Guest Column : हार में भी जीत तलाशती सरकार

एमएसपी को कानूनी गारंटी की किसान की मांग का समर्थन करते हुए सोनिया गांधी ने कहा कि खेती की लागत के अनुपात में किसानों को लाभकारी मूल्य दिया जाना चाहिए। किसानों में गैर-भेदभाव और साम्राज्यवाद-विरोधी संघर्ष की सर्वव्यापी प्रकृति के कारण किसान आंदोलन भूमिहीन मज़दूरों एवं सामंतवाद-विरोधी किसानों के सभी वर्गों को एकजुट करने में सक्षम रहा है।

निशिकांत ठाकुर

भारतीय कृषि क्षेत्र में ‘व्यापक सुधार’ लाने एवं किसानों की आमदनी दोगुना करने की नीयत से केंद्र की नरेन्द्र मोदी सरकार द्वारा लाए गए तीन नए कृषि कानून धरातल पर आने से पहले ही दफन हो गए। किसानों, जिन्हें सरकार ने आंदोलनजीवी, फर्जी प्रदर्शनकारी, खालिस्तानी आतंकी तक कहने से नहीं चूकी, के एक साल से ज्यादा लंबा चले विरोध—प्रदर्शन के कारण सरकार को तीनों कानून वापस लेना पड़ गया। लेकिन, विरोध—प्रदर्शन के इस एक वर्ष के दौरान देश में जो उथल—पुथल मची रही, दिल्ली की सीमाएं जाम रहीं, आम जनजीवन अस्तव्यस्त रहा, 700 किसानों की जो असामयिक मौत हुई, इन सबकी जिम्मेदारी आखिर कौन लेगा? यह अलग बात है कि प्रधानमंत्री स्वयं इस सबकी जिम्मेदारी ले चुके हैं, लेकिन यह उनकी सदाशयता थी। दरअसल, प्रधानमंत्री ने ऐसे सलाहकारों से इन कानूनों को बनाने में सहायता ली जिनका खेती—किसानी से कोई वास्ता नहीं था, कोई जमीनी अनुभव नहीं था। लेकिन हां , चूंकि वे सत्ता के इतने नजदीक थे जिन्होंने अपनी करीबी संबंधों के कारण न केवल प्रधानमंत्री को ही , बल्कि पूरे देश को गुमराह किया। यहां तक कि अपनी पहुंच में वे इतने चतुर—चालाक— थे कि यदि उन्हें कोई सच का आईना दिखाना चाहता था तो उन पर ऐसे टूट पड़ते थे जैसे उससे बड़ा कृषि विशेषज्ञ या जानकर देश में कोई और है ही नहीं। अपने कुतर्क एवं सफगोई से दूसरों को चुप कराना, अपनी धरातल से उसे ऊपर उठकर, डराकर, यह साबित करना कि यह जो कृषि कानून बनाया गया है, वह आज तक का किसान हित का श्रेष्ठतम उदाहरण है। न जाने इन कृषि कानूनों को वापस लेने के बाद और प्रधानमंत्री द्वारा ‘सदाशयता’ दिखाने के साथ तथा देश के किसानों से खुले हृदय से माफी मांगने के बाद वे सलाहकार अब कहां मुंह छुपा रहे होंगे और अपनी खुन्नस में किसानों के लिए किस तरह का योजना रच रहे होंगे। ऐसे बुद्धिजीवी लोगों से प्रधानमंत्री को भविष्य में सावधान रहने की जरूरत है। ऐसे सलाहकार न केवल प्रधानमंत्री की छवि को धूमिल कर गए, बल्कि भविष्य में भाजपा को इसका खामियाजा अगले साल पांच राज्यों में होने जा रहे विधानसभा चुनाव में भी उठाना पड़ सकता है।

तीनों कृषि कानूनों को लेकर किस प्रकार सरकार की खिंचाई हो रही है, इसका ताजा उदाहरण कांग्रेस संसदीय दल की बैठक में कांग्रेस सुप्रीमो सोनिया गांधी ने आलोचना करते हुए कहा कि जिस तरह अलोकतांत्रिक तरीके से इन कानूनों को बिना बहस के पारित कराया गया था, उसी तरह निरस्त भी किया गया है। कानून के निरस्त होने को प्रदर्शनकारियों के एकजुट संघर्ष की जीत बताते हुए उन्होंने कहा कि इस दौरान 700 से अधिक प्रदर्शनकारियों को भी याद करने और उनके परिवारों को मुआवजा देने की जरूरत है।
भारत में कृषि के इतिहासकारों का कहना है कि ब्रिटिश भारत के पंजाब प्रांत की विधानसभा ने ‘सर’ छोटू राम के राजस्व मंत्री रहते हुए वर्ष 1938 में जो पहला ‘कृषि उत्पाद मंडी अधिनियम’ पारित कर उसे लागू किया था, दरअसल उसकी परिकल्पना चौधरी चरण सिंह की थी। वह कहते हैं कि चौधरी चरण सिंह जब पहली बार चुनाव जीतने के बाद उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री गोविन्द बल्लभ पंत के संसदीय सचिव बने थे, तो कृषि उत्पाद मंडी बनाने के लिए एक बिल लाना चाहते थे, लेकिन पंत ने उन्हें मना कर दिया। उसके बाद चौधरी चरण सिंह ने उत्तर प्रदेश की ‘यूनाइटेड प्रोविंस लेजिस्लेटिव असेंबली’ में एक ‘प्राइवेट मेंबर बिल’ पेश किया, लेकिन वह बिल पारित नहीं हो पाया। यह बात वर्ष 1937 की है। चौधरी चरण सिंह की ओर से लाया गया ‘प्राइवेट मेंबर बिल’ पास तो नहीं हो पाया, लेकिन इस बिल की जानकारी जब ब्रिटिश राज के पंजाब प्रांत के राजस्व मंत्री सर छोटू राम को मिली तो उन्होंने वह बिल मंगवाया। फिर लाहौर स्थित ब्रिटिश भारत के पंजाब प्रांत की विधानसभा में कृषि उत्पाद मंडी अधिनियम-1938 पारित किया गया, जो 5 मई, 1939 से लागू हो गया । हालांकि, इसका श्रेय सर छोटू राम को ही जाता है, जिन्होंने किसानों के लिए और भी कई क्रांतिकारी क़दम उठाए थे। कृषि उत्पाद मंडी अधिनियम भी उनमें से एक था। इस क़ानून के लागू होते ही अविभाजित पंजाब के निर्धारित इलाकों में मार्केट कमेटियों के गठन का सिलसिला शुरू हुआ। इस क़ानून के आने के बाद पहली बार पंजाब प्रांत के किसानों को उनकी फसल का उचित मूल्य तो मिलना शुरू हुआ ही, साथ ही बिचौलियों और आढ़तियों का शोषण झेल रहे किसानों को उनसे राहत भी मिलनी शुरू हो गई। लेकिन, भारत के दूसरे प्रांतों में किसान बिचौलियों, ज़मींदारों और साहूकारों से संघर्ष कर रहे थे। वैसे तो अलग—अलग स्थानों पर किसानों के विरोध के स्वर उठते रहते थे, लेकिन सबसे पहले सबसे बड़ा किसान आंदोलन कब हुआ? इसको लेकर इतिहासकारों के बीच राय बंटी हुई है। 1800 के दशक के बीच के सालों से लेकर इसके अंत तक किसानों के कई विद्रोह और संघर्ष हुए, जो इतिहास के पन्नों में दर्ज हैं। इनमें ब्रितानी हुकूमत की ओर से किसानों पर लगाए गए लगान के विरुद्ध भी देश के अलग-अलग हिस्सों में प्रदर्शन हुए थे।

बात वर्ष 1987 की है। पश्चिमी उत्तर प्रदेश के मुज़फ्फरनगर के कर्नूखेड़ी गांव में बिजली घर जल गया। इलाक़े के किसान पहले से ही बिजली संकट का सामना कर रहे थे और इसको लेकर बहुत परेशान थे। किसानों के बीच से ही सामने आए एक किसान महेंद्र सिंह टिकैत ने सभी किसानों से बिजली घर के घेराव का आह्वान किया। यह तारीख थी 1 अप्रैल, 1987। ख़ुद टिकैत को भी अंदाज़ा नहीं था कि बिजली घर के घेराव जैसे छोटे से मामले को लेकर लाखों किसान कर्नूखेड़ी में जमा हो जाएंगे। किसानों के प्रदर्शन को देखते हुए और उनकी संख्या देखते हुए सरकार भी घबराई और उसे किसानों के लिए बिजली की दर को कम करने पर मजबूर होना पड़ा। यह किसानों की बड़ी जीत थी और तब उन्हें लगा कि वह अपने मुद्दों को लेकर बड़ा आंदोलन भी कर सकते हैं और इसलिए उसी साल अक्टूबर में सिसोली में किसान पंचायत बुलाई गई, जिसमें उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री वीर बहादुर सिंह भी शामिल हुए। किसानों ने अपनी एकता को पहचान लिया और महेंद्र सिंह टिकैत के रूप में उन्हें एक किसान नेता भी मिल गया। फिर कुछ ही महीनों के बाद, यानी 1988 के जनवरी में किसानों ने अपने नए संगठन ‘भारतीय किसान यूनियन’ के झंडे तले मेरठ में 25 दिनों का धरना आयोजित किया, जिसने अंतरराष्ट्रीय स्तर पर ख़ूब सुर्खियां बटोरीं। धरने में पूरे भारत से किसान संगठन और नेता शामिल हुए। जिस प्रकार आज भारतीय किसान यूनियन को राकेश टिकैत, जो महेंद्र सिंह टिकैत के ही पुत्र हैं, किसान नेता के रूप में उभरकर देश के सामने आए हैं। उनकी तपस्या ने केंद्रीय सरकार को घुटने के बल बैठने पर विवश कर दिया।


(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक हैं)