जनमानस से वैश्विक स्तर पर हिंदी की पहचाने बना रही है सरकार

 

अनंत अमित

हिन्दी को लेकर एक बार फिर उत्तर से दक्षिण तक बहस छिड़ी हुई है। विभिन्न पक्ष अपने-अपने तर्क और राजनीतिक हितों के आधार पर विचार रख रहे हैं। तमिलनाडु के मुख्यमंत्री स्टालिन ने तो यहां तक कह दिया कि सरकारी दफ्तरों से हिन्दी को हटाकर तमिल को लागू किया जाए, यह तर्क देते हुए कि हिन्दी अन्य भाषाओं को समाप्त कर देगी। संविधान के अनुच्छेद 343 में यह स्पष्ट रूप से उल्लेखित है कि राजभाषा हिन्दी और लिपि देवनागरी होगी। 14 सितंबर 1949 को संविधान सभा में लंबी चर्चा के बाद हिन्दी को भारत संघ की राजभाषा का दर्जा दिया गया था। किसी भी देश की राष्ट्रभाषा उसकी अपनी होनी चाहिए, जैसा कि दुनिया के अधिकांश देशों में देखा जाता है।

संविधान के अनुच्छेद 351 में कहा गया है कि हिन्दी का इस प्रकार विकास किया जाए कि वह भारत की सामासिक संस्कृति की अभिव्यक्ति का माध्यम बन सके और इसे सरल एवं सुबोध बनाने के लिए निरंतर प्रयास किए जाएं। भारतीय संविधान में किसी भी भाषा को राष्ट्रभाषा का दर्जा नहीं दिया गया है, हालांकि हिन्दी और अंग्रेजी को आधिकारिक भाषा के रूप में स्वीकार किया गया है। संविधान में 22 भाषाओं को आधिकारिक भाषा के रूप में स्थान दिया गया है, जिनमें से कोई भी भाषा केंद्र या राज्य सरकार अपनी आधिकारिक भाषा के रूप में अपना सकती है।

हिन्दी को राजभाषा बनाने का प्रस्ताव संविधान सभा में दक्षिण भारत के गोपाल स्वामी अय्यंगर ने रखा था। महात्मा गांधी ने 1918 में ही हिन्दी को राजभाषा बनाने की वकालत की थी। उन्होंने कहा था कि हिन्दी जनमानस की भाषा है। भारत के पूर्व प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने संसद में कहा था कि हिन्दी को संघ की सरकारी भाषा के रूप में स्वीकार किया जाना चाहिए और इसे महत्वपूर्ण स्थान मिलना चाहिए। कमलापति त्रिपाठी ने भी संविधान सभा में कहा था कि भाषा संस्कृति का आधार होती है और संस्कृति राष्ट्रों के इतिहास और जीवन की नींव होती है।

संविधान लागू होने के समय यह प्रावधान रखा गया था कि 1965 तक अंग्रेजी का प्रयोग किया जा सकता है। इससे पहले ही 1957 में डॉ. राम मनोहर लोहिया ने ‘अंग्रेजी हटाओ’ आंदोलन को सक्रिय कर दिया। उनका मानना था कि हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाना चाहिए और सरकारी कार्यों में इसका अधिक से अधिक उपयोग होना चाहिए। उन्होंने कहा था कि मातृभाषा के बिना लोकतंत्र असंभव है। लोहिया का विचार था कि विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका में मातृभाषा का प्रयोग न होने से आम जनता की लोकतंत्र में भागीदारी सीमित हो जाती है।

हिन्दी के महत्व को देखते हुए इसे अखिल भारतीय स्तर पर अपनाने की जरूरत है। यह भारत की सबसे बड़ी भाषा है, जिसे देश के विभिन्न भागों में आसानी से समझा जाता है। इसके अलावा, व्यावसायिक और सांस्कृतिक आदान-प्रदान में हिन्दी एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है।

14 सितंबर, 2024 को केंद्रीय गृह एवं सहकारिता मंत्री श्री अमित शाह ने एक समारोह में अपना वक्तव्य देते हुए कहा था कि पिछले 75 साल की यात्रा हिन्दी को राजभाषा के रूप में स्वीकार कर इसके माध्यम से देश की सभी स्थानीय भाषाओं को जोड़ते हुए अपने संस्कार, संस्कृति, भाषाओं, साहित्य, कला और व्याकरण को संरक्षित और संवर्धित करने की यात्रा रही है। उन्होंने कहा कि हिंदी की 75 वर्षों की यह यात्रा अब अपने उद्देश्यों को प्राप्त करने के अंतिम पड़ाव पर खड़ी है और आज का दिन हिंदी को संपर्क, जन भाषा, तकनीक और अंतर्राष्ट्रीय भाषा बनाने का दिन है। केन्द्रीय गृह मंत्री ने कहा कि आज भारतीय भाषा अनुभाग का शुभारंभ हुआ है और हम सब जिस छोटे से बीज के बोए जाने के साक्षी बने हैं, वह आने वाले वर्षों में एक वटवृक्ष बन कर हमारी भाषाओं की सुरक्षा का केन्द्र बनेगा। भारतीय भाषा अनुभाग राजभाषा विभाग का पूरक अनुभाग बनेगा। श्री अमित शाह ने कहा कि राजभाषा का प्रचार-प्रसार तब तक नहीं हो सकता जब तक हम अपनी सभी स्थानीय भाषाओं को मज़बूत न करें और राजभाषा का इनके साथ संवाद स्थापित न करें।
श्री अमित शाह ने कहा कि हिंदी और स्थानीय भाषाओं के बीच कभी स्पर्धा नहीं हो सकती क्योंकि हिंदी सभी स्थानीय भाषाओं की सखी है। उन्होंने कहा कि हिंदी और स्थानीय भाषाएं एक दूसरे की पूरक हैं और इसीलिए भारतीय भाषा अनुभाग के माध्यम से हिंदी और सभी स्थानीय भाषाओं के बीच संबंध को और मज़बूत किया जाएगा। उन्होंने कहा कि भारतीय भाषा अनुभाग हिन्दी के किसी भी लेख, भाषण या पत्र भावानुवाद देश की सभी भाषाओं में करेगा। इसी प्रकार देश की सभी भाषाओं के साहित्य, लेख और भाषणों का अनुवाद हिंदी में होगा, जो समय की ज़रूरत है।

1948 में अंतरराष्ट्रीय भाषाविद सम्मेलन (पेरिस) में डॉ. सुनीत कुमार चाटुर्ज्या ने प्रस्ताव रखा था कि हिन्दी दुनिया की तीसरी सबसे अधिक बोली जाने वाली भाषा है और इसे संयुक्त राष्ट्र की आधिकारिक भाषाओं में शामिल किया जाना चाहिए। रवींद्रनाथ ठाकुर, महात्मा गांधी और अन्य मनीषियों ने शिक्षा और प्रशासन में भारतीय भाषाओं को बढ़ावा देने पर बल दिया था। गांधीजी का मानना था कि शिक्षा का माध्यम भारतीय भाषाएं होनी चाहिए, जैसा कि जापान और अन्य देशों में देखा जाता है।

हिन्दी केवल एक भाषा नहीं, बल्कि भारतीय संस्कृति की आत्मा है। यह हमारी भावनाओं और विचारों की सहज अभिव्यक्ति का माध्यम है। सुमित्रानंदन पंत और सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ ने हिन्दी को सशक्त और समृद्ध भाषा बताते हुए इसे जनता की शक्ति का माध्यम कहा। हिन्दी को राष्ट्रभाषा के रूप में स्थापित करने और इसके अधिकतम प्रयोग के लिए निरंतर वैचारिक अभियान आवश्यक है।

(लेखक राजनीतिक समीक्षक हैं।)