Guest Column : ‘धरती के स्वर्ग’ को फिर किसकी लग गई नजर

सबसे बड़ा सवाल यह है कि हमारे लोगों को हमारी कॉलोनियों में क्यों बंद कर दिया गया ? प्रशासन अपनी विफलता क्यों छुपा रहा है ? लोग ये भी सवाल उठा रहे हैं कि यहां सुरक्षाकर्मी भी सुरक्षित नहीं हैं, फिर वे आम नागरिक को कैसे बचा पाएंगे। कश्मीर में बदले हालात के बीच कश्मीरी पंडित और अन्य अल्पसंख्यक कर्मचारी घाटी को छोड़कर जम्मू का रुख कर रहे हैं। कुलगाम, बांदीबोरा, अनंतनाग, शोपियां समेत अन्य जिलों में जम्मू संभाग के हजारों कर्मचारी कार्यरत हैं। लेकिन, सभी डरे हुए हैं और पलायन के बारे में सोच रहे हैं।

निशिकांत ठाकुर

भारत का स्वर्ग कहलाने वाला कश्मीर फिर हिंसा की आग में धधक उठा है। ऐसा लगता है, यह अपने 1990 के दशक का इतिहास फिर से दुहराने जा रहा है। घाटी से पलायन फिर शुरू हो गया है और भारतीय गणराज्य के सबसे ताकतवर केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह स्वयं इस पलायन को रोकने और स्थिति को नियंत्रित करने के लिए पिछले सप्ताह गृह मंत्रालय में बैठक करके टारगेट किलिंग रोकने और कश्मीर के हालात को नियंत्रित करने तथा पलायन रोकने के संबंध में कई फैसले लिए हैं। कई निर्णयों में यह भी था कि घाटी से पूर्णतः आतंकवाद को समाप्त किया जाएगा, सीमा पर घुसपैठ शून्य किया जाएगा, घाटी से पलायन करने वालों को रोका जाएगा। जहां तक जम्मू-कश्मीर से पलायन कर रहे हिंदुओं की बात है तो पलायन कर रहे लोगों ने कहा कि जम्मू, जम्मू और कश्मीर में स्थिति बदतर होती जा रही है। 30-40 परिवार शहर छोड़कर जा चुके हैं। घाटी से पलायन करने वालों का कहना है कि हमारी मांग पूरी नहीं हुई। उनके (सरकार के) सुरक्षित स्थान केवल शहर के भीतर हैं, श्रीनगर में कोई सुरक्षित स्थान उपलब्ध नहीं है। पीएम पैकेज के तहत लौटे एक कर्मचारी ने कहा कि कश्मीरी पंडित अब कश्मीर घाटी से फिर जम्मू पहुंच रहे हैं। उनका कहना है कि हालात अब 1990 से भी बुरे हैं ।

मई के चौथे सप्ताह में श्रीनगर, अनंतनाग और पहलगांव जाने के अवसर मिला। वैसे तो अपने कार्यकाल के दौरान कई बार कार्य के सिलसिले में कश्मीर जाने का अवसर मिला है, लेकिन सच में कश्मीर भारत में रहने वालों के लिए स्वर्ग जैसा है। इन स्थानों पर रहने के बाद इसे देखकर हृदय व्यथित हो जाता है कि इस स्वर्ग प्रदेश को किसकी नजर लग गई। श्रीनगर में डल झील के घाट 14 के ठीक सड़क के उस पार सबसे बड़े दुकान के 80 वर्षीय मालिक ने बातों—बातों में बताया कि दो साल तो कोरोना ने और एक वर्ष धारा 370 ने कश्मीर के लोगों को भूखों मरने के लिए विवश कर दिया। इस वर्ष पर्यटकों से उम्मीद जगी है और अच्छा लगता है कि अब कश्मीर फिर से आबाद हो रहा है। लेकिन, फिर जब दूसरे दिन उसी बुजुर्ग से बात हुई तो वह बिलख रहे थे। उनका कहना था कि शायद हम कल तक मुगालते में थे, क्योंकि कश्मीर के हालात फिर से बिगड़ रहे हैं। श्रीनगर में ही एक राष्ट्रीय अखबार के ब्यूरो प्रमुख से बात हुई। उनका कहना था कि अब ऊपरी आतंकवाद दिखाई नहीं देता है, क्योंकि यहां दूसरे तरह के आतंकवाद ने जन्म ले लिया है। वह खुलकर आतंक नहीं मचाता और न ही स्लीपर सेल जैसा काम करता है। उसका रिकार्ड भी गुप्तचर एजेंसी के पास नहीं है और वह घर से गायब भी नहीं है। वह आतंकी गतिविधियों में संलिप्त भी नहीं रहता, लेकिन घटना को अंजाम देकर गायब हो जाता है। दिल को दहला देने वाली यह बात सुनकर कोई भी भयभीत हो सकता है, लेकिन यही आज के कश्मीर का कड़वा सच है। इसके कारण ही गृहमंत्री को उपराज्यपाल, राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार के साथ बैठक करके सरकार को आतंकियों के खिलाफ योजना बनानी पड़ रही है कि इस प्रकार के आतंकवाद को समाप्त कैसे किया जाए। दुर्भाग्यपूर्ण बात तो आज तक यही रही है कि चाहे कोई भी सरकार हो हम पिछली सरकार को ही हमेशा जनता के बीच कठघरे में खड़ा करने में लगे रहते हैं।

घाटी के कई स्थानीय निवासियों का यह भी कहना था कि ऐसा वही युवा कर रहे हैं जो कट्टर इस्लामिक फोबिया से ग्रस्त हैं। वे पाकिस्तानी भी नहीं हैं, लेकिन कट्टर इस्लामिक सोच से पीड़ित हैं। इन बातों को और पुख्ता करते हुए बेताब वैली के नाम से मशहूर घाटी में भी कई स्थानीय व्यवसायियों ने भी कहा कि भूखा—नंगा देश पाकिस्तान हमारे देश के खिलाफ साजिश कर सकता है, लेकिन सच तो यह है कि जब हमारे युवा ही गुमराह हो चुके हैं तो फिर उनके लिए क्या कहा जा सकता है। उनका आरोप था कि सारा खेल राज्य के सियासतदानों का होता है, जो कुर्सी पर काबिज होने के लिए कुछ भी कर सकते हैं। ऐसे युवकों को अपने ही देश के सियासतदान आतंक फैलाने के लिए पैसा देते हैं। ऐसे राष्ट्रद्रोहियों के पास धन की कोई कमी नहीं है। ऐसी स्थिति में कट्टर मुस्लिम फोबिया वाले युवा यही चाहते हैं कि घाटी फिर से खाली हो जाए और वहां उनका ही सिक्का चलता रहे। कश्मीर में टारगेट किलिंग के बढ़ते मामलों के बाद पैदा हुए मौजूदा हालात और कश्मीरी हिंदुओं में बढ़ती दहशत को देखते हुए श्रीनगर में तैनात 177 कश्मीरी हिंदू अध्यापकों को सुरक्षित स्थानों पर स्थानांतिरत कर दिया गया है। यही नहीं, कश्मीरी हिंदू आवासीय कालोनी, कार्यालयों में भी सुरक्षा को बढ़ा दिया गया है, ताकि भविष्य में टारगेट किलिंग पर पूरी तरह से रोक लगाई जा सके। इसके अलावा कश्मीर के जिन इलाकों में दूसरे राज्यों से आए श्रमिक रह रहे हैं, वहां पुलिस गश्त को भी बढ़ाया गया है। चीफ एजुकेशन आफिसर ने इस संबंध में आदेश जारी करते हुए श्रीनगर के दूरदराज इलाकों में तैनात कश्मीरी हिंदू अध्यापकों का जिला मुख्यालयों में ट्रांसफर और एडजस्टमेंट किया है। प्रदेश सरकार के आदेश पर कश्मीरी हिंदुओं की सुरक्षा को यकीनी बनाने के लिए ही यह कदम उठाए गए हैं।

कुछ स्थानीय निवासियों का यह भी कहना है कि कश्मीर में मौजूदा आतंकी हिंसा पूरी तरह से वैश्विक इस्लामिक आतंकवाद का हिस्सा है। कश्मीर में हालात सामान्य और आतंकवाद पर काबू पाने के अपने दावों को सही ठहराने के लिए सरकार और सुरक्षा एजेंसियाें ने स्थानीय आतंकियों की बढ़ती संख्या से जुड़े सवालों से बचने के लिए ‘हाइब्रिड आतंकी’ नामक एक नया नाम गढ़ा है। यह नए आतंकी ज्यादा खतरनाक हैं, क्योंकि यह पूरी तरह इस्लामिक कट्टरपंथी विचारधारा से प्रभावित हैं और गैर मुस्लिमों, विशेषकर हिंदुओं को कत्ल करना अपना मजहबी फर्ज मानते हैं। यह सिस्टम की खामियों को अच्छी तरह पहचानते हैं। आतंकी यह जानते हैं कि सीधे फौज या पुलिस से लड़कर वह अपने मकसद में कभी कामयाब नहीं हो सकते, इसलिए सीधे आम लोगों को, विशेषकर गैर मुस्लिमों को निशाना बनाया जाए। इनके लिए हिंदुस्तान का साथ देने वाले कश्मीरी मुस्लिम भी काफिर हैं और जम्मू कश्मीर पुलिस या सेना व किसी अन्य सुरक्षा एजेंसी में कार्यरत कोई भी भी मुस्लिम काफिर ही है और उनका कत्ल जायज है। यह कश्मीर की आजादी के नाम पर आतंकी नहीं बने हैं, यह जिहाद और इस्लाम के नाम पर कत्ल कर रहे हैं। कश्मीर में इनके और इनके हैंडलरों के लिए पूरा इकोसिस्टम कश्मीर में मौजूद है। जम्मू-कश्मीर से आए दिन आतंकी गतिविधि की खबर आती है और इन गतिविधियों में सेना, पुलिस, सुरक्षा बलों के जवानों और आम नागरिकों को अपनी जान गंवानी पड़ती है। अभी तक सेना के कई वीर जवान आतंकियों से मुकाबला करते हुए शहीद हो चुके हैं। अगर पिछले कुछ सालों की ही बात करें तो जम्मू कश्मीर में आतंकी हमलों में सुरक्षा बलों और आम नागरिकों को कितना नुकसान हुआ है तो समझते हैं कि इन हमलों में कितने लोगों की मौत हुई और कितने लोग घायल हो गए हैं… इस साल की शुरुआत से ही लगातार कई घटनाएं हुई हैं, जिनमें राज्य के बाहर से आए मजदूरों, अल्पसंख्यक हिंदुओं या फिर मुस्लिम समुदाय के उन लोगों को निशाना बनाया गया है, जिन्होंने भारतीय लोकतंत्र में भरोसा जताया। बीते पांच महीने में ही टारगेट किलिंग्स में 13 लोगों की मौत हो चुकी है, जबकि 10 लोग जख्मी हुए हैं। इन आतंकी हमलों में मरने वाले लोगों में चार सुरक्षाकर्मी भी शामिल हैं, जिनमें तीन मुस्लिम समुदाय से थे। इसके अलावा छह स्थानीय मुस्लिम भी हैं। इनमें पंच, सरपंच और टीवी आर्टिस्ट शामिल हैं।

पिछले दिनों अपनी कश्मीर यात्रा के दौरान सरकार पर भरोसा करना भी ठीक लगा कि घाटी में चप्पे—चप्पे पर सेना के जवानों की निगरानी है, जिन्हें देखकर यह अनुमान लगाया जा सकता है कि इतनी सतर्कता के बावजूद आतंकियों को किसी घटना को अंजाम देने के लिए सोचना पड़ता होगा। लेकिन, आतंकियों ने वहां के निवासियों में इतना डर पैदा कर दिया है कि सेना के जवानों के पास जाने से लोग कतराते हैं। उनका कहना है कि आतंकियों का निशाना सेना के जवान भी होते हैं, लेकिन यदि आम आदमी कोई उनसे बात कर रहा होता है तो वह उसकी आड़ में जवानों को ढेर कर देते हैं। सेना के ऐसे कई जांबाज जवानों से बात भी हुई, जिनका मानना था ऐसे बहके हुए युवा अपना जीवन अनिश्चितता में जी रहे होते हैं, लेकिन उन्हें भी अपने जान की परवाह है, इसलिए वे सामने से वार नहीं करते हैं। छुपकर हमला करते हैं। यदि सामने से लड़ें तो हम भारतीय सेना हैं, हमारे सामने ठहर कहां पाएंगे! अपने को भारतीय सेना के जवान होने पर फख्र करते हुए वे गर्व से सीना ताने खड़े थे।

अब प्रश्न यह उठता है कि इतनी मजबूत सुरक्षा घेरे को तोड़कर ये आतंकी किस प्रकार वारदात को अंजाम देने में सफल हो जाते हैं? तो यह माना जा सकता है कि कुछ न कुछ स्थानीय पुलिस-प्रशासन का घाल-मेल जरूर होगा अन्यथा घाटी में फिर से 1990 की स्थिति को वापस लाना इतनी सुरक्षा के बावजूद अविश्वनीय है। इस स्थिति में सुधार तभी संभव है जब केंद्रीय गृहमंत्री द्वारा जो दिशा—निर्देश अपने अधिकारियों को दिए गए हैं, उसका पूरा पूरा पालन हो और जो युवक कट्टर मुस्लिम फोबिया से पीड़ित हैं उन्हें चुन—चुनकर किसी तरह आत्मसमर्पण के लिए मजबूर किया जाए। उन्हें भरोसा दिलाया जाए कि वह सही रास्ते पर चलें, जैसा कि भारतीय संपूर्ण क्रांति के बिगुल फूंकनेवाले महानायक लोकनायक जयप्रकाश नारायण ने 16 अप्रैल, 1972 चंबल की घाटी में दुर्दांत डकैतों से आत्मसमर्पण कराया था। सुखद संयोग यह है कि आज भी सर्वोच्च सत्ता में बैठे हुए अधिकांश वरिष्ठ राजनीतिज्ञ लोकनायक जयप्रकाश नारायण से किसी—न—किसी रूप में जुड़े रहे हैं और उनके सिद्धांतों को माननेवाले केंद्रीय सरकार चला रहे हैं या सरकार के सहयोगी हैं।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार तथा राजनीतिक विश्लेषक हैं)