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नई दिल्ली। होली यूं तो पूरे देश में खेली जाती है। लेकिन जिसे फागुन का उल्लास कहते हैं,इसका एहसास पूरे देश में दो बड़े क्षेत्रों में होता है। पहला है ब्रज और दूसरा बुंदेलखंड। इसीलिए कहते हैं होली भले पूरे देश में उत्सव हो, लेकिन इन दो क्षेत्रों में यह महाउत्सव है। ऐसा उत्सव जिसमें व्यक्ति और ईष्ट में, व्यष्टि और समिष्ट में कोई भेद नहीं रह जाता, कोई फर्क नहीं रह जाता।
सबसे नाजुक एहसास है रसिया गीत
आज बिरज मा होरी रे रसिया, आज बिरज मा होरी ।
होरी तो होरी बरजोरी रे रसिया, आज बिरज मा होरी।।
उड़त अबीर गुलाल कुमकुमा, गमक मंजीरन खोरी।
केशर की पिचकारी रे रसिया आज बिरज मा होरी।।
उतते ग्वाल बाल सब आवत, इत वृषभान किशोरी।
आज बिरज मा होरी रे रसिया आज बिरज मा होरी।।
बाजत बीन मृदंग पखावज, गावत दे दे तारी रे रसिया।
आज बिरज मा होरी रे रसिया आज बिरज मा होरी।।
श्याम श्यामली खेलें होरी, नैनन रस बरजोरी ।
नैनन रस बरजोरी रे रसिया आज बिरज मा होरी।।
रसिया गीत बेहद कामुक और भक्ति एहसास की पराकाष्ठा में ले जाने वाले होते हैं। ब्रज क्षेत्र में ये महज फागुन में ही नहीं गाये जाते, जब भी कृष्ण रासलीला का मंचन होता है तो उसमें भी गाये जाते हैं और किसी भी मंगल कामना में राधा रानी के आह्वान के लिए कृष्ण लला तो रसिक गीत से ही उनका आहवान करते हैं। रसिया गीत लोकगीतों का एक प्रकार हैं और ये यूं तो देश के कई हिस्सों में प्रचलित हैं, लेकिन वे अपनी जिस साहित्यिक रसधार के लिए जाने जाते हैं वे रसिया और फाग कहलाते हैं। रसिया मूलतः ब्रज क्षेत्र में अखंड राज करता है तो फाग का दायरा बुंदेलखंड से होते हुए बिहार तक जाता है। ब्रज क्षेत्र में रसिया गीत नौटंकी के कलाकारों द्वारा भी गाये जाते हैं, लेकिन रसिया गीत अपनी जिस भव्यता और नाजुक एहसास के लिए जाने जाते हैं, वो राधा कृष्ण के प्यार से सने हुए होली गीत ही होते हैं।
मथुरा की कुंज गलिन मा।
होरी खेल रहे नंदलाल।।
मोहे भर पिकचारी मारी साड़ी आप उतारी।
झुमर को कर दियो नास, मथुरा की कुंज गलिन मा
होरी खेल रहे नंदलाल।।
मोरे सिर पर धरी कमोरी।
मोसे बहुत करी बरजोरी।
मोरे मुख पर मलो गुलाल
मथुरा की कुंज गलिन मा
होरी खेल रहे नंदलाल।
यूं ही नहीं कहा गया कि सब जग होरी, ब्रज में होरा। फागुन लगते ही ब्रज में सारे रिश्ते राधा कृष्णमय हो जाते हैं। धरती का, बनावट का, रिश्तों का कोई रिश्ता नहीं रह जाता। सब रिश्ते प्रेम आनंद और उल्लास की डगर में चल पड़ते हैं। सब पुरुष कन्हैया हो जाते हैं सब महिलाएं राधारानी हो जाती हैं फिर चाहे उम्र 5 की हो या 55 की।
रसिया साहित्य इस एहसास को, इस मनोभाव को बड़ी विह्वलता से पकड़ता है-
होली आई रे, होली आई रे,
निकल पड़ी गोरी अब घर से
मारे रे पिचकारी
होली आई रे, होली आई रे, होली आई रे।
हालांकि यह किसी को अंतिम रूप से ज्ञात नहीं है मगर अनुमान है कि करीब एक लाख से भी ज्यादा रसिया गीत हैं जिन्हें कई सदियों में रचा गया है और वो सैकड़ों सालों से ब्रज क्षेत्र में लोगों की जुबान पर हैं। प्रेम और आनंद के एहसास का पर्याय हैं। यूं तो प्रेम पर दुनियाभर की हर भाषा में और हर क्षेत्र में कोई न कोई खास छंद, धुन और लय रची गई है लेकिन जो अमर आकर्षण रसिया गीतों में है शायद ही दुनिया के किसी भाषा के प्रेम गीतों में हो। जब कोई होरियार रसिया छेड़कर कहता है-
डफ बजने दो, रंग उड़ने दो।
अब न देर लगाओ रे।
रसिया डगर डगर पे ढुरे
नंदलाल रे आओ रे।
सबरे सखा, सखी तुम बिन
रसिया गेह निहारे रे
कलश मंगाई के केसर घोलो।
श्याम हमें अब रंग में बोरो।
होली आई रे, कन्हैया
ब्रज में रसिया होली आई रे।
ब्रज में होली गीत नहीं है, संगीत नहीं है यह एक मनोदशा है। इसलिए रसिया गीतों का कोई स्थायी राग नहीं है, कोई स्थायी धुन नहीं है। यह तो प्रेम के नशे का उल्लास गीत है। माना जाता है कि प्रेम की गायकी का रसिया सबसे पुराना छंद है। होली के लिए ही नहीं, होली से इतर भी ब्रज के हर मंगल एहसास में रसिया गीत की भागीदारी होती है। लेकिन होली में तो हर तरफ रसिया गीत ही गूंजते हैं। मालूम हो कि ब्रज भाषा हिंदी के जन्म के पहले लगभग 500 सालों तक उत्तर भारत की प्रमुख भाष रही है। रसिया गीतों के नायक श्रीकृष्ण और नायिका राधारानी ही होती हैं। इसके सारे रूपक, इसकी सारी कल्पनाएं राधा कृष्णमय होती हैं। इनमें भक्ति और श्रृंगार का अद्भुत मिश्रण होता है। ये प्रेम को भक्ति से और भक्ति से प्रेम को पाने का साहित्यिक रूप है।