निशिकांत ठाकुर
सुप्रीम कोर्ट ने 152 वर्ष पुराने अंग्रेजों द्वारा भारतीय आजादी के क्रांतिकार्यों के विद्रोह को दबाने के लिए बनाए गए राजद्रोह कानून की धारा 124ए पर पुनर्विचार की अनुमति देते हुए अगले आदेश तक के लिए रोक लगा दी है। मुख्य न्यायाधीश एनवी रमण, जस्टिस सूर्यकांत और हिमा कोहली की पीठ ने राजद्रोह कानून की वैधानिकता के मुद्दे पर सुनवाई जुलाई के तीसरे हफ्ते तक के लिए टाल दी है। केंद्र ने पिछले सप्ताह कहा था कि वह इस कानून की समीक्षा व पुनर्विचार करने को तैयार है। केंद्र ने संज्ञेय अपराध वाले इस कानून पर रोक लगाने का विरोध किया था और दुरुपयोग रोकने के लिए ऐतिहातिक उपाय के तौर पर पुलिस अधीक्षक की संतुष्टि के बाद ही धारा 124ए में एफआईआर दर्ज करने का प्रस्ताव दिया था। सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार को राजद्रोह कानून की धारा 124ए पर पुनर्विचार के लिए समय दे दिया है। जब तक पुनर्विचार की ये प्रक्रिया पूरी नहीं हो जाती तब तक इस धारा के तहत कोई केस दर्ज नहीं होगा। यहां तक कि धारा 124ए के तहत किसी मामले की जांच भी नहीं होगी। सुप्रीम कोर्ट ने अपने आदेश में कहा है कि धारा 124ए के तहत नया कैस दर्ज होता है तो प्रभावित पक्ष को राहत के लिए संबंधित अदालत जाने की छूट होगी। सुप्रीम कोर्ट ने अदालतों से कहा है कि वे इस आदेश के मद्देनजर और केंद्र के स्पष्ट रुख को देखते हुए मांगी गई राहत की जांच—परख करेगी। आदेश में यह भी कहा गया है कि धारा 124ए के तहत लंबित ट्रायल, अपीलों और आरोप तय करने की प्रतिक्रियाओं पर रोक लगी रहेगी, लेकिन अन्य धाराओं में लगे आरोपों की कार्यवाही जारी रह सकती है, बशर्ते अगर कोर्ट को यह लगे कि इससे अभियुक्त के हित प्रभावित नहीं होंगे। कोर्ट ने कहा कि जिन लोगों पर इस धारा में केस दर्ज हैं, वह जेल में हैं, तो वह भी राहत और जमानत के लिए कोर्ट जा सकते हैं।
152 साल में पहली बार ऐसा हो रहा है जब राजद्रोह के प्रावधान के संचालन पर रोक लगाई गई है। राजद्रोह कानून के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में याचिकाएं दायर की गई हैं। याचिकाकर्ताओं में सेना के सेवानिवृत्त जनरल एसजी वोमबटकेरे और एडिटर्स गिल्ड ऑफ इंडिया शामिल है। चीफ जस्टिस एनवी रमण की अध्यक्षता वाली तीन जजों की बेंच इन याचिकाओं पर सुनवाई कर रही है। सुनवाई के दौरान कोर्ट ने कहा कि ये कानून अंग्रेजों के जमाने का है। यह स्वतंत्रता का दमन करता है। इसे महात्मा गांधी और तिलक जैसे स्वतंत्रता सेनानियों के खिलाफ इस्तेमाल किया गया था। क्या आजादी के 75 साल बाद भी इसकी जरूरत है? पिछले सप्ताह कोर्ट ने इस कानून पर केंद्र से उसकी राय मांगी थी। केंद्र की ओर से दायर हलफनामे में इस कानून पर उचित तरीके से पुनर्विचार की बात कही गई। इस दौरान कोर्ट ने सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता से कहा कि हम साफ कर देना चाहते हैं कि हम दो बातें जानना चाहते हैं- पहला लंबित मामलों को लेकर सरकार का क्या रुख है और दूसरा सरकार भविष्य में राजद्रोह के मामलों से कैसे निपटेगी। इन सवालों के जवाब के लिए कोर्ट ने सरकार को वक्त दिया था। इस पर सॉलिसिटर जनरल ने कहा कि वह सरकार से निर्देश लेकर कोर्ट के सामने उपस्थित होंगे। हालांकि, इससे पहले केंद्र सरकार ने कहा था कि उसने धारा 124ए की समीक्षा और पुनर्विचार का फैसला किया है। उसने आग्रह किया था कि जब तक सरकार फैसला न कर ले, तब तक के लिए सुनवाई को टाल दिया जाए। हालांकि, कोर्ट ने केंद्र का यह आग्रह स्वीकार नहीं किया।
वर्ष 1870 में बने इस कानून का इस्तेमाल अंग्रेजों ने स्वतंत्रता आंदोलन के समय महात्मा गांधी और बाल गंगाधर तिलक जैसे नेताओं के खिलाफ किया था। महात्मा गांधी पर इसका इस्तेमाल वीकली जनरल में ब्रिटिश सरकार के खिलाफ लिखे ‘यंग इंडिया’ नामक लेख लिखने के कारण किया गया था। इसके अलावा देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू और भगत सिंह आदि स्वतंत्रता आंदोलन के दिग्गजों को ब्रिटिश शासन के तहत उनके ‘राजद्रोही’ भाषणों, लेखन और गतिविधियों के लिए दोषी ठहराया गया था। स्वतंत्रता के बाद बिहार निवासी केदारनाथ सिंह पर वर्ष 1962 में राज्य सरकार ने एक भाषण को लेकर राजद्रोह का मामला दर्ज किया गया था जिस पर हाईकोर्ट ने रोक लगा दी थी। उस मामले में सुप्रीम कोर्ट के पांच जजों की संविधान पीठ ने अपने आदेश में कहा था कि राजद्रोही भाषणों और अभिव्यक्ति को सिर्फ तभी दंडित किया जा सकता है, जब उससे किसी तरह की हिंसा या असंतोष या फिर सामाजिक असंतुष्टिकरण बढ़े। इस पर सुप्रीम कोर्ट ने एक महत्वपूर्ण फैसला दिया था। इस मामले में फेडरल कोर्ट ऑफ इंडिया से सहमति जताई थी। सुप्रीम कोर्ट ने केदारनाथ केस में व्यवस्था दी कि सरकार की आलोचना या फिर प्रशासन पर कमेंट भर से राजद्रोह का मुकदमा नहीं बनता। सुप्रीम कोर्ट की संवैधनिक बेंच ने तब कहा था कि केवल नारेबाजी राजद्रोह के दायरे में नहीं आती। वर्ष 2010 को बिनायक सेन पर नक्सल विचारधारा फैलाने का आरोप लगाते हुए उन पर मुकदमा दर्ज किया गया। बिनायक के अलावा नारायण सान्याल और कोलकाता के बिजनेसमैन पीयूष गुहा को भी देशद्रोह का दोषी पाया गया था। इन्हें उम्रकैद की सजा सुनाई गई थी, लेकिन बिनायक सेन को 16 अप्रैल, 2011 को सुप्रीम कोर्ट की ओर से जमानत मिल गई थी।
भारतीय दंड संहिता की धारा 124ए में राजद्रोह की परिभाषा के अनुसार अगर कोई व्यक्ति सरकार-विरोधी सामग्री लिखता या बोलता है, ऐसी सामग्री का समर्थन करता है, राष्ट्रीय चिह्नों का अपमान करने के साथ संविधान को नीचा दिखाने की कोशिश करता है तो उसके खिलाफ आईपीसी की धारा 124ए में राजद्रोह का मामला दर्ज हो सकता है। इसके अलावा अगर कोई शख्स देशविरोधी संगठन के खिलाफ अनजाने में भी संबंध रखता है या किसी भी प्रकार से सहयोग करता है तो वह भी राजद्रोह के दायरे में आता है। कोई भी शख्स किसी तरह से चाहे बोलकर या लिखकर या किसी संकेत से या फिर अन्य तरीके से कानून के तहत बने सरकार के खिलाफ विद्रोह या असंतोष जताता है या सरकार के खिलाफ नफरत, अवहेलना या अवमानना करता है या कोशिश करता है तो दोषी पाए जाने पर उम्रकैद तक की सजा हो सकती है।
राजद्रोह की जो परिभाषा में कहा गया है कि जो भी सरकार के प्रति डिसअफेक्शन, यानी असंतोष, नाखुशी या विरक्ति जताएगा, वह राजद्रोह की श्रेणी में आएगा। इस तरह देखा जाए तो प्रावधान के तहत प्रत्येक स्पीच और अभिव्यक्ति राजद्रोह बनता है और उम्रकैद की सजा का प्रावधान है। सुप्रीम कोर्ट से आग्रह किया गया है कि इस कानून को परखा जाए और विचार अभिव्यक्ति के अधिकार, समानता का अधिकार और जीवन के अधिकार के आलोक में राजद्रोह कानून को गैर संवैधानिक करार दिया जाए। सुप्रीम कोर्ट ने 3 जून 2021 को पत्रकार विनोद दुआ के खिलाफ केस को खारिज कर दिया था और कहा था कि 1962 के केदारनाथ से संबंधित वाद में सुप्रीम कोर्ट ने जो फैसला दिया था उस फैसले के तहत हर पत्रकार प्रोटेक्शन का हकदार है। सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि राजद्रोह यानी आईपीसी की धारा -124 ए का जो स्कोप है उसके केदारनाथ सिंह बनाम स्टेट ऑफ बिहार के केस में व्याख्या की गई थी। 1962 में दिए फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि हर नागरिक को सरकार के कामकाज पर कमेंट करने और आलोचना करने का अधिकार है। आलोचना का दायरा तय है और उस दायरे में आलोचना करना राजद्रोह नहीं है। लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने ये भी साफ किया था कि आलोचना ऐसी हो, जिसमें पब्लिक आर्डर खराब करने या हिंसा फैलाने की कोशिश न हो।
सुप्रीम कोर्ट ने 10 मई को इस तथ्य पर विचार किया कि क्या राजद्रोह कानून को चुनौती देने वाली याचिका लार्जर बेंच को भेजा जाए या नहीं। सुप्रीम कोर्ट में इस मुद्दे पर सुनवाई हुई कि राजद्रोह कानून के खिलाफ याचिकाओं को बड़ी बेंच (7 या 9 जजों की बेंच) को भेजा जाए या नहीं, क्योंकि 1962 में सुप्रीम कोर्ट के पांच जजों की बेंच ने केदारनाथ केस में इस आईपीसी से जुड़े कानून को वैध करार दिया था। ऐसे में इस कानून की वैधता के परीक्षण का मुद्दा उससे बड़ी बेंच ही तय कर सकती है। वहीं, केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में कहा है कि वह राजद्रोह कानून के दंडनीय प्रावधानों पर फिर से विचार करेगी। ऐसे में सुप्रीम कोर्ट को इस कानून (इंडियन पीनल कोड की धारा 124A) की संवैधानिक वैधता को परखने में अपना वक्त नहीं लगाना चाहिए। इस मामले में कोर्ट में तब तक सुनवाई न की जाए, जब तक सरकार इस कानून की जांच न कर ले, जो सक्षम मंच पर ही हो सकती है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक हैं)।