निशिकांत ठाकुर
पूर्व प्रधानमंत्री स्व. चंद्रशेखर ने अपनी आत्मकथा में लिखा है कि युगोस्लाविया के एक प्रोफेसर जो सारी दुनिया में ‘शरणार्थियों की समस्या’ पर शोध कर रहे थे, उनके एक प्रश्न का उत्तर देते हुए उन्होंने कहा था कि ‘हमारे देश में महात्मा गांधी को भी गरीबी के दर्द का अनुभव तब हुआ, जब दक्षिण अफ्रीका में उन्हें तरह–तरह की यातनाएं भुगतनी पड़ीं और उससे प्रेरणा लेकर वे गरीबों की जिंदगी से सीधे जुड़ गए। महात्मा बुद्ध को असली ज्ञान तब हुआ, जब उन्हें सुजाता की खीर खाने के लिए मजबूर होना पड़ा। भूख की पीड़ा को समझे बिना कोई भूख मिटा नहीं सकता। वर्ष 1867-68 में सबसे पहले दादा भाई नौरेजी ने गरीबी खत्म करने का प्रस्ताव पेश किया था। सुभाष चंद्र बोस ने भी वर्ष 1938 में इसकी पहल की थी। वर्ष 1947 में जब देश आजाद हुआ तो हर तीन में से दो व्यक्ति गरीब थे। आज कहा जाता है कि हर तीन में से एक व्यक्ति गरीब है। फिर आजादी के बाद ‘गरीबी हटाओ देश बचाओ’ का नारा वर्ष 1974 के आम चुनाव में पूर्व प्रधानमंत्री स्व. इंदिरा गांधी ने दिया था। बाद में उनके बेटे राजीव गांधी ने भी इस नारे का उपयोग किया। इस नारे का प्रयोग पांचवीं पंचवर्षीय योजना में किया गया था।
आज हमारे देश में गरीबी हटाने की बात कोई नहीं करता। यदि गरीबी बनी रहेगी तो भूखे पेट रहकर कोई कैसे अपने देश को विकसित बना सकता है? हमारे देश में पिछले कुछ दिनों से यह एक नई बात शुरू हुई है कि हम देश का विकास करेंगे। तो क्या आजादी के बाद से अब तक देश का विकास हुआ ही नहीं! सच तो यह है कि देश का विकास हुआ है। हां, जिस देश को सदियों तक दोहन करके अंग्रेजों ने खोखला किया था, उसे पाटने में समय निश्चित रूप से लगा। इसी वजह से वैसा विकास नहीं हो सका, जैसा कि भारत के साथ आजाद हुए अन्य देशों का हुआ। हम इस बात से अपने को विकसित मानने लगते हैं कि हमारी सड़कें बन गईं, बिजली कई राज्यों की अच्छी हो गई, लेकिन रोजगार, अच्छी शिक्षा, अच्छे स्वास्थ्य के लिए हमने क्या किया! किसानों के हित के लिए क्या किया। झुग्गियां देश में न रहे, उसके लिए क्या किया। आज बड़े—बड़े शहरों की चकाचौंध और हाईप्रोफाइल जीवन जीने वालों के महलों के आगे सैकड़ों झुग्गी वासी गरीब बस रहे हैं। उनकी गरीबी को हटाने का आखिर प्रयास क्यों नहीं किया गया! उनकी सुध लेने वाले उनके पास तभी आते हैं, जब उन्हें चुनाव जीतने होते हैं। राजनीतिज्ञ जानते हैं कि आलीशान बंगलों में रहने वालों को भी वोट का उतना ही अधिकार है, जितना झुग्गी में रहने वालों का। अगर उनका विकास हो गया और वह पढ़—लिख गए तो फिर वे चुनाव में किसे बहलाएंगे-फुसलाएंगे। ऐसी स्थिति में कोई इस प्रकार का जोखिम क्यों उठाए कि ‘गरीबी हटाओ’ आंदोलन के लिए योजनाबद्ध तरीके से प्रयास करें।
इतिहास की तह में जाएं तो अखंड भारत बहुत विशाल था। धन—संपदा की कमी नहीं थी, लेकिन विदेशी लुटेरों की टीम आती रही और इस समृद्ध भारत को कंगाल करती रही। इसके साथ अतिवृष्टि और दुर्भिक्ष ने भूखे मरने के लिए विवश कर दिया। इतिहासकार बंगाल के अकाल का उल्लेख करते हुए लिखा है कि उस वर्ष वर्षा नहीं हुई थी। भूमि सूख गई, तालाब सूख गए, गंगा की सारी घाटी में दुर्भिक्ष की काली छाया व्याप्त हो गई। नाजुक बदन और सात पर्दों में रहने वाली महिलाएं, जिन्होंने कभी घर की दहलीज के बाहर कदम नहीं रखा था, सड़कों पर आकर राह चलतों के आगे धरती पर माथा टेककर पेट के लिए एक मुट्ठी चावल मांग रही थी। अंग्रेजों की कोठियों और बंगलों के सामने उनके बंगलों के बीच में हुगली के प्रवाह में प्रतिदिन हजारों दुर्भिक्ष पीड़ितों की लाशें बहकर समुद्र में आ रही थीं। शवों से कलकत्ता के बाजार-रास्ते पटे पड़े थे। लोग अपने संबंधियों की लाशें मरघट तक या गंगा तक ले जाने में असमर्थ थे। लाशें जहां की तहां पड़ी सड़ रही थीं। गिद्ध और सियार दिनदहाड़े उन्हें नोचते—खाते थे। इस भयानक स्थिति में भी अंग्रेजों के घर और गोदामों में अन्न सड़ रहे थे। हमारी मजबूरी थी कि हमारा ही सब कुछ था, पर अधिकार हमारा नहीं था। काल चक्र घूमा तो हमारी स्थिति सुधरती गई। अभी पांच राज्यों का चुनाव चल रहा है, लेकिन अब यह मुद्दा गौण हो चुका है कि गरीबी हटाओ। अब तो भारत-पाकिस्तान, हिंदू-मुस्लिम की बात करके उसका नारा देकर जन भावनाओं में आक्रोश फैलाकर केवल चुनाव जीतना ही उद्देश्य रह गया है। गरीबी का आलम दुनिया ने कोरोना काल में भी देखा। जो हाल बंगाल के दुर्भिक्ष में हुआ और जिसे आज की पीढ़ी ने नही देखा था, उससे बदतर स्थिति को कोरोना काल की गरीबी को देश ने झेला। हजारों सड़क चलते पुरुष-महिला-बच्चे काल के गाल में समा गए।
ऐसा नहीं है कि हमारे देश में अब सब कुछ सही हो गया है। भूख से मौतें आज भी होती हैं, लेकिन किसी को क्या फर्क पड़ता है कि कुछ लोगों की मौत हो जाए। कितने तरह के नारे अब दिए जाते हैं, लेकिन मूल समस्या की जड़ पर हम कोई प्रहार नहीं करते। पूर्व प्रधानमंत्री स्व. लाल बहादुर शास्त्री ने ‘जय जवान जय किसान’ का नारा दिया था। इसका उद्देश्य यही था हमारे देश की सीमाओं पर कोई टेढ़ी नजर न डाले और किसान समृद्ध होंगे तो देश का कोई व्यक्ति भूखा नहीं रहेगा और भूख से उसकी मृत्यु भी नहीं होगी। अब इस बात को भी समझ लें कि आखिर गरीबी है क्या? गरीबी या निर्धनता जीवन जीने के साधनों या इस हेतु धन के अभाव की स्थिति है। ‘गरीबी उन वस्तुओं की पर्याप्त आपूर्ति का अभाव है जो व्यक्ति तथा उसके परिवार के स्वास्थ्य और कुशलता को बनाए रखने में आवश्यक है।’ इस प्रकार केवल भोजन, वस्त्र और आवास के प्रबंध से ही निर्धनता की समस्या समाप्त नहीं हो जाती। अब गरीबी हटाओ नारा का उपहास उड़ाया जाता है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने पिछले दिनों मेरठ में रैली को संबोधित करते हुए कांग्रेस पर जमकर निशाना साधा। उन्होंने कहा कि जब मैं आठ-दस साल का था, तब सुना करता था कि सरकार गरीबी हटाने के बारे में बात कर रही है। जब 20-22 साल का हुआ तो इंदिरा गांधी का ‘गरीबी हटाओ’ का नारा सुना। इसके बाद की पीढ़ियों में भी कांग्रेस के नामदार गरीबी हटाओ की बात करते रहे, लेकिन गरीबी नहीं हटी। प्रधानमंत्री ने कहा कि आजादी के बाद पिछले 72 वर्षों में कांग्रेस ने जिस तरह गरीबों के साथ गद्दारी की है, उसे देखते हुए ही आज देश का गरीब कह रहा है- ‘कांग्रेस हटाओ, गरीबी अपने आप हट जाएगी।’
यह ठीक है कि वादा किए कार्यों के नहीं पूरा होने पर उसकी आलोचना होनी ही चाहिए, लेकिन आखिर उस कार्य को पूरा कौन करेगा? आलोचना करने से जिसका कोई अस्तित्व नहीं है, उसके लिए किसी को लाभ क्या मिलेगा। कहते हैं कि किसी झूठ को बार—बार बोलने से भी वह सच नहीं हो जाता। और, फिर यदि हम अपनी एक अंगुली किसी दूसरे के लिए उठाते हैं तो तीन अंगुलियां अपनी ओर ही रहती हैं। पता नहीं, हमारे छुटभैये नेताओं की कौन कहे, शीर्ष संवैधानिक पद पर आसीन कोई कैसे यह बात भूल जाता है कि उनके द्वारा भी इस तरह के कई वादे किए गए,लेकिन बाद में उसे चुनावी जुमला करार दिया गया। अपनी तरफ जिनकी तीन अंगुलियां हों, वह दूसरे पर अंगुली कैसे उठा सकता है, लेकिन यही हो रहा है। पिछले सात आठ वर्षों में जिस तरह सत्तारूढ़ दल द्वारा मृतप्राय कांग्रेस की आलोचना करके उसे पुनर्जीवित कर दिया गया है, उसे अब समाप्त करना संभव नहीं है। सत्तारूढ़ दल द्वारा जिस तरह एकपक्षीय आलोचना कांग्रेस की होती रही है, उसने उस दल को पुनर्जीवित कर दिया। यदि हमारे जन प्रतिनिधि और शीर्षस्थ नेता गरीबी हटाने और देश की जनता के प्रति अपना पूरी शक्ति लगाकर उसे सुखमय जीवन जीने के लिए प्रेरित करेंगे तो कोई शक नहीं कि गरीबी हटाने में हमें देर नहीं लगेगी। हम आपस में लड़ने से अपने आप को क्यों नहीं रोक पाते! क्या सत्ता की कुर्सी ही हासिल करना हमारे राजनीतिज्ञों का लक्ष्य रह गया है। हम जनहित की बात कभी नहीं सोच पाएंगे। यदि ऐसा है तो फिर हम कहने के लिए गरीबी तो हटा चुके होंगे, लेकिन यह सरासर झूठ होगा और झूठ पर खड़ा मकान कभी भी गिरकर अपना अस्तित्व समाप्त कर लेगा।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक हैं)