Guest Column : ‘ड्रैगन’ पर भरोसा खुदकुशी करने के समान

अपनी गलतियों को तो कोई तभी सुधार सकता है जब वह यह महसूस कर ले कि उसने अपनी मर्यादाओं का उल्लंघन किया है, उसे तार—तार किया है। लेकिन, क्या चीन अपनी भूलों को मानने के लिए कभी तैयार होगा? ऐसा कभी चीन कर नहीं सकता, इसलिए क्योंकि अहंकार से ग्रस्त वह जानता है कि विश्व का एक सर्वाधिक शक्ति संपन्न देश है।

निशिकांत ठाकुर

कुछ वर्ष पहले भारत में चीन के राजदूत के साथ एक मैत्रीपूर्ण वातावरण में लंच पर बात हो रही थी। अनौपचारिक बातचीत में उनका मानना था कि उनका लक्ष्य भारत से उलझना कतई नहीं है। हां, यदि उलझने की बात चीन करता है तो वह अमेरिका की बात सोच सकता है। लेकिन, यह तो चीन की नीति रही है कि सामने शहद मिलाकर बात करो और इस अवसर की तलाश में रहो कि कब पीठ में छुरा घोंपा जा सके। ऐसी विस्तारवादी नीति चीन की शुरू से ही रही है। वह तो भारत का तथाकथित रूप से प्रारंभ में मित्र देश था। वर्ष 1949 में नए चीन की स्थापना के बाद के अगले वर्ष भारत ने चीन के साथ राजनयिक संबंध स्थापित किए। इस तरह भारत, चीन लोक गणराज्य को मान्यता देने वाला प्रथम गैर-समाजवादी देश बना। वर्ष 1954 के जून माह में चीन, भारत व म्यांमार द्वारा शांतिपूर्ण सह—अस्तित्व के पांच सिद्धांत, यानी पंचशील प्रवर्तित किए गए । दरअसल, चीनी नागरिक अपनी सभ्यता और संस्कृति को इतना महान समझते हैं कि उनके मन में विश्व के किसी भी अन्य देश या जाति के लिए सम्मान की भावना ही नहीं है। वे सभी विदेशियों को असभ्य समझते हैं । पहले भी चीन विदेशियों को अपने बराबर नहीं मानते थे। उनके मत से चीन का सम्राट विश्वभर में एकमात्र श्रेष्ठ एवं सभ्य राजा थे और उसके अतिरिक्त शेष सभी असभ्य । चीन आज भी इतना शक्तिशाली है कि अपनी महानता के मद में किसी अन्य देश के साथ किसी भी प्रकार के संबंध बनाने की आवश्यकता नहीं समझता है।

चीन की बात आज यहां इसलिए, क्योंकि अपनी विस्तारवादी नीति के कारण ही वह एक बार फिर विश्व में चर्चा का केंद्र में है। ताइवान में यही तो हुआ। ताइवान स्ट्रेट में चीन द्वारा किए जा रहे युद्धाभ्यास का क्या अर्थ है? इसी प्रकरण को लेकर जब अमेरिकी राष्ट्रीय प्रतिनिधि सभा की स्पीकर नैंसी पेलोसी ने ताइवान का दौरा किया तो चीन ने उनकी यात्रा पर कड़ा विरोध जताया है। नैंसी पेलोसी पिछले 25 वर्षों में ताइवान का दौरा करने वाली अमेरिका की सबसे बड़ी नेता हैं। इसी से भड़ककर चीन, ताइवान को घेरकर युद्धाभ्यास कर रहा है। इसलिए ताइवान पर चीनी हमले का खतरा मंडरा रहा है। चीन ने नैंसी पेमोले और उनके परिवार की ताइवान यात्रा पर प्रतिबंध लगा दिया है। उधर, चीनी विदेश मंत्रालय ने बीजिंग में अमेरिकी राजदूत क्रिस बर्न्स को तलब कर नैंसी पेलोसी की यात्रा पर कड़ा विरोध जताया है। ताइवान की परेशानी का आलम यह है कि उसके इर्द-गिर्द समुद्र के पानी में आग बरस रही है। बम और गोलियों से दहशत पैदा की जा रही है। ताइवानियों के सिर के ऊपर से सनसनाती मिसाइलें गुजर रही हैं। चीन के पीपुल्स लिबरेशन आर्मी सैन्य अभ्यास लाइव फायर में दो दिन में सौ से ज्यादा लड़ाकू विमान और दस युद्धपोत भेज चुकी है, जबकि ताइवान के रक्षा मंत्रालय के अनुसार चीनी सेना 68 लड़ाकू विमानों और 13 युद्धपोतों ने सीमा का उल्लंघन किया है।

ताइवान को लेकर चीन के हमलावर रुख से दुनिया भर में सेमीकंडक्टर या चीप्स संकट के बादल मंडराने लगे हैं। सूत्रों के अनुसार ताइवान एक मात्र ऐसा देश है जो 64 प्रतिशत चिप की सप्लाई का कार्य करता है और इसमें आधी से अधिक की हिस्सेदारी ताइवान की सेमीकंडक्टर मैन्युफैक्चरिंग कंपनी की है। जानकारों का कहना है कि ताइवान पर चीनी हमला बढ़ता है तो कार से लेकर स्मार्ट फोन, लैपटाप जैसे कई इलेक्ट्रॉनिक उपकरण के साथ वाशिंग मशीन, फ्रिज जैसी कई वस्तुओं का उत्पादन प्रभावित हो जाएगा, क्योंकि इन सभी सामग्रियों में चिप का इस्तेमाल होता है। चीन के हमले को देखते हुए चिप निर्माता कंपनी ने कहा है कि यदि चीन, ताइवान पर हमला करता है तो वह चिप्स का उत्पादन बंद कर देंगे। भारतीय औद्योगिक संगठन सीआईआई की आईसीटीई मैन्युफैक्चरिंग नेशनल कमेटी के चेयरमैन विनोद शर्मा का कहना है कि ताइवान पर हमला पूरी दुनिया के लिए खतरनाक सिद्ध होगा, क्योंकि चिप्स की सप्लाई चेन पहले से उलझी हुई है। रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया के गवर्नर शक्तिकांत दास ने कहा है कि भारत पर ताइवान के किसी प्रतिकूल घटनाक्रम का प्रभाव पड़ने की आशंका नहीं है। उनका कहना है कि भारत के कुल निर्यात में ताइवान की भागीदारी मात्र 0.7 प्रतिशत है और वहां से पूंजी प्रवाह भी अधिक नहीं है, इसलिए भारत पर वहां के संकट का असर पड़ने की आशंका बहुत कम है।

वर्ष 1894 में, जब चीन कमजोर और पिछड़ा हुआ देश था, उस समय भी उसकी मूल साम्राज्यवादी प्रकृति को महापुरुष स्वामी विवेकानंद ने भांप लिया था। अमेरिका के ‘डेट्रॉइट’ नगर में एक वार्ता के बीच भविष्यवाणी की थी कि ‘अंग्रेज भारतवर्ष छोड़कर जाएंगे, परंतु उसके बाद यह आशंका है कि चीन भारत पर आक्रमण करे।’ स्वामी विवेकानंद का यह कहना किसी गणना के आधार पर ही रहा होगा, क्योंकि वह जानते होंगे कि भारत—चीन सीमा 2600 मील में कोई—न—कोई खटका तो होता ही रहेगा। और, यही हुआ भी। भारत के आजाद होते ही चीन ने पहले भारत का हाथ दोस्ती के लिए पकड़कर गर्दन पर वार करना शुरू कर दिया। उसका संपूर्ण स्वरूप वर्ष 1962 में निकलकर सामने आया, जब दोनों देशों के बीच भयंकर युद्ध हुआ, जिसमे भारतीय पलड़ा नीचे ही रहा। एक अमेरिकन पत्रिका ने लिखा कि ‘पंडित नेहरू और श्री कृष्णमेनन एक धोखे के शिकार हुए हैं। पहले वे शत्रु के भुलावे में रहे और फिर उनके आक्रमण के जाल में फंस गए।’ भारतीय सैकड़ों जवान शहीद हुए और हमारी सीमा पर कई जगह चीन ने कब्जा जमा लिया तथा मैकमोहन सीमा—रेखा को मानने से साफ इंकार कर दिया। जबकि, कानून का यह स्थायी सिद्धांत है कि किसी भी देश की जो वर्तमान स्थिति बहुत समय से वैसी ही चली आ रही है, उसे कम-से-कम बदला जाए। सीमा विवादों का निर्णय निम्नलिखित आधारों में से किसी एक के अनुसार हो सकता है- अंतराष्ट्रीय कानून द्वारा स्वीकृत स्वाभाविक सीमा, सीमा के ऐसे भौतिक चिह्न, जिन पर कोई विवाद न हो, संबंधित देशों द्वारा किए गए कानूनी समझौते, निश्चित सीमा के अंदर दोनों देशों की विभिन्न गतिविधियां।

चीनी उत्पीड़न से त्रस्त नॉवेल शांति पुरस्कार से सम्मानित , तिब्बत के परम् पावन धर्मगुरु दलाई लामा अपनी आत्मकथा ” मेरा देश निकाला” में कहते हैं कुछ दिन के लिए में जीवित बुद्ध हूं , करुणा के बोधिसत्व अवलोकितेश्वर का मानुषी अवतार ,कुछ के लिए “ईश्वर — सम्राट” हूं। चीनी शासक के उत्पीड़न से त्रस्त होकर 31 मार्च 1959 को तिब्बत से भागा और तब से लेकर अब तक मैं निर्वासित के रूप में भारत में रह रहा हूं । यह चीन की विस्तारवादी नीति का ही तो परिणाम है जिसके कारण महामहिम दलाई लामा तक को उसका उसका खामियाजा भुगतना पड़ रहा है । भारत की इतनी बड़ी सीमा पर चीन कोई—न—कोई विवाद तो करता ही रहता है और सभी तथा वह सभी अंतरराष्ट्रीय नियमों को मानने से इंकार करता रहा है। चीनी सैनिकों के साथ गलवां में झड़प के एक साल पूरे हो गए हैं, लेकिन अब तक चीन ने एलएसी के पास डेरा डाल रखा है। भारत ने भी अब ड्रैगन से निपटने के लिए लंबी तैयारी शुरू कर दी है। भारतीय सेना पिछले एक साल से लद्दाख में 50,000 सैनिकों के साथ तैनात है। इस तैनाती में भी बदलाव नहीं आया, जबकि यहां तापमान शून्य से 40 डिग्री नीचे गिर जाता है। ज्ञात हो कि 15 जून, 2020 को पूर्वी लद्दाख की गलवां घाटी में भारत और चीन के बीच खूनी झड़प हुई थी। इस झड़प में भारत के 20 सैनिक शहीद हो गए थे। शहीदों में बिहार रेजिमेंट के कर्नल संतोष बाबू भी शामिल हैं। देखना यह होगा कि भारतीय पक्ष के इस मजबूती के साथ खड़े होने के बाद क्या चीन अपनी स्थिति को सुधार करेगा।


(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक हैं)