नई दिल्ली। मिथिला और पूर्वांचल की महिलाओं के आज का दिन बेहद खास है। वे अपने सौभाग्य और सुहाग की कामना के साथ वट सावित्री व्रत रखती है। इसके साथ ही वे पर्यावरण का संदेश देती है। वृक्ष सनातन काल से ही पूजनीय हैं, उनको संरक्षित रखना चाहिए। महिलाएं अपने पति की लंबी आयु की कामना के लिए वटवृक्ष की पूजा करती हैं। कहा जाता है कि जिस प्रकार वट वृक्ष की उम्र होती है, उतनी ही लंबी उम्र पति की बढ़ें। देवी सावित्री भी इस वृक्ष में निवास करती हैं. मान्यताओं के अनुसार, वटवृक्ष के नीचे सावित्री ने अपने पति को पुन: जीवित किया था। तब से ये व्रत ‘वट सावित्री’ के नाम से जाना जाता है।
वट सावित्री का व्रत ज्येष्ठ मास की अमावस्या पर रखा जाता है। इस दिन महिलाएं सोलह श्रृंगार करके तैयार होती हैं और नई साड़ी, मेंहदी, चूड़ी आदि पहनकर वट वृक्ष की पूजा करती हैं। बड़ के पेड़ के चारों ओर परिक्रमा करके रक्षा सूत्र बांधते हैं। फल, पूड़ी आदि, बरगदा और भीगे हुए चने भी अर्पित किए जाते हैं। बांस की लकड़ी से बना बेना (पंखा), अक्षत, हल्दी, अगरबत्ती या धूपबत्ती, लाल-पीले रंग का कलावा, सोलह श्रंगार, तांबे के लोटे में पानी, पूजा के लिए सिंदूर और लाल रंग का वस्त्र पूजा में बिछाने के लिए, पांच प्रकार के फल, बरगद पेड़ और पकवान आदि। पूजा का सारा सामान व्यवस्थित तरीके से रख लें और वट (बरगद) के पेड़ के नीचे के स्थान को अच्छे से साफ कर वहां बरगद के पेड़ सावित्री-सत्यवान की मूर्ति स्थापित कर दें। इसके बाद बरगद के पेड़ में जल डालकर उसमें पुष्प, अक्षत, फूल और मिठाई चढ़ाएं। अब वृक्ष में रक्षा सूत्र बांधकर आशीर्वाद मांगें और सात बार परिक्रमा करें. इसके बाद हाथ में काले चना लेकर इस व्रत का कथा सुनें।
इस व्रत में वट वृक्ष की पूजा का खास महत्व है। कहा जाता है कि त्रिदेव यानी ब्रह्मा, विष्णु और महेश वट वृक्ष में बसते है. जिन्हें प्रसन्न करने से अखंड सौभाग्य का वर मिलता है। इस दिन कुछ महिलाएं जहां निर्जला व्रत रखती हैं, वहीं कुछ पूजा और दान करके बायना सास को देकर कथा सुनकर व्रत खोल लेती हैं।