थियेटर करना /शिरीष कुमार मौर्य की कविता/2006

एक छोटे क़स्बे में थियेटर करना सबसे पहले उस क़स्बे के सबसे अमीर और अय्याश आदमी के आगे खड़े होकर चंदा मांगना है और वो भी एक हक़ तरह उसे हर साल होने वाली रामलीला, धर्मगुरुओं-साध्वियों आदि की प्रवचन संध्याओं, बड़े अंग्रेज़ी स्कूलों के सालाना जलसों में अनुस्यूत डी.जे. आदि और अपने इस होनेवाले नाटक के बीच एक नितान्त अनुपस्थित साम्य को समझाना है थियेटर करना सरकारी दफ़्तरों के चक्कर लगाना है मदद के वास्ते घूसखोर अफ़सरों को पहचानना और पुराने परिचितों को टटोलना है थियेटर करना एक सही और समझदार आदमी अचानक मिल सकता है अचानक बिक सकती हैं कुछ टिकटें आपको तैयार रहना है और उसी बीच लगा आना है एक चक्कर लाइट और साउंड सिस्टम वाले और उस घी वाले थलथल लाला के यहाँ भी, जिसने मदद का वायदा किया और सुनना है उससे कि ये इमदाद तो हम नुकसान उठाकर आपको दे रहे हैं भाई साहब आपने भी छात्र राजनीति में रहते कभी तंग नहीं किया था हमें ये तो बस उसी का बदला है ! इस तरह पुरानी भलमनसाहत और अहसानात को खो देना है थियेटर करना जब रोशनी और आवाज़ और अभिनय के समन्दर में तैर रहे होते हैं किरदार और दर्शक भी अपना चप्पू चलाते और तालियाँ बजाते हैं ठीक उसी समय सभागार के सबसे पीछे के अंधेरे हाहाकार में अनायास ही बढ़ गए खर्चे का हिसाब लगाना है थियेटर करना नाटक के बाद रंगस्थल से मंच की साज-सज्जा का सामान खुलवाना कुर्सियाँ हटवाना और झाड़ू लगवाना है थियेटर करना जिसमें तयशुदा पैसों में किंचित कमी के लिए रंगमंडल के थके-खीझे किंतु समर्पित निर्देशक से मुआफ़ी माँगना भी शामिल है देर रात की सूनी सड़क पर बीड़ी के कश लगाते बंद हो चुके अपने घरों के दरवाज़ों को खटखटाने जाना है थियेटर करना बूढ़ी होती माँ के अफ़सोस के साथ अवकाशप्राप्त पिता के क्रोध को पचाना और अगली सुबह तड़के कच्ची नींद से उठकर शहर से जाते रंगमंडल को दुबारा बुलाने के उनींदे विश्वास में विदाई का हाथ हिलाना है थियेटर करना कौन कहता है कौन? कि महज एक प्रबल भावावेग में अनुभूत कुशलता के साथ मंच पर जाना भर है थियेटर करना