुमार शामिल नहीं हुए थे। अभी कुछ दिन पहले ही जदयू के पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष तथा पूर्व केंद्रीय मंत्री रामचंद्र प्रसाद सिंह को पिछले दस सालों में उनके द्वारा अर्जित संपत्ति के मामले में जो कारण बताओ नोटिस जारी किया गया था उसकी मुख्य वजह रामचंद्र प्रसाद सिंह की भाजपा से बढ़ती निकटता को माना जा रहा है। गौरतलब है कि नीतिश कुमार की अनिच्छा के बावजूद रामचंद्र प्रसाद सिंह केंद्रीय मंत्रिमंडल में शामिल हो गए थे। पार्टी से मिले कारण बताओ नोटिस ने रामचंद्र प्रसाद सिंह को इतना कुपित कर दिया कि उन्होंने जदयू की सदस्यता से इस्तीफा दे दिया। उन्होंने नीतिश कुमार पर तंज कसते हुए यहां तक कह दिया कि नीतिश सात जन्मों में भी प्रधानमंत्री नहीं बन पाएंगे।
बिहार में सत्ता के समीकरण बदलने से लालू यादव की पार्टी राजद के बेटे तेजस्वी यादव खुशी से फूले नहीं समा रहे हैं। नीतिश की भाजपा से लड़ाई में राजद की तो लाटरी ही लग गई है। गौरतलब है कि राज्य के गत विधानसभा चुनावों में राजद सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरी थी परन्तु जदयू और भाजपा के चुनावी गठबंधन के कारण वह सत्ता सुख प्राप्त करने से वंचित रह गई थी। इसके पहले जदयू के साथ गठजोड़ कर के राजद को जब सत्ता में आने का मौका मिला था तब नीतिश कुमार अपनी राजनीतिक वरिष्ठता का लाभ लेकर मुख्यमंत्री पद पर आसीन हो गए थे।उनकी सरकार में तेजस्वी और तेज प्रताप यादव उपमुख्यमंत्री बनाया गया था। लेकिन नीतिश कुमार ने कुछ समय बाद पाला बदल कर भाजपा के साथ गठजोड़ कर लिया और राजद विपक्षी दल की भूमिका निभाने के लिए मजबूर हो गया। नीतिश कुमार ने भले ही 8 वीं बार मुख्यमंत्री पद की शपथ लेकर रिकार्ड कायम किया है परंतु यह रिकार्ड उन्हें किसी गर्वानुभूति की अनुमति नहीं देता । 8 में से 5 बार तो वे पाला बदलकर मुख्यमंत्री बने हैं और आज जब वे राजद के समर्थन से एक बार फिर मुख्यमंत्री की कुर्सी पर काबिज होने में सफल हो गए हैं तब कोई भी दावे के साथ यह नहीं कह सकता कि अब वे राजद‌ का साथ कभी नहीं छोड़ेंगै।
नीतिश कुमार ने जिस तरह एक बार फिर राजद के साथ गठजोड़ कर भाजपा को बिहार में सत्ता सुख से वंचित कर दिया है उससे कई सवाल भी उठ रहे हैं। इसमें कोई संदेह नहीं कि नीतिश कुमार बिहार की राजनीति में ऐसे पलटूराम साबित हो गए हैं जिनके लिए सत्ता सुख ही सर्वोपरि है परंतु भाजपा को भी यह सवाल खुद से पूछना चाहिए कि क्या उसने एकाधिक गैर भाजपा शासित राज्यों में सत्ता की दहलीज तक पहुंचने के लिए इसी तरह की राजनीति का सहारा नहीं लिया है।ऐसा लगता है कि नीतिश कुमार को भी शायद यह चिंताने लगी थी कि देर सबेर भाजपा बिहार में जदयू के कुछ विधायकों को अपने प्रभाव में लाने की कोशिश कर सकती है इसलिए ऐसी स्थिति आने के पूर्व ही उन्होंने एक बार फिर भाजपा से रिश्ता तोड़ कर राजद के नेतृत्व वाले महागठबंधन से गठजोड़ कर लिया। नीतिश कुमार को अब 164 विधायकों का समर्थन प्राप्त है जिसमें जदयू के 44, राजद के 79, कांग्रेस के 19, वामपंथी मोर्चा के 16 , हिंदुस्तानी अवामी मोर्चा अवामी मोर्चा के 5 और 1 निर्दलीय विधायक शामिल हैं। इसमें कोई संदेह नहीं कि नीतिश कुमार की नई सरकार के पास पहले से ज्यादा आसान बहुमत है ।कल तक वे जदयू और भाजपा की जिस गठबन्धन सरकार मुख्यमंत्री थे उसे तो मात्र 124 विधायकों का समर्थन प्राप्त था। सवाल यह उठता है कि क्या वे नई सरकार अपनी मर्जी से चला पाएंगे अथवा मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बने रहने के लिए उन्हें राजद की मर्जी को तरजीह देने के लिए मजबूर होना पड़ेगा। नीतिश कुमार शायद यह भूल गए हैं कि पिछली बार जब उन्होंने राजद नीत महागठबंधन के साथ मिलकर सरकार बनाई थी तब सत्ता संचालन में लालू पुत्रों की असहनीय हस्तक्षेप के कारण ही भाजपा की शरण में जाना पड़ा था। इस बार भी उसी तरह के हस्तक्षेप की आशंकाओं वे कैसे नकार सकते हैं। यह संभावना अधिक है कि कुर्सी पर बने रहने के लिए परिस्थितियों से समझौता करने का विकल्प चुन सकते हैं। एक संभावना यह भी व्यक्त की जा रही है कि आगे चलकर नीतिश कुमार मुख्यमंत्री की कुर्सी पर तेजस्वी यादव को बिठा कर 2024 के लोकसभा चुनावों में विपक्ष की ओर से प्रधानमंत्री पद के संयुक्त उम्मीदवार बनने के लिए जोड़ तोड़ कर सकते हैं। अभी यह मान लेना जल्दबाजी होगा कि नीतिश कुमार के मन में ऐसी कोई महत्वाकांक्षा जाग सकती है।


(लेखक IFWJ के पुर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष है)