नई दिल्ली। इतिहास है कि भगवान श्रीकृष्ण के पुत्र सांब को कुष्ठ रोग हो गया था। इसके निवारण के लिए सूर्य नारायण की पूजा का विधान बताया गया। इस पूजा को कराने के लिए उसने ‘मग’ ब्राह्मणों को बुलवाया, जो उस समय सोन नदी के दक्षिण एवं आज के छोटानागपुर के दक्षिण-पश्चिम में बसे हुए थे। मग ब्राह्मण ही उस समय सूर्योपासना करते थे और उसके विधान को जानते थे। इन ‘मग’ ब्राह्मणों के कारण ही मगध साम्राज्य का नाम पड़ा। बाद में इन्हीं ‘मग’ ब्राह्मणों ने सूर्य नारायण की आराधना के छठ महापर्व को आरंभ किया। इसीलिए इस पर्व का आरंभ तत्कालीन मगध और आज के बिहार में हुआ।
मान्यता के अनुसार सांब ने नालंदा जिले के बड़गांव स्थित सूर्य मंदिर में उपासना कर कुष्ठ रोग से मुक्ति पाई थी। उसके बाद सांब ने देश भर में करीब 12 सूर्य मंदिरों का निर्माण कराया, जिसमें से 9 मंदिर मगध साम्राज्य में ही निर्मित कराए गये। इन मंदिरों में आज के गया, नालंदा, औरंगाबाद और पटना में दो-दो सूर्य मंदिर एवं नवादा में एक सूर्य मंदिर सांब द्वारा निर्मित हैं।
इन सूर्य मंदिरों में औरंगाबाद का ‘देवार्क’ पटना के पंडारक में ‘पूण्यार्क’ और दुल्हिन बाजार में ‘उलार्क’ सूर्य मंदिर प्रसिद्ध है। इसी तरह नवादा का ‘हंडार्क’ सूर्य मंदिर भी काफी प्रसिद्ध है। दरभंगा के लहेरियासराय स्थित राघोपुरा गांव में खुदाई के दौरान 9 वीं शताब्दी की सूर्य प्रतिमा प्राप्त हुई थी। अर्थात आज के बिहार में सूर्य पूजन का विधान द्वापर युग से जुड़ा है और इसके प्रमाण हाल तक उपलब्ध होते रहे हैं!
छठ पूरी तरह से प्रकृति की उपासना का पर्व है। एक मात्र देव जो हमें प्रतिदिन प्रत्यक्ष दिखते हैं, वह सूर्य देव हैं। इनकी अराधना जल में खड़े हो कर होती है। मौसमी फल, गन्ना, हल्दी, अदरख, मूली, गेहूं के आटा का ठेकुआ आदि प्रसाद इसमें चढ़ाया जाता है। छठ का मुख्य मुख्य प्रसाद ठेकुआ है, जिसे घर की महिलाएं अपने हाथों से बनाती हैं।
बांस से बने दौरा, सूप, मिट्टी के हाथी, कुरवार (कलश) आदि में यह प्रसाद रखा जाता है, जिसे जल में खड़े होकर व्रती सूर्य नारायण को अर्पित करते हैं। इसमें कुछ भी अप्राकृतिक न चढ़ाया जाता है और न ही इसका कोई विधान ही है।
प्रसिद्ध विरासत विज्ञानी डाॅ. आनन्द वर्द्धन के अनुसार, छठ पूजा मागधी परंपरा है। यह वैदिक अवधारणा पर आधारित है। इसका स्वरुप प्रकृति देवोपासना का है। मगध का यह लोक पर्व है जिसका इतिहास अत्यंत प्राचीन है। मौर्य सिक्कों पर सूर्य का अंकन इसकी प्राचीनता का प्रमाण है। बोधगया से भारत की प्रथम मूर्ति द्वितीय ईसा पूर्व की मिली है। मगध में सूर्य मंदिरों की विराट परंपरा थी। देव औरंगाबाद का मंदिर इसमें सबसे विराट है। यह मंदिर एकसौरिय भूमिहार ब्राह्मण जो सूर्योपासक थे, उन्हें राजा भैरवेन्द्र से प्राप्त हुआ था।
सूर्य देव की उपासना का यह पूर्व छठ मैया में कैसे बदल गया? यह जानना भी रोचक है। असल में यह भगवान भास्कर की पत्नी संध्या और उषा को समर्पित पर्व है, इसलिए सूर्य नारायण की पूजा के बावजूद यह पर्व पुकारने में स्त्रिलिंग रूप लिए हुए है। यह दिवाली के पांच दिन बाद अर्थात् छठी तिथि को होता है। छठी तिथि को डूबते सूर्य अर्थात् सूर्य की पत्नी संध्या को अर्घ्य अर्पित करते हैं, इसलिए यह छठ मैया के नाम से प्रसिद्ध है। अगले दिन अर्थात सप्तमी को सूर्य की पत्नी उषा को अर्घ्य अर्पित कर इस व्रत का समापन हो जाता है।
चार दिनों के इस व्रत में पहला दिन नहाय-खाए अर्थात व्रती को नहा कर कद्दू की सब्जी और अरवा चावल का भात खाना होता है, दूसरे दिन खरना होता है, जिसमें चावल की खीर-रोटी-गुड़ का प्रसाद उगते चंद्रमा और कुल देवता को अर्पित कर भोजन के रूप में इसे ग्रहण करते हैं। फिर छठी तिथि को संध्या अर्ध्य और सप्तमी तिथि को उषा अर्घ्य देकर इसे संपन्न करते हैं। इस तरह चार दिनों तक चलने के कारण यह महापर्व कहा जाता है। व्रती निर्जल उपवास कर इस कठिन व्रत को पूरा करते हैं। इसमें शुद्धता का विशेष ध्यान रखा जाता है।