Guest Column : फिर इतिहास गढ़ेंगी बेटियां

पुरुष आज भी वही है, जो पहले था। प्रगति पथ पर निरंतर चलता हुआ। संघर्ष, शौर्य, पराक्रम, अहंकार आदि गुणों से भरपूर और अपनी धुन में मस्त। परंतु, आज के इस आधुनिक समाज में नारी की स्थिति क्या है, यह जानने की कोशिश करेंगे तो निराशा ही हाथ लगेगी और मन दुखी तथा व्याकुल हो जाएगा ।

निशिकांत ठाकुर

यदि लक्ष्मीबाई स्वराज स्थापना के प्रयत्न में सफल हो जातीं तो भारत की नारी उस गिरी हालत में कदापि न होती, जिसमें उसका अंश आज भी है। लेखक विष्णुराव गोडसे जब झांसी आए, तब झांसी की स्त्रियों की स्वाधीनता देखकर विस्मित हो गए। हालांकि, उन्हें गुस्सा भी आया। गुस्से की वजह भी अजीब थी, क्योंकि वहां की स्त्रियां शान और हेकड़ी के साथ संध्याकाल मंदिरों में जाती थीं। यही बात विष्णुराव को बहुत खटकी, क्योंकि उन्होंने कहीं ऐसा नहीं देखा था। लेकिन, क्या अन्यत्र कोई बटालियन थी? कोई रेजिमेंट था? उनमें से कोई कर्नल या कप्तान थीं? (वृंदावनलाल वर्मा की पुस्तक ‘झांसी की रानी’ से साभार)।

दरअसल, भारतीय नारी के महानतम आदर्श रानी लक्ष्मीबाई, रानी दुर्गावती अपने भारत की गौरव थीं, जिन्होंने अंग्रजों के दांत खट्टे कर दिए थे। वह जिसके वक्षस्थल वज्र का और हाथ फौलाद के थे, वह जिसके शब्दकोष में निराशा का शब्द नहीं था, वह जो भारतीय नारी की महानतम और उच्च आदर्श स्थापित करने में पूर्ण सक्षम थीं, वह भारतीय हिंदुओं की दुर्गा थीं, जो अंग्रजों की अपार सेनाओं से भी डरी नहीं। अंग्रेजों के आक्रमण—दर—आक्रमण झेलकर जिन्होंने बता दिया कि उतना आसान नहीं हैं भारतीय नारी पर कब्जा करना। उसके बाद अपने को देश के लिए न्योछावर भी कर दिया। यही है भारतीय नारी की पारंपरिक गाथा। इसीलिए तो शक्ति स्वरूपा देवी दुर्गा, काली को हम भारतीय आधार मानकर पूजते हैं। हां, यह ठीक है कि बीच के कुछ वर्षों में इन्हीं गौरवमयी नारियों पर इसी भारत में जुल्म ढाए गए, उन्हें अपमानित और जलील किया गया। जिंदा जला दी गईं, मानवीय अत्याचारों से आजिज आकार उन्हें आत्मदाह करना पड़ा। न्याय का पक्ष उनके लिए इतना कमजोर रहा कि कोई कहीं न्यायपूर्ण मदद नहीं मिलने पर सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष ही आत्मदाह तक करने के लिए मजबूर होना पड़ा।

पाठकों के मन में बार—बार यह बात आ रही होगी कि यहां रानी लक्ष्मीबाई का यह पुराना इतिहास किसलिए? वह इसलिए क्योंकि, अब पुरुषों की तरह महिलाओं के लिए भीं सेना में राष्ट्रीय रक्षा अकादमी (एनडीए) के जरिये भर्ती का रास्ता साफ हो गया है। केंद्र सरकार ने महिलाओं को लिंग आधारित बराबरी देने में ऐतिहासिक निर्णय लेते हुए लड़कियों को एनडीए की परीक्षा में शामिल होने और एनडीए के माध्यम से सेना में भर्ती करने का फैसला लिया है। सरकार ने इस फैसले की जानकारी पिछले सप्ताह सुप्रीम कोर्ट को दी। कोर्ट ने फैसले पर खुशी जताते हुए 20 सितंबर तक हलफनामा दाखिल कर पूरी प्रक्रिया बताने को कहा है। कोर्ट मामले पर 22 सितंबर को सुनवाई करेगा। सशत्र सेना में महिलाओं को समानता दिलाने का ऐतिहासिक फैसला सुप्रीम कोर्ट ने वर्ष 2020 में सुनाया था जिसमें कोर्ट ने सेना में महिलाओं को भी पुरुष के समान स्थायी कमीशन देने का आदेश दिया था। इस बार भी सुप्रीम कोर्ट ने ही सरकार को महिलाओं को एनडीए परीक्षा में शामिल करने का अंतरिम आदेश दिया था और सरकार को सेना में लिंग आधारित भेदभाव दूर करने को कहा था। इसके बाद सरकार ने यह ऐतिहासिक फैसला लिया है। सुप्रीम कोर्ट ने लड़कियों को एनडीए और नौसेना अकादमी परीक्षा में शामिल होने की इजाज़त मांगने वाली वकील कुश कालरा की याचिका पर सुनवाई के दौरान पिछली तारीख पर अंतरिम आदेश में सरकार को इस बार होने वाली एनडीए परीक्षा में योग्य लड़कियों को शामिल करने का निर्देश दिया था। जानकारी के अनुसार सन् 1962 में स्थापित कजक्कुटम स्थित केरल के एकमात्र सैनिक स्कूल में पहली बार लड़कियों के पहले बैच में अखिल भारतीय सैनिक स्कूल प्रवेश परीक्षा में उत्तीर्ण 2020-21 के अकादमिक सत्र में प्रवेश लिया। प्रधान प्राध्यापक कर्नल धीरेंद्र कुमार ने कैडेट को संबोधित किया और उन्हें शुभकामना दी। धन्य हैं ऐसे माता-पिता जिनकी कोख से इन बहादुर बेटियों ने जन्म लिया।

दरअसल, इस बीच लड़कियों के मामले में हमारा तंत्र कमजोर होता रहा तथा जिसके कारण हमारे देश की नारी अबला कहलाने लगी। मूल कारण नारियों के प्रति उपेक्षा का भाव था। हमारे संविधान में नारियों को पुरुष के बराबर का अधिकार दिया गया, लेकिन सरकार द्वारा उस पर अमल नहीं किया गया। इसलिए समस्या यह रही कि लड़कियों में शिक्षा का घोर अभाव होता रहा और उसकी भागीदारी राष्ट्रीय हित में कम होती चली गई। भारत में महिलाओं की स्थिति सदैव एकसमान नहीं रही है। इसमें युगानुरूप परिवर्तन होते रहे हैं। उनकी स्थिति में वैदिक युग से लेकर आधुनिक काल तक अनेक उतार-चढ़ाव आते रहे हैं तथा उनके अधिकारों में तदनरूप बदलाव भी होते रहे हैं। ऋगवेद का कथन है कि ‘स्त्रियों के साथ कोई मित्रता नहीं है, उन्हें कम—से—कम सुविधाओं, अधिकारों और उन्नति के अवसरों में रखा जाता रहा है। इसी कारण महिलाओं की परिस्थिति अत्यन्त निचले स्तर पर है। भारतीय समाज की परंपरागत व्यवस्था में महिलाएं आजीवन पिता, पति और पुत्र के संरक्षण में जीवन-यापन करती रही हैं।’ भारतीय समाज में महिला आज भी कमजोर वर्गों में शामिल है।

राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण की ताजा रिपोर्ट के अनुसार, शिक्षा में महिलाओं की भागीदारी बढ़ी है। शिक्षण संस्थानों तक लड़कियों की पहुंच लगातार बढ़ रही है। एक दशक पहले हुए सर्वेक्षण में शिक्षा में महिलाओं की भागीदारी 55.1 प्रतिशत थी, जो अब बढ़कर 68.4 तक पहुंच गई है। सर्वेक्षण कहता है कि भारत में महिलाओं का दर्जा दौलत और उनकी सामाजिक स्थिति पर निर्भर करता है। भारत के 19 देशों की सूची में सबसे अंतिम पायदान पर रहने के लिए कम उम्र में विवाह, दहेज, घरेलू हिंसा और कन्या भ्रूण हत्या जैसे कारणों को गिनाया गया है। अब सरकार और स्वयं सुप्रीम कोर्ट ने इस पर ध्यान देना शुरू किया है, तो इसलिए इसमें अब शक की कोई गुंजाइश नहीं कि सबको पीछे छोड़ते हुए जिस तरह विमान चलाकर आसमान छूने हमारी बेटियां पहुंच गई हैं, उसी प्रकार अब राष्ट्रीय सुरक्षा में अपना जौहर दिखाएंगी और देश का गौरव बढ़ाएंगी। अगर हम भारतीय सभ्यता की बात करें तो इसे विश्व की प्राचीनतम और सुव्यवस्थित सभ्यता माना गया, जो अपनी उच्च कोटि की पारिवारिक व सामाजिक व्यवस्था के लिए जाना जाता है। परिवार उसकी वह सबसे छोटी इकाई है जहां एक समृद्ध राष्ट्र के सभी उपादान और कारक मौजूद रहते हैं। इस परिवार व्यवस्था के संचालन में नारी और पुरुष की समान भागीदारी और समान महत्व है। पुरुष परिवार को पोषण देता है, अपनी रोजगार से स्वजन का पेट पालता है, परंतु परिवार संचालन की वास्तविक जिम्मेदारी नारी पर ही है जिसे सेवा, त्याग और करुणा की देवी कहा जाता है। लेकिन, इस प्रकार की शास्त्रीय परिभाषाएं जो भी हों, वास्तविकता कुछ और ही प्रतीत होती है।


(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक हैं)