लोकसभा चुनाव में कितना कांग्रेस के लिए भला कर पाएंगे राहुल गांधी ?

जिस प्रकार से चुनावी खबरें छनकर आ रही हैं, उसके आधार पर कहा जा सकता है कि हालांकि वायनाड में राहुल को किसी तरह की मुश्किल की संभावना नहीं दिख रही है। फिर भी वायनाड में मतदान के बाद उनको रायबरेली से उम्मीदवार बनाए जाने से भाजपा को यह कहने का मौका मिला है कि राहुल वायनाड से भागे हैं और डरे हुए हैं। उनके अमेठी से चुनाव नहीं लड़ने की बातें भी पहले ही शुरू हो गई थीं। यह कहा जाने लगा था कि राहुल डर रहे हैं अमेठी से लड़ने से।

 

नई दिल्ली। सोशल मीडिया पर एक पत्र वायरल हो रहा है। वह सोनिया गांधी गांधी का कहा जा रहा है। उसमें एक पंक्ति है कि हिंदुस्तानी लोग मां के सामने अपनी पत्नी की नहीं सुनते हैं। कांग्रेस नेता राहुल गांधी की पत्नी नहीं है, फिर भी वहां अपनी मां यानी सोनिया गांधी के बताए रास्तों पर चलते हैं। तभी तो उन्होंने दो दशक बाद उस इतिहास को दोहराया है, जिस रास्ते पर उनकी मां सोनिया गांधी चली थी। राहुल गांधी अमेठी छोड़कर रायबरेली की सीट से चुनाव लड़ रहे हैं। इससे पहले 2004 में सोनिया गांधी ने उनके लिए अमेठी की सीट छोड़ कर रायबरेली से चुनाव लड़ा था। इसके बीस वर्षों बाद सोनिया गांधी के रायबरेली छोड़ने पर राहुल एक बार फिर पुराने इतिहास को दोहरा कर इस सीट से चुनावी मैदान में उतरे हैं।

राहुल गांधी और कांग्रेस पार्टी ने अमेठी और रायबरेली को लेकर चुनावी सस्पेंस बनाया और इसे हाइप किया, जो कि चुनावी माहौल में सामाजिक मीडिया और जनता का ध्यान आकर्षित करता है। इसमें वे अमेठी और रायबरेली के उम्मीदवारों की घोषणा के संदर्भ में अद्भुत संयोजन किया था। इस प्रकार की रणनीति कांग्रेस के लिए सफल साबित हुई, क्योंकि राहुल गांधी ने इस स्थिति को सही साबित किया जब उन्होंने केरल की वायनाड सीट पर मतदान के बाद अमेठी और रायबरेली के उम्मीदवारों की घोषणा की। इस से पहले भाजपा ने इस प्रचार को आरंभ किया और उसने अपना तर्क यहाँ पर रखा कि कांग्रेस ने वायनाड में भी राहुल की जीत के लिए पूरी तरह से आश्वस्त नहीं है, और इसलिए वह चाहती है कि यह संदेश ना जाए कि राहुल एक ही सीट पर लड़ सकते हैं।
यह रणनीति ने साबित किया कि राहुल गांधी कांग्रेस के प्रमुख नेता हैं और उनकी नेतृत्व में पार्टी की दक्षिणी और उत्तरी भारत के बीच संबंध को मजबूत किया गया है। दूसरी ओर अमेठी निर्वाचन क्षेत्र से कांग्रेस ने किशोरी लाल शर्मा को अपना उम्मीदवार घोषित किया है। गौरतलब है कि पिछले कई दिनों से यह अटकलें लगाई जा रही थीं कि अमेठी से राहुल गांधी भाजपा उम्मीदवार और केंद्रीय मंत्री स्मृति ईरानी की चुनौती स्वीकार करेंगे और प्रियंका गांधी वाड्रा रायबरेली से कांग्रेस प्रत्याशी होंगी लेकिन नामांकन की आखरी तिथि के एक दिन पूर्व कांग्रेस ने यह चौंकाने वाला फैसला लेकर भाजपा को राहुल गांधी पर निशाना साधने का यह मनचाहा अवसर क्यो उपलब्ध करा दिया ,यह समझ के परे है। अब यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि क्या राहुल गांधी ने रायबरेली से चुनाव लडने का फैसला इसलिए किया क्योंकि उन्हें 2019 की भांति इन लोकसभा चुनावों में भी अमेठी में भाजपा उम्मीदवार स्मृति ईरानी के हाथों अपनी हार की आशंका सता रही थीं। इसमें दो राय नहीं हो सकती कि अगर अमेठी में राहुल गांधी को अपनी जीत का पूरा भरोसा होता तो स्मृति ईरानी के हाथों पांच वर्ष पूर्व मिली हार का बदला लेने के लिए इन चुनावों में वे अमेठी से ही किस्मत आजमाने का साहस जुटाते लेकिन उन्होंने रायबरेली से नामांकन दाखिल कर स्वयं ही यह साबित कर दिया है कि उन्हें अपनी मां सोनिया गांधी द्वारा खाली की गई रायबरेली में अपनी जीत की बेहतर संभावनाएं दिखाई दे रही हैं।
सूत्रों के हवाले से यह खबर भी आने लगी थी कि कांग्रेस प्रियंका गांधी वाड्रा को अमेठी में स्मृति ईरानी के खिलाफ खड़ा कर सकती है। कांग्रेस के इकोसिस्टम से ही यह समझाया जा रहा था कि गांधी परिवार के लोग अमेठी से करियर शुरू करते हैं। फिरोज गांधी, राजीव गांधी, संजय गांधी और राहुल गांधी सबने अपना पहला चुनाव अमेठी से लड़ा था। यह किसी ने नहीं बताया कि महिलाओं ने यानी इंदिरा गांधी और सोनिया गांधी ने रायबरेली से करियर शुरू किया था। बहरहाल, अब कहा जा रहा है कि राहुल जीत जाएंगे तो दो में से एक सीट खाली करेंगे और वहां से प्रियंका चुनाव लड़ेंगी।

इस लोकसभा चुनाव के दौरान अब तक के चुनावी सभाओं में राहुल गांधी के बयानों को गौर से पड़ताल की जाए तो मोटेतौर पर वह अनर्गल बयानबाजी करते नहीं दिखाई दे रहे हैं।
दूसरी ओर, नरेंद्र भाई अगर प्रधानमंत्री न होते, नरेंद्र भाई अगर नरेंद्र भाई न होते, नरेंद्र भाई अगर गिरिराज सिंह, साध्वी प्रज्ञा, कुलदीप सेंगर, बृजभूषण सिंह, रमेश विधूड़ी, वगैरह-वगैरह होते तो नरेंद्र भाई के कहे-किए पर मन मसोस भी लेता। मगर नरेंद्र भाई तो, एक भी कम नहीं, पूरे 140 करोड़ ‘परिवारजन’ के मुखिया हैं; वे बहुसंख्यकों के मान-न-मान मेहमान हैं; हिंदुओं के हृदय सम्राट हैं; विश्वगुरु बनने की राह के राही हैं; वे एक अकेले सब पर भारी हैं; वे गारंटी-पुरुष हैं,; गारंटी की भी गारंटी के गारंटर हैं; झोला ले कर कभी भी चल पड़ने वाले फ़कीर हैं। इसलिए मुझ से तो एक क्षण को भी यह सहा नहीं जा रहा है कि जिस महामना की उंगली पकड़ कर रामलला पांच सौ साल बाद अयोध्या आ कर विराजे, उस ने 2024 के चुनाव की पगड़ी किसी भी कीमत पर अपने सिर बांधने की हवस में जनतंत्र की सारी पवित्र परंपराओं पर कालिख मल दी है।
चुनावी आचार संहिता जैसी निरामिष व्यवस्थाओं को ठेंगा दिखाने का काम तो नरेंद्र भाई के लिए दस साल से सब से प्रिय शगल रहा है। इस बार तो उन्होंने इस व्यवस्था को ठेंगे-फेगे पर रखने के बजाय उस का सीधे घंटा-दर्शन दिशा में प्रस्थान करा दिया है। इस घंट-ध्वनि की गूंज ने, चुनावों के वक़्त आमतौर पर अंतरिम-सूरमा की भूमिका निभाने वाले निर्वाचन आयोग को, थरथर कंपा दिया है। मुसलमान-मुसलमान का अखंड-जप कर रहे नरेंद्र भाई की भारतीय जनता पार्टी के अध्यक्ष को निर्वाचन आयोग ने अपने पार्किन्सनी-हाथों से हस्ताक्षरित एक नोटिस इसलिए नहीं भेजा है कि वरना ज़माना क्या कहेगा?

लुटियन दिल्ली में सियासी शगूफों का दौर जारी है। कांग्रेस मुख्यालय से जो बातें छनकर आ रही हैं, उनके अनुसार कांग्रेस की पूर्व अध्यक्ष सोनिया गांधी के राज्यसभा सदस्य चुने जाने के बाद से ही पार्टी ने रायबरेली के लिए प्रत्याशी की तलाश शुरू कर दी थी। शुरुआती दौर में सोनिया गांधी की पुत्री प्रियका गांधी रायबरेली को लेकर रुचि दिखा रही थीं। वह यहां से चुनाव लड़ना चाहती थीं। उनकी टीम के लोग जाकर पूरा फीडबैक भी लेने लगे थे। उसी समयावधि में राहुल गांधी की न्याय यात्रा शुरू हुई। उस समय राहुल गांधी के कुछ करीबी नेताओं ने पार्टी अलाकमान के सामने रायबरेली से प्रियंका के बजाय राहुल का नाम आगे बढ़ाया। उसके बाद प्रियंका गांधी ने चुप्पी साध ली और अपनी टीम को रायबरेली से वापस बुला लिया। उनकी टीम भी धीरे-धीरे उत्तर प्रदेश चुनाव से दूर होती नजर आईं। बीते महीने कांग्रेस के तेज-तर्रार नेता संजय निरुपम ने जब पार्टी छोड़ा था, तो उन्होंने कहा था कि कांग्रेस में अब काफी नेता चाटुकार किस्म के हो गए हैं, जिन्होंने अपने स्वार्थ के लिए शीर्ष नेतृत्व के स्तर पर भी पांच भागों में बांट दिया है।
हाल के दिनों में लुटियंस की दिल्ली में एक चर्चा भी तेजी से उड़ चली है कि अभी तक भाजपा यह नहीं मान रही थी कि कांग्रेस सत्ता में भी आ सकती है। लेकिन अब वह न सिर्फ यह मान रही है, बल्कि देश के लोगों को यह भी बता रही है कि कांग्रेस सत्ता में आई तो क्या क्या करेगी। यह बहुत दिलचस्प इसलिए है क्योंकि इससे पहले इतने सुनियोजित तरीके से किसी सत्तारूढ़ दल ने मुख्य विपक्षी दल के बारे में मतदाताओं को इतना नहीं डराया था और यह नहीं बताया था कि अगर वह सत्ता में आ गई तो कयामत आ जाएगी। कांग्रेस सरकार में आई तो वह हिंदुओं की संपत्ति छीन कर मुसलमानों में बांट देगी। सबसे पहले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 21 अप्रैल को राजस्थान के बांसवाड़ा की सभा में कहा कि कांग्रेस की नजर स्त्रियों के मंगलसूत्र पर है। वह सत्ता में आई तो संपत्ति छीन कर ‘ज्यादा बच्चे वालों को’ और ‘घुसपैठियों’ को बांट देगी। बाद में उन्होंने पश्चिम बंगाल के माल्दा में कहा कि संपत्ति छीन कर ‘अपने वोट बैंक’ में बांट देगी। यह समुदायों की पहचान कराने का प्रधानमंत्री का अपना तरीका है। हालांकि बाद में उनकी पार्टी के नेताओं ने इस पर पड़ा झीना सा परदा हटा दिया। सूचना व प्रसारण मंत्री अनुराग ठाकुर ने खुल कर कहा कि कांग्रेस सत्ता में आई तो संपत्ति छीन कर मुसलमानों में बांट देगी।केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने कहा है कि कांग्रेस की नजर देश के मठों और मंदिरों पर है। अगर वह सत्ता में आती है तो मठों और मंदिरों की संपत्ति छीन लेगी। यह हिंदू मुस्लिम राजनीति का एक रूपक है। इसी तरह के एक रूपक का इस्तेमाल प्रधानमंत्री ने किया, जब उन्होंने कहा कि राहुल गांधी देश के राजा, महाराजाओं की आलोचना करते हैं लेकिन नवाबों, सुल्तानों के लिए कुछ नहीं कहते हैं। ऐसा नहीं है कि सिर्फ भाजपा इस बार चुनाव में मुख्य विपक्षी पार्टी कांग्रेस का भय दिखा रही है। कांग्रेस और दूसरी विपक्षी पार्टियां भी भाजपा के तीसरी बार सत्ता में आने का भय दिखा रही हैं।